80. शिक्षा के दिन अब गुजरते पार्क में
शिक्षा के दिन अब गुजरते पार्क में,
ज्ञान अर्जन कर रहे हैं जिस्म का।
लोधी, बुद्धा गार्डन, इसके लिए,
शोध जिस्मानी जहाँ हर किस्म का।
मुख पे मुख रक्खे हुये तल्लीन हैं,
खंडहरों में ये नज़ारे देखिये।
कोई मुख से ढूँढता छाती में कुछ,
कोई जाँघों के किनारे देखिये।
तन से तन चिपटे हुये, मिलते युगल,
कुछ नए, कुछ बहुत ही अभ्यस्त हैं।
कुछ को मंज़िल मिल गयी है जल्द ही,
कुछ अभी भी राह में मदमस्त हैं।
हंसनी लाती नए इक हंस को,
प्रेमी के सँग प्रेमिका होती नयी।
प्रेमलीला, रासलीला, कामक्रीड़ा,
दिन, महीने, साल भर चलता यही।
जल्द ही परिणाम जब आता निकल,
फूलने लगता हसीना का उदर।
ढूँढती फिर अन-ब्याहे मर्द को,
और जब मिलता न तो लगता है डर।
लोक मर्यादा को हँस-हँस तोड़कर,
अस्मत पैसों के लिए खुद होम की।
गाड़ी, बंगला, होटलों का यौन सुख,
है दिखाता राह नर्सिंग होम की।
रणवीर सिंह (अनुपम),
मैनपुरी (उप्र)
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