Saturday, May 16, 2015

50 जो मिलता है, बिछुड़ता वो

जो मिलता है, बिछुड़ता वो, ये बाखूबी समझता हूँ।
मगर फिर भी बिछुड़ना ये, मुझे अच्छा नहीं लगता॥
 
जरूरत के समय पर जो, किसी से मिल नहीं सकते,
उन्हीं से रोज़ यों मिलना, मुझे अच्छा नहीं लगता॥
 
जिधर देखो उधर हर ओर ओछे, गीत मिलते हैं,
इन्हें पढ़ना, इन्हें सुनना, मुझे अच्छा नहीं लगता॥
 
सुबह से शाम तक टीवी पे, औरत का ही जलवा है,
खुले अंगों का ये जलवा, मुझे अच्छा नहीं लगता॥
 
मेरे लेखन से गर लोगों को, हासिल कुछ नहीं होगा,
व्यर्थ में फिर कलम घिसना, मुझे अच्छा नहीं लगता॥
 
देह ढकने को सदियों में, हुआ ईज़ाद ये कपडा।
उसी का अब सिकुड़ना यों, मुझे अच्छा नहीं लगता॥

रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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