सतरा-अठरा की उमर में, इस तरह से न चलो।
दौर ये फिसलन भरा है, इस तरह से न चलो।
आग के दरिया में न घुस, सोच ले अंजाम को,
आग आखिर आग होती, इस तरह से न चलो।।
मत उलझ भंवरों से ऐसे, तू अभी कच्ची कली,
बात मानो इस उमर में, इस तरह से न चलो।।
फूल सी निखरी हुई, इस देह पर काबू रखो,
इसको बेकाबू बनाकर, इस तरह से न चलो।।
ये तेरी अल्हड़ जवानी, ले रही अंगड़ाइयाँ,
राह में अंगड़ाइयाँ ले, इस तरह से न चलो।।
ठीक है फागुन महीने, का नशा तुझ पर चढ़ा,
पर नशे में लड़खड़ाकर, इस तरह से न चलो।।
अनछुए यौवन पे तेरे, है नज़र सबकी गढ़ी,
तंग गलियों से गुजरकर, इस तरह से न चलो।।
दूधिया तन ले प्रिये, मत झील के भीतर घुसो,
आग दरिया में लगाने, इस तरह से न चलो।।
जब जमीं पर तू चले तो, साँस थम जाती मेरी,
अह! मेरी गजगामिनी तुम, इस तरह से न चलो।।
उर्वशी, रंभा, अरे ओ! मेनका, ओ! मोहनी,
तुम मुझे पथ-भ्रष्ट करने, इस तरह से न चलो।।
इस तरह यों सज-सँवर के, काम की देवी रती,
प्राण हरने मुझ पुरुष के, इस तरह से न चलो।।
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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