Saturday, May 16, 2015

54 न ही तन ये उठता, न उठने की चाहत

न ही तन ये उठता, न उठने की चाहत,
हमें ठंड निष्ठुर, ये कितना सताती,
करूँ लाख कोशिश, रज़ाई से निकलूँ,
मगर अगले क्षण, अक्ल सब भूल जाती॥
 
जिधर देखता हूँ, धुआँ ही धुआँ है,
कोहरे की चादर, तनी हर जगह है,
नहीं दीखता पाँव के पास का भी,
यही हाल, हालत, बनी सब जगह है॥
 
गया जम है पाला, मटर, आलुओं पर,
नहीं इसने अरहर, चने को भी छोड़ा,
जिधर देखो उस ओर चाँदी सा चमके,
कहीं पर है ज्यादा, कहीं पर है थोड़ा॥
 
गालों पे लगते हैं, कर्कश थपेड़े,
चुभते हैं ऐसे, बदन काँप जाता,
बूढ़ों की हालत का, मत हाल पूछो,
न ये शीत लहरें, जवां झेल पाता॥
 
मुख से धुआँ, कुछ निकलता है ऐसे,
कि ज्यों भाप निकले, गरम केतली से,
सभी बूढ़े-बच्चे, अलावों को घेरे,
निकलता न दिखता, कोई भी गली से॥
 
ऐसे में कैसे, लिखूँ कोई कविता,
न चलती कलम, अक्ल भी जम गई है,
बाहर निकलकर, कहीं जम न जाए,
मेरी सांस अंदर, मेरे थम गई है॥

रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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