Saturday, May 16, 2015

41 महानगर की आपाधापी

महानगर की आपाधापी, अब है मुझको रास नहीं,
जीता हूँ पर जीने जैसा, है कोई अहसास नहीं॥
 
कंक्रीट की जमीं हर तरफ, कंक्रीट के हैं जंगल,
फूल-पत्तियाँ, बाग-बगीचे, हरियाली अरु घास नहीं॥
 
आठों पहर व्यस्तता घेरे, समय सारणी में जकड़े,
बिन उत्साह जिए जाते हैं, न उमंग, कोई हास नहीं॥
 
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर, इसी में दुनिया सिमट गई,
तीसौ दिन हैं बुझे-बुझे से, चेहरे पर उल्लास नहीं॥
 
आज सफलता का पैमाना, किसी तरह ऊपर चढ़ना,
नैतिकता, ईमान, परिश्रम, पर होता विश्वास नहीं॥
 
महमानों के लिए वक्त न, मिजबानी की चाह नहीं,
मन में कुछ, ओठों पर कुछ है, पास भी होकर, पास नहीं॥
 
शोहरत, पैसा, बंगला, गाड़ी, कपट, दिखावा, प्रतिष्ठा,
जलन, ईर्ष्या, घृणा, हिंसा, शेष बचा कुछ खास नहीं॥

रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी(उप्र)
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