जो दिल में जख्म है मेरे, उसी पर मैं लिखा करता।
नहीं देता जिसे भरने, उसी पर मैं लिखा करता।।
नहीं मैं मीर, मोमिन हूँ, न ग़ालिब हूँ, न नीरज हूँ,
गरीबी से मैं निकला हूँ, उसी पर मैं लिखा करता।।
न करता बात मंदिर की, न मस्जिद की, न चर्चों की,
जहां इससे भी आगे है, उसी पर मैं लिखा करता।।
गगनचुंबी इमारत की, तुम्हें ऊँचाइयाँ दिखती,
मुझे कुछ हाथ दिखते हैं, उसी पर मैं लिखा करता।।
शराबें, दावतें, परियाँ, मुबारक आप सबको हों,
हमें पानी ही चाहत है, उसी पर मैं लिखा करता।।
मुझे मखमल की नहिं चाहत, मुझे मलमल की नहिं चाहत,
मुझे खद्दर ही मिल जाये, उसी पर मैं लिखा करता।।
मुझे दिखती नहीं बिकनी, न झींनी पैंटी दिखती,
फकत पैबंद ही दिखते हैं, उसी पर मैं लिखा करता।।
हमारी है जरूरत क्या? हमारी क्या है दुश्वारी,
हमारे कौन दुश्मन हैं? उसी पर मैं लिखा करता।।
हमारे भग्न हृदय में, चुभन भी है, औ गुस्सा भी,
छुपी है आग जो अन्दर, उसी पर मैं लिखा करता।।
हमें कप और ये तमगे, न ही ये महफ़िलें दिखती,
हमें तो भूख दिखती है, उसी पर मैं लिखा करता।।
सुनी जाती नहीं जिसकी, लिखा जाता नहीं जिस पर,
उन्ही की सोचकर के अब, उसी पर मैं लिखा करता।।
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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