किस तरह लाचार है, इस वतन का आदमी,
सिर्फ इक औज़ार है, इस वतन का आदमी॥
खेत हों या फैक्ट्री, खून से जो सींचता,
वो ही पानी को प्यासा, इस वतन का आदमी॥
चूमती जिसकी बदौलत, ये इमारत गगन को,
नींव नीचे दब रहा है, इस वतन का आदमी॥
पत्थरों को काटकर, सड़कें बनाता जो रहा,
उन पर कुचला जा रहा है, इस वतन का आदमी॥
प्याज-रोटी खाकर पानी, पी लिया करता था जो,
मार मंहगाई का खाता, फिर रहा है आदमी॥
गाँव से आया शहर को, पेट पापी के लिए,
बद से बदतर हो गया है, इस शहर का आदमी॥
सभ्यता का होटलों में, हो रहा है कैबरे,
आबरू चिथड़ों ढकता, फिर रहा है आदमी॥
चार चोरों में से चुनना, पड़ रहा इक चोर को,
किस व्यवस्था में फँसा है, इस वतन का आदमी॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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