Sunday, May 17, 2015
99. कोई आकर आज कोई आकर आज बताए, बचपन बेबस इतना क्यों है? जन्म से पहले, बाद जनम के, जीवन दुष्कर इतना क्यों है? बात नहीं है उन बच्चों की, जन्मे हैं जो महलों में, बात यहाँ मैं करता उनकी, जन्में जो खपरैलों में, बात यहाँ पर उनकी भी नहिं, जिनके तन पर मलमल है, बात यहाँ पर उनकी जिनको, केवल माँ का आँचल है, एक को दूध, दवाई, भोजन, एक कुपोषण सहता क्यों है? कोई आकर आज बताए...1 भूखी माँ के संग उदर में, भूखा रहना पड़ता है, जिस तन से है उदगम होना, उससे लड़ना पड़ता है, खाली उदर अजन्मे शिशु को कब तक देगा संरक्षण, जर्जर तन किस भाँति भ्रूण का, कर सकता समुचित पोषण, यह मत पूछो इस हालत में, हृदय बेकल माँ का क्यों है? कोई आकर आज बताए....2 हाँफ -हाँफकर लगी हुई है, भोर से सारा काम करे , तन-मन की पीड़ा से बोझिल, फिर भी न आराम करे, प्रसव के दिन भी इस माँ को, प्रसव का है वक्त नहीं, और देश में इस प्रसव को, मिले सुरक्षित जगह नहीं, चलती बस में, फुटपाथों पर, जन्म हमारा होता क्यों है? कोई आकर आज बताए....3 जियें कब तलक अह जग वालों, ऐसे अधपेटे रहकर, हाय गरीबी कब तक मेरा, खून पिएगी हँस-हँसकर, दूध नहीं निकला करता है, अह जग सूखे स्तन से, कब तक शिशु पोषण पाएगा, माँ के इस पिंजर तन से, रोज रात को माँ से लिपटा, बच्चा भूखा सोता क्यों है? कोई आकर आज बताए....4 हम ही पंचर लगा रहे हैं, हम ही रिक्शा खींच रहे, महानगर के चौराहों पर, भीख माँगते दीख रहे, हमको पाओगे ढाबों पर, हम ही मिलें दुकानों में, कूड़ा बीनत मिल जाएंगे, तुमको कूड़ेदानों में, प्रशासन को सिर्फ हमेशा, आँख मूँदना आता क्यों है? कोई आकर आज बताए....5 बीड़ी के इन कारखानों में, तकलीफ़ों को झेल रहा, आतिशबाजी के संग बचपन, बारूदों से खेल रहा, कलम छीन कर इन हाथों में, क्यों बंदूकें थमा रहे? मेरे नन्हें नाजुक तनको, क्यों आतंकी बना रहे, आज आचरण इंसानों का, पशुता से भी नीचा क्यों है ? कोई आकर आज बताए....6 रणवीर सिंह 'अनुपम', मैनपुरी (उप्र) *****
98 आज के हालात में सिर्फ
छीन लो हक अपना, लोगो जो तुम्हारा है॥
मेरी ये आवाज़ तो, क्रांति का नगारा है॥
मेरा दुर्भाग देखो, निकला वो नकारा है॥
कैसी ये तरक्की है, कैसा ये नारा है॥
मेरे ही बगल में तो, देखो घर तुम्हारा है॥
दरिया जब उफनेगा, बचता न किनारा है॥
ऐसा कभी होता है नहीं, भ्रम ये तुम्हारा है॥
दोनों छोड़ जाएंगे, इनका क्या सहारा है॥
जिसके लिए पर्दे पर, जिस्म ये उघारा है॥
मेरी तो नशीयत है, फैसला तुम्हारा है॥
फिर भी हर मुश्किल में, आपने पुकारा है॥
जिसके लिए पुरुषों ने, पुरुषों को मारा है॥
रोज़ तीस रुपयों में, होता क्या गुजारा है॥
बातें ये भड़काऊ, इसी का इशारा है॥
कुछ हाथ उनका है, और कुछ हमारा है॥
आपकी बातों में, जंग का इशारा है॥
आपका रचाया हुआ, खेल ये सारा है॥
आज तो बुलंदी पर, आपका सितारा है॥
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97 देगा डुबा गुरूर और ये जाम आपको
छोड़ेगा करके एक दिन, नाकाम आपको॥
फिर भी न रास आ रही, ये शाम आपको॥
ये ही करेंगे एक दिन, बदनाम आपको॥
