प्यार कोई खेल नहीं, कितनों को भटकते देखा,
हुश्न के द्वार पर, तलबों को रगड़ते देखा॥
हुश्न के द्वार पर, तलबों को रगड़ते देखा॥
कितने मजनूँ, फरहाद और राँझों को,
इश्क की चाह में, फाँसी पे लटकते देखा॥
इश्क की चाह में, फाँसी पे लटकते देखा॥
उस समय चाँद ने, जानी है हकीकत अपनी,
जब उन्हें गाल से, ज़ुल्फों को झटकते देखा॥
जब उन्हें गाल से, ज़ुल्फों को झटकते देखा॥
हमने मेहनत के बिना, दौलत की चाह में यारो,
कितनी बालाओं को, मर्दों से लिपटते देखा॥
कितनी बालाओं को, मर्दों से लिपटते देखा॥
उस खुले जिश्म का, आदर भी करें, कैसे करें?
जिसको बेशर्म हो, मंचों पे मटकते देखा॥
जिसको बेशर्म हो, मंचों पे मटकते देखा॥
भूख की मार से, बच्चों की तड़फ से व्याकुल,
गैर की बाहों में, इक माँ को सिमटते देखा॥
गैर की बाहों में, इक माँ को सिमटते देखा॥
रेल की पटरी पर, जूठन से सनी पत्तल पे,
कितने भूखों को, एक साथ झपटते देखा॥
कितने भूखों को, एक साथ झपटते देखा॥
आज सम्बन्धों में, वो बात कहाँ मिलती है,
इनको शीशे की तरह, रोज़ चटकते देखा॥
इनको शीशे की तरह, रोज़ चटकते देखा॥
प्रेम में शर्त को, स्वीकार किया क्यों ‘अनुपम’?
दिल में हर रोज़ यही, खार खटकते देखा॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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दिल में हर रोज़ यही, खार खटकते देखा॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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