Sunday, May 17, 2015

91 सभी लोग जैसे जमीं के वहीं थे

सभी लोग जैसे जमीं के वहीं थे, कुर्सी से कुर्सी सटी जा रही थी,
कोई मौज में, कोई चुपचाप बैठी, किसी को किसी पर हँसी आ रही थी,
मोटी या काली या हो दागवाली, मुख से गुलाबी चमक आ रही थी,
पैंतीस, पचपन या हो साठवाली, दुल्हन सी दिखती नज़र आ रही थी॥1
कोई मुख में मछली पकौड़ा दिए थी, कोई चाय चुस्की लिए जा रही थी,
कोई पीती कॉफी, कोई दोस्तों संग, लिमका, गटागट पिये जा रही थी,
कोई चिप्स की, कोई शाही कबाबों की, दो-दो प्लेटें लिए जा रही थी,
कोई सब्र से बैठी बच्चों को अपने, खुशी से नशीहत दिए जा रही थी॥2
नज़र इक बदन पे, नज़र इक जुवन पे, नज़र एक नज़रों से टकरा रही थी,
नज़र हो ब्याही, नज़र बिन ब्याही, हमें सिर्फ क्वारी नज़र आ रही थी,
नज़र अपने आशिक की नज़रों से मिलती, नज़र फिर शर्म से झुकी जा रही थी,
खुदा जाने या फिर नजरवाला जाने, कि किसकी नज़र अब कहाँ जा रही थी॥3
चली ज़िंदगी आज लेके उमंगें, नए पथ पे चल के, नया घर बसाना,
गालों पे सुर्खी और होंठों पे लाली, नज़र न लगे रूप कैसा सुहाना,
नाजुक उँगलियों से लहंगे को पकड़े, अहिस्ते-अहिस्ते से मंडप को जाना,
चले संग भाभी, चले संग सखियाँ, गिन-गिन के कदमों को आगे बढ़ाना॥4
कदम नापकर बढ़ना आगे सँभलकर, नया मोड़ ज्यों कोई आना हो बाकी,
सजे पाँव को धीरे-धीरे उठाना, ज्यों मेंहदी अभी भी छुटाना हो बाकी,
सूरत जो मन में मचाती है हलचल, उधर को कदम फिर बढ़ाना है बाकी,
नज़र थक गई मिल न पाई नज़र से, उसी से नज़र को मिलाना है बाकी॥5
हजारों नज़र से, नज़र को बचाकर, धीरे से आँखों की पुतली घुमाना,
नज़र फिर भी प्यासी की प्यासी रही तो, धीरे से गर्दन सुराही घुमाना,
नज़र पहुँची जब रूपसागर के सन्मुख, जी भर के अतृप्त प्यासें बुझाना
नज़र से नज़र कुछ मिली इस तरह से, नज़र के सिवा फिर नज़र कुछ न आना॥6
खुले के खुले नयन स्थिर हुये हैं, नहीं कोई हरकत नज़र आ रही थी,
हुए मौन तन-मन, लगे मूर्ति सी, मौसम में ज्यों मोहनी छा रही थी,
सजे सुर्ख होठों की वो कपकापहट, लगे ज्यों काली फूटने जा रही थी,
स्वर थरथराए, कोई गायिका ज्यों, जीवन की पहली ग़ज़ल गा रही थी॥7
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
*****

No comments:

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.