शोभा नहीं ये देता, इल्ज़ाम आपको॥
क्यों इस कदर ये भा रहा, कोहराम आपको॥
मिलते हैं झूठे किसलिए, पैगाम आपको॥
करना विरोध ठीक न, खुले आम आपको॥
मेरी फिलोसफ़ी से, क्या काम आपको॥
कुछ तो मिलेगा किचन में, आराम आपको॥
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96 बनकर माँ, टीवी पे कहती
ताकि तेरा ध्यान पर्चे के सवालों पर रहे,
एक प्राकृतिक क्रिया को, यूं दिखाया जा रहा,
नेपकिन का नाम ही, उसके ख्यालों पर रहे।।
ध्यान माहवारी से हटकर, गोल करने पर रहे,
ला रही खेलों में मेडल, हिन्द की जो बेटियाँ,
नैपकिन के नाम पर, अपमान उनका कर रहे।।
नैपकिन कैसे लगाते, यह सिखाया जायेगा,
और इसके फायदों का जिक्र करने के लिए,
नारियों को मंच पर, नंगा दिखाया जायेगा।।
नारियाँ खुद नारियों की, आज इज्जत हर रहीं,
किस तरह उनको हितैषी, नारियों का मान लूँ,
बेटियों की माहवारी, पर जो धंधा कर रहीं।।
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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95 हकीकत देखनी है तो
94 जलाकर मेरी बस्ती को
हमें दंगों में झुलसाकर, अमन का गीत गाते हो,
तुम्हें मतलब न हिन्दू से, न मतलब है मुसलमां से,
धर्म का नाम लेकर के, यहाँ झगड़े कराते हो।।
हमारी फूटी किस्मत पर, मुक़द्दर आजमाते हो
गरीबी, भुखमरी तुमने, किताबों में पढ़ी हरदम,
उन्हीं को सुनकर, पढ़कर के, हमें किस्से सुनाते हो।।
बनाते आ रहे उल्लू, अभी भी तुम बनाते हो,
मरें हम भूख से या फिर, गले में डाल कर फंदा,
हमारी लाश को कौओं सा, तुम मिल-बाँट खाते हो।।
मगर अफ़सोस है इतना, हमें तुम भूल जाते हो,
हमारी मौत की चर्चा से, तुमको वास्ता इतना,
उसी चर्चा की चर्चा कर, अजी चर्चा में आते हो।।
जवानी में बुढ़ापा क्या, धँसी आँखों को क्या जानो,
मेरी फूटी कठौती से, तबे से, क्या तुम्हें मतलब,
रखी चूल्हे पे खाली इस, पतीली को क्या जानो।।
अमीरों को, दलालों को, जमीने चाहिए मेरी,
हमें छत भी मयस्सर न, करा पायीं हैं सरकारें,
अरबपतियों को देने को, जमीने चाहिए मेरी।।
तुम्हें अच्छों से क्या मतलब, तुम्हें तो खोट से मतलब,
तुम्हें कुछ फर्क न पड़ता, अजी ये जानते हम भी,
तुम्हें मतलब कहाँ हमसे, तुम्हें तो वोट से मतलब।।
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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93 है इधर-उधर की बात नहीं
बातों की बात बताते हैं,
बातों की महिमा है अनंत,
बातों की गाथा गाते हैं॥
बातों में काबा-कैलाशी,
हर चीज जगत में मरणशील,
है सिर्फ बात ही अविनाशी॥
बातों से बातें बन जाती,
स्वार्थ की बातों में पड़कर,
बातों, बातों में तन जाती॥
बातें संबंध जोड़तीं हैं,
बातें अपनों से दूर करें,
बातें संबंध तोड़तीं हैं॥
बातें ही आग बुझातीं हैं,
बातें ही मन मैला करतीं,
बातें ही दाग छुड़ातीं हैं॥
बातों से नेता बनता है,
बातों से भीड़ उखड़ती है,
बातों के पीछे जनता है॥
बातों से कायम अनुशासन,
बातें ही हैं आधारशिला,
बातों से टिकता सिंहासन॥
बातों से जान निकल जाती,
बातें पथ से भटका देतीं,
बात ही पथ पर ले आती॥
बातों से इंसा गिरता है,
जिसकी बातों की पूछ नहीं,
