Saturday, May 16, 2015

52 पिछले वर्ष पचासों में हम (गीत)

गुजरे वर्ष पचासों में हम, 
ज्यादा आगे नहीं बढ़े,
कितने क्षेत्र अभी भी बाकी, 
जिनमें हम हैं वहीं खड़े।


वही भूख है, वही प्यासें, 
वही है शोषित आवादी,
वही अशिक्षा, वही गरीबी, 
अर्थहीन है आज़ादी।

ये पहले भी विद्यमान थे, 
ये अब भी, मौजूद खड़े॥

 
दस बीघा से पाँच हो गई, 
पाँच से ढाई, सवा हुई,
फिर भी इक बच्चा होने पर, 
सास बहू से खफा हुई।

समझाने से बात न समझे, 
बात-बात पर सास लड़े॥

 
एक झोपड़ी में सो लेंगे, 
बच्चे, छः या सात मगर,
जनहित वाले प्रचारों का, 
थोड़ा सा नहीं पड़े असर।

पानी की लाइन में ऐसे, 
ज्यों अमृत के लिए खड़े॥

 
गुरद्वारे में शीश हैं झुकते, 
अब भी चर्च सजा करते,
अब भी रोज़ अजाने होतीं, 
अब भी शंख बजा करते।

फिर भी क्यों कश्मीर जल रहा, 
फिर भी क्यों गुजरात जले॥

 
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख सभी हैं, 
पर दिखता इंसान नहीं,
धर्म-जाति से परिचय होता, 
खुद की है पहिचान नहीं।

एक सबक भी सीख न पाया, 
धर्मग्रंथ तो खूब पढ़े॥

 
धर्मयुद्ध और जेहादों में, 
खून, खून न पानी है,
हर रिस्ता मौजूद यहाँ पर, 
नहिं रिस्ता इंसानी है।

कहीं धर्म कर रहा तांडव, 
कहीं धर्म की लाश सड़े॥


जगह-जगह मंदिर मस्जिद हैं, 
पर ईश्वर हैं कहीं नही,
कहीं यज्ञ हैं, कहीं नवाजें,
पर परमेश्वर कहीं नहीं।

कहीं अयोध्या फूँक रहे हैं, 
कलियुग के हनुमान खड़े॥


जहाँ बात हरदम उठती थी, 
जनता की खुशहाली,
जो संसद थी सदा सोचती, 
खेती और हरियाली की।

उसी जगह जनता के प्रतिनिधि, 
भौंके, दौड़े खूब लड़े॥

 
जीवित का नहीं नाम लिस्ट में, 
मुर्दे दे जाते हैं वोट,
बेईमानी विजयी होती, 
अच्छाई में निकले खोट।

किसे पता है, कौन जानता, 
कितने फर्जी वोट पड़े॥

रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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