Saturday, May 16, 2015

72 "इंसा क्या से क्या कर बैठा"

इंसा क्या से क्या कर बैठा, खुद अपनी नादानी में।
मानव ने ही आग लगाई, खुद अपनी जिंदगानी में॥
 
झूठों पर विश्वास करूँ मैं, सच को न पहिचान सकूँ,
मुख पर आज मुखौटे इतने, खुद को खुद न जान सकूँ,
कितना मैं हुशियार हो गया, लोगों गलतबयानी में॥
 
गले मिलन की किसे तमन्ना, हाथ से हाथ मिलाना ठीक,
दो दिन में भारी हो जाते, जो दिल को थे बड़े अजीज,
प्रेम, चाह, उत्साह नहीं अब, शहरों की मेहमानी में॥
 
निर्माता, निर्दशक, लेखक, सब कर्तव्य भुला बैठे,
सास-बहू में, और घर-घर में, हैं षडयंत्र घुसा बैठे,
धारावाहिक सभी एक से, कुछ न नया कहानी में॥
 
समझदार हो गए शहर में, खानदान से होकर दूर,
बुद्धिमान अब बेटा-बेटी, मात-पिता को नहीं सऊर,
सारे खोट आ गए अब तो, दादा, नाना, नानी में॥
 
नैतिकता है ढोंग कहाती, सच का होता है परिहास
डरते हैं ईमानदार से, भ्रष्टों पर होता विश्वास,
इज्जत, शोहरत, धन-दौलत सब, मिलता बेईमानी में॥
 
ढोंग, छलकपट के बांसों पर, जीवन तंबू गाड़ रहे,
संस्कार की चादर अपनी, हम ही हैं खुद फाड़ रहे,
मच्छर ने कब छेद किए हैं, लोगो मच्छरदानी में॥
 
धूप, पत्तियाँ, फल-फूलों को, नित नदियों में फेंक रहे,
कूड़ा-करकट, टायर, पन्नी, हर दिन जलते देख रहे,
दूषित वायु हमीं ने की है, जहर मिलाया पानी में॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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