वो मारा-मारा फिरता है॥
बातें सह जाना बड़ी बात,
बातें न खलना बड़ी बात,
बातों पर चलना बड़ी बात॥
बातों में देखी लाचारी,
बातें कर देती छिन्न-भिन्न,
सीने पर ज्यों चलती आरी॥
बातें हाथों से होतीं हैं,
बातें बिन बात किए होतीं,
बातें आँखों से होतीं हैं॥
बातों पर तुम मिटना सीखो,
कम बात करो कहकर लेकिन,
बातों पर तुम टिकना सीखो॥
जिसने बातें करना सीखा,
उसका ही जीना, जीना है,
बातों पर जो मरना सीखा॥
बातों में बसते साधु-संत,
बातों से सृष्टि संचलित है,
बातों का कोई नहीं अंत॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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92 ज़िंदगी महलों में जीना
इस जमीं से उस फलक तक, हर जगह है ज़िंदगी ।।
क्या सिखाया धर्म ने फिर, क्या सिखी है ज़िंदगी ।।
काहे का इंसान मैं हूँ, काहे की है ज़िंदगी ।।
वासनामय चिपचिपाती सी लगे वो ज़िंदगी ।।
जानवर सी सोच तेरी, जानवर सी ज़िंदगी ।।
इनसे रहना तू संभलकर, दोमुँही है ज़िंदगी ।।
ऐसी औलादों को है, धिक्कार ऐसी ज़िंदगी।।
जिंदगी से आज बच-बच, चल रही है ज़िंदगी ।।
काहे का मैं रहनुमा फिर, काहे की ये ज़िंदगी ।।
जब चलो तो मुश्किलों से, है भरी ये ज़िंदगी ।।
सच कहूँ ये ज़िंदगी, 'अनुपम' नहीं है ज़िंदगी।।
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91 सभी लोग जैसे जमीं के वहीं थे
कोई मौज में, कोई चुपचाप बैठी, किसी को किसी पर हँसी आ रही थी,
मोटी या काली या हो दागवाली, मुख से गुलाबी चमक आ रही थी,
पैंतीस, पचपन या हो साठवाली, दुल्हन सी दिखती नज़र आ रही थी॥1
कोई पीती कॉफी, कोई दोस्तों संग, लिमका, गटागट पिये जा रही थी,
कोई चिप्स की, कोई शाही कबाबों की, दो-दो प्लेटें लिए जा रही थी,
कोई सब्र से बैठी बच्चों को अपने, खुशी से नशीहत दिए जा रही थी॥2
नज़र हो ब्याही, नज़र बिन ब्याही, हमें सिर्फ क्वारी नज़र आ रही थी,
नज़र अपने आशिक की नज़रों से मिलती, नज़र फिर शर्म से झुकी जा रही थी,
खुदा जाने या फिर नजरवाला जाने, कि किसकी नज़र अब कहाँ जा रही थी॥3
गालों पे सुर्खी और होंठों पे लाली, नज़र न लगे रूप कैसा सुहाना,
नाजुक उँगलियों से लहंगे को पकड़े, अहिस्ते-अहिस्ते से मंडप को जाना,
चले संग भाभी, चले संग सखियाँ, गिन-गिन के कदमों को आगे बढ़ाना॥4
सजे पाँव को धीरे-धीरे उठाना, ज्यों मेंहदी अभी भी छुटाना हो बाकी,
सूरत जो मन में मचाती है हलचल, उधर को कदम फिर बढ़ाना है बाकी,
नज़र थक गई मिल न पाई नज़र से, उसी से नज़र को मिलाना है बाकी॥5
नज़र फिर भी प्यासी की प्यासी रही तो, धीरे से गर्दन सुराही घुमाना,
नज़र पहुँची जब रूपसागर के सन्मुख, जी भर के अतृप्त प्यासें बुझाना
नज़र से नज़र कुछ मिली इस तरह से, नज़र के सिवा फिर नज़र कुछ न आना॥6
हुए मौन तन-मन, लगे मूर्ति सी, मौसम में ज्यों मोहनी छा रही थी,
सजे सुर्ख होठों की वो कपकापहट, लगे ज्यों काली फूटने जा रही थी,
स्वर थरथराए, कोई गायिका ज्यों, जीवन की पहली ग़ज़ल गा रही थी॥7
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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90 रक्तबीज ने जन्म लिया है
आते ही बारूद बिछा दी, पावन पूजित माटी में,
इसने बस विश्वास किया है, आतंकी परिपाटी में,
शांति छोड़कर इसे भरोसा, है अब पत्थर बाजी में॥
काश्मीर के अमन-चैन में, पाकिस्तानी हाथ दिखे,
आतंकी का कहर न दिखता, न ही उसकी घात दिखे,
बात-बात में इसके मुँह से, सिर्फ दोमुँही बात दिखे॥
आँख बंद कर करे फैसला, अहंकार में झूल रहा,
अक्सर इसका कथन देश में, बनकर चुभता शूल रहा,
आतंकी की करे हिमायत, भारत माँ को भूल रहा॥
चार-चार आतंकी छोड़े, उसकी जान बचाने को,
वो सारा कुछ भूल-भाल के, निकला हमें पढ़ाने को,
लगा छोड़ने देश के दुश्मन, फिर कोहराम मचाने को॥
और अमर कर देता उसको, करते हम अभिमान सभी,
लेकिन ये तो वो कर पाते, जिनमें हो स्वाभिमान कभी,
कायर जीकर भी न पाता, सूरों का सम्मान कभी॥
देशद्रोहियों का हितकारी और उनका शुभचिन्तक है,
यह तो यारो आस्तीन के, साँपों का संरक्षक है,
विघटनकारी नीति का पोषण, घातक है, विध्वंशक है॥
बात-बात पर भारत माँ को, ये गाली देकर जाते,
और इधर इन नासमझों का, हम सहयोग किये जाते,
संविधान और संप्रभुता से, कोसों दूर हुए जाते॥
काहे को लाचारी इतनी, काहे को ख़ामोशी है,
याद सदा इतना रखना कि, निर्बल होता दोषी है,
उसको वो भी आँख दिखाता, जो कमजोर पडोसी॥
हद से ज्यादा सहनशीलता, कहलाती जग में कायर,
उसको कब सम्मान मिला है, जो रहता नीचे दबकर,
दुनियाँ नमन तभी करती जब, बैठो छाती पर चढ़कर॥
इनका नाम मिटाना होगा, भारत माँ की माटी से,
आतंकी गर हमें भगाने, काश्मीर की घाटी से,
तो फिर इन्हें कुचलना होगा, गोली, डंडा, लाठी से॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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88 "उनसे सीखें तो हम क्या सीखें"
उनसे सीखें तो हम क्या सीखें,
जिनको जीने का है सऊर नहीं॥
उनको उस्ताद हम बनाए क्यों,
खास जिनमें है कुछ हुज़ूर नहीं॥
हमको वो रोशनी क्या देंगे,
जिनके चेहरे पे खुद ही नूर नहीं॥
हुश्न अच्छा है नाज़ अच्छा है,
इतना अच्छा है पर गुरूर नहीं॥
रंग तुझमें है, रूप तुझमें है,
पर तूँ औरत है कोई हूर नहीं॥
जितना दुनियाँ ने मान रक्खा है,
मेरा इतना तो है क़ुसूर नहीं॥
उनको वर्षों लगे हैं आने में,
मेरा घर था तो इतना दूर नहीं॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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87 "इस तरह से न चलो"
सतरा-अठरा की उमर में, इस तरह से न चलो।
दौर ये फिसलन भरा है, इस तरह से न चलो।
आग के दरिया में न घुस, सोच ले अंजाम को,
आग आखिर आग होती, इस तरह से न चलो।।
मत उलझ भंवरों से ऐसे, तू अभी कच्ची कली,
बात मानो इस उमर में, इस तरह से न चलो।।
फूल सी निखरी हुई, इस देह पर काबू रखो,
इसको बेकाबू बनाकर, इस तरह से न चलो।।
ये तेरी अल्हड़ जवानी, ले रही अंगड़ाइयाँ,
राह में अंगड़ाइयाँ ले, इस तरह से न चलो।।
ठीक है फागुन महीने, का नशा तुझ पर चढ़ा,
पर नशे में लड़खड़ाकर, इस तरह से न चलो।।
अनछुए यौवन पे तेरे, है नज़र सबकी गढ़ी,
तंग गलियों से गुजरकर, इस तरह से न चलो।।
दूधिया तन ले प्रिये, मत झील के भीतर घुसो,
