Saturday, May 16, 2015

58 इक बुत को लगा के गले

इक बुत को लगा के गले,
मैने महसूस किया।
पत्थर के भीतर भी,
इक चाह मचलती है॥
विधवा रातों की तड़फ,
कोई कैसे जान सके,
हर शाम से सुबह तलक,
करवट जो बदलती है॥
पुरुषों की पिपासा को,
हर रोज बुझाती जो,
वो ही भीतर से क्यों,
अंगार सी जलती है॥
हर गम को छुपा दिल में,
औरत मुस्काती जो,
उसके अंर्तमन में,
आरी सी चलती है॥
औरत का निकलना घर से,
अब भी आसान नहीं,
नारी हर रोज नए,
काँटों से गुजरती है॥
गलियों में, दपत्तर में,
हर जगह गिध्द बैठे,
फिर भी हिम्मत से ये,
आगे को बढ़ती है॥
नारी जीवन दाता,
नारी सुखदायी है,
पुरुषों के जीवन में,
झरने सी झरती है॥
फिर भी न जाने क्यों?
सिर शर्म से झुक जाता,
नारी जब अधनंगी,
पर्दे पे दिखती है॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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