Saturday, May 16, 2015

37 भीड़ तो हर ओर मुझको दिख रही

भीड़ तो हर ओर मुझको दिख रही,
पर कहीं नहिं दिख रहा है आदमी।।
 
भोर से गर शाम तक ढूँढो यहाँ,
इक्का-दुक्का तब मिलेगा आदमी।।
 
आचरण पशुओं के जैसा कर रहा,
आदमी में मर रहा है आदमी।।
 
बीएमडब्लू, मर्सडीज में बैठकर,
आदमी को न समझता आदमी।।
 
घर की तुलसी को घरों में छोड़कर,
नागफलियों में पड़ा है आदमी।।
 
भ्रष्टता ने खून पानी कर दिया,
आदमी में अब कहाँ है आदमी।।
 
आगे बाले वक्त में 'अनुपम' यहाँ,
ढूँढ़े से भी न मिलेगा, आदमी।।

रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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