आग दरिया में लगाने, इस तरह से न चलो।।
जब जमीं पर तू चले तो, साँस थम जाती मेरी,
अह! मेरी गजगामिनी तुम, इस तरह से न चलो।।
उर्वशी, रंभा, अरे ओ! मेनका, ओ! मोहनी,
तुम मुझे पथ-भ्रष्ट करने, इस तरह से न चलो।।
इस तरह यों सज-सँवर के, काम की देवी रती,
प्राण हरने मुझ पुरुष के, इस तरह से न चलो।।
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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86 रोशन जहां न होता, होती न नारियाँ
दुनियाँ चमन न होती, होती न नारियाँ,
वीरान घर ये लगते, होतीं न नारियाँ,
श्मशान दुनियाँ होती, होती न नारियाँ,
रब ने की अकलमंदी, भेजी जो नारियाँ॥
कुदरत ने चलना सीखा, चालों को देखकर,
फूलों ने खिलना सीखा, अधरों को देखकर,
बदली में आयी मस्ती, ज़ुल्फों को देखकर,
ये कौन सब सिखाता, होती न नारियाँ॥
मजमा लगे वहाँ, निकले ये जिस डगर,
मैखाना झूम जाए, आँखों में वो असर,
दुनियाँ दीवानी कर लें, चाहें जो ये अगर,
ये कौन सब कराता, होती न नारियाँ॥
माडलिंग का इन बिन, होता न गुजारा,
मदिरा से नहीं बार में, इनसे है बहारां,
कैबरे का गर्त में, छुप जाता सितारा,
जाते कहाँ पे ये सब, होतीं न नारियाँ॥
महावीर, बुद्ध, ईसा, बलराम नहीं होते,
रैदास, तुलसी, नानक, उपजे इन्हीं से हैं,
माँ, बहन, बेटी, प्रेमिका, जन्मीं इन्हीं से हैं,
बीबी कहाँ से मिलतीं, होतीं न नारियाँ॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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Saturday, May 16, 2015
85 तुम्हारी चाह ने दिलबर
मुझे मजबूर कर डाला, मुझे कंगाल कर डाला।॥
तेरी आँखों के पानी ने, मुझे लाचार कर डाला॥
परेशानी के तोहफों से है, मालामाल कर डाला॥
जरूरत जब पड़ी उनकी, तो बस इनकार कर डाला॥
तो तुमने मुस्कराकर के, मुझे चुपचाप कर डाला॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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84. दिल बड़ा शौकीन होता है
84. बड़ा शौकीन होता है
सभी नर-नारियों का दिल, बड़ा शौकीन होता है।
जिगर को चीर डालेंगी, अरे बच मुस्कराहट से,
तुझे लाचार कर देगीं, अरे बच खिलखिलाहट से,
अरे ये क़त्ल ना करतीं, कभी तलवार खंजर से,
हमेशा चाक दिल करतीं, अरे पैनी नज़र से ये,
छुपाकर हर तमन्ना को, अदब से चुप रहा करतीं,
नहीं तो कुवांरियों का दिल बड़ा शौकीन होता है।।
पटाया, रोम, सिंगापुर, उसे घूमन की चाहत है,
उसे लन्दन, उसे पेरिस, उसे इटली की चाहत है,
जिसे वो प्यार करती है, वो कंगाली में जीता है।
उसे मालूम है आशिक, फटेहाली में जीता है।
तभी तो वो ख्वाहिश को, कभी जाहिर नहीं करती।
नहीं तो प्रेमियों का दिल, बड़ा शौकीन होता है।।
हमेशा ख्वाब देखा था, हो बीवी हंसनी जैसी, तमन्ना गुलबदन की थी, दिखे जो पद्मिनी जैसी,
उसे चाहत तो उसकी थी, हो जिसका फूल सा मुखड़ा,
मिली काली-कलूटी है, मिला नहिं चाँद का टुकड़ा,
अरे इस भाग्य के आगे, चला है जोर कब किसका।
नहीं तो सौहरों का दिल, बड़ा शौकीन होता है।।
कभी ले जा के होटल में, हजारों खर्च करवाती, कभी जा पार्लर में ये, बदन अपना चमकवाती, चिपक कर जोंक की माफिक, बुरा ये हाल कर देतीं,
