Sunday, May 17, 2015

92 ज़िंदगी महलों में जीना

ज़िंदगी महलों में जीना, ही नहीं है ज़िंदगी,
इस जमीं से उस फलक तक, हर जगह है ज़िंदगी ।।
 
आदमी जब आदमी से, प्यार ही न कर सके,
क्या सिखाया धर्म ने फिर, क्या सिखी है ज़िंदगी ।।
 
गर पड़ोसी की जरूरत, में न आऊँ काम तो,
काहे का इंसान मैं हूँ, काहे की है ज़िंदगी ।।
 
जिसने साथी से वफ़ादारी निभा पाई नहीं,
वासनामय चिपचिपाती सी लगे वो ज़िंदगी ।।
 
तू समझता नारियाँ इक, भोगने की चीज हैं,
जानवर सी सोच तेरी, जानवर सी ज़िंदगी ।।
 
लब्ज और करतूत में, कोसों का जिनके फर्क है,
इनसे रहना तू संभलकर, दोमुँही है ज़िंदगी ।।
 
जो बुढ़ापे में सहारा, न बने माँ-बाप का,
ऐसी औलादों को है, धिक्कार ऐसी ज़िंदगी।।
 
कौन सा घुन लग गया है, आज के आवाम में,
जिंदगी से आज बच-बच, चल रही है ज़िंदगी ।।
 
बात मजलूमों, गरीबों, की अगर मैं न करूँ,
काहे का मैं रहनुमा फिर, काहे की ये ज़िंदगी ।।
 
सादगी के संग जीना, बात है आसां नहीं,
जब चलो तो मुश्किलों से, है भरी ये ज़िंदगी ।।
 
जो जिऊँ खुद के ही लिए, निज पेट भरने के लिए,
सच कहूँ ये ज़िंदगी, 'अनुपम' नहीं है ज़िंदगी।।
 
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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