बड़ी मँहगी है फरमाइश, अजी कंगाल कर देतीं, जहाँ तक बच सको इनसे, वहाँ तक तुम बचे रहिये,
नहीं तो सालियों का दिल, बड़ा शौकीन होता है।।
कभी बिजली, कभी पानी, कभी झाड़ू, कभी भाभी,
कभी छाता, कभी पेपर, कभी माचिस, कभी चाबी,
बहानों को बनाकर के, जो घर में रोज आता है।
सुबह और शाम को आकर, जो फेरे नित लगाता है।
नवेली फूल सी बीवी को, इससे तू बचाकर रख,
नहीं तो मनचलों का दिल, बड़ा शौकीन होता है।।
नए जूते, नए कपड़ों को, उसका दिल किया करता,
कभी पिकनिक पे जाने को, उसका मन किया करता,
नयी गुड़िया, खिलौनों की, उसे भी चाह होती है,
मगर मेरी जेब खाली की, उसे परवाह होती है,
गरीबी देख कर मेरी, वो मुझसे जिद नहीं करती,
नहीं तो बच्चियों का दिल, बड़ा शौकीन होता है।।
नये कंगन, नये झुमके, नयी नथनी, नयी साड़ी,
नया टीवी, नया ए.सी., नया बंगला, नयी गाड़ी।
उन्हें मालूम है ये सब, उन्हें हम दे नहीं सकते।
किसी तरह से इन ख्वाहिश को, पूरा कर नहीं सकते।
यही सब सोच करके वो, कोई ख्वाहिश नहीं करतीं।
नहीं तो बीबियों का दिल, बड़ा शौकीन होता है।।
वो साँसों को कहे खुशुबू, वो शब्दों को गजल कहता,
कहे आँखों को मयखाना, वो चहरे को कमल कहता,
भवों को वो कहे खंजर, वो जुल्फों को कहे बादल,
मुझे वो ताज कहता है, औ'र खुद को कह रहा पागल,
हमें कुछ भी बनाने का, हमें सिर पर बिठाने का,
अजी इन शायरों का दिल, बड़ा शौकीन होता है।।
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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83 "बेकार नहीं होता कोई"
सिर्फ स्कूल में, हुशियार नहीं होता कोई,
गिर के तरबूज पर, तलवार नहीं होता कोई॥
यहाँ हर एक अपने कर्मफल को भोगेगा,
जहां में इसका, हकदार नहीं होता कोई॥
किसी को देख के, ख़्वाहिश है जगी जीने की,
हादसा ऐसा हर वार नहीं होता कोई॥
देह खुद बिकने के सौ ढूँढ तरीके लेती,
जिश्म जिसमें न मिले, बाज़ार नहीं होता कोई॥
हमने नैतिकता का पैमाना ऐसा खींचा है,
आज व्यभिचार भी, व्यभिचार नहीं होता कोई॥
यौन सुख, गाड़ियां, होटल के मजे हैं जिसमें,
इससे आसां, रूज़गार नहीं होता कोई॥
दिलों की बात न, जिश्मों का सिर्फ रिश्ता है,
ऐसे संबंधों में एतवार नहीं होता कोई॥
लाख समझाने पर हाँ की, तो भला क्या की तुमने,
ऐसा इजहार भी इजहार नहीं होता कोई॥
शर्त रखकर के चाहा तो हमें क्या चाहा,
प्यार तो प्यार है व्यापार नहीं होता कोई॥
तेरे इक इश्क ने क्या हाल किया है मेरा,
जैसा लाचार हूँ, लाचार नहीं होता कोई॥
आखिरी वक्त पर मैयत पे मेरी आए हो,
ऐसा दीदार भी दीदार नहीं होता कोई॥
जंग लग जाना जड़ता की निशानी होता,
घिस के मिट जाना, बेकार नहीं होता कोई॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
*****
82 "एक बार घटना घटी"
एक बार घटना घटी, लिखता उसका हाल,
टोयलेट जाने के लिए, पहुँचा वेटिंग हॉल,
चाबी एस.एम. से मिली, क्योंकि थी पहिचान,
खोला वेटिंग रूम फिर, काम हुआ आसान॥
ताला खुलते आ गये, तभी एक साहेबान,
प्रेशर ज्यादा है बढ़ा, उनने किया ब्यान,
झट से थैला पटक, पुरुष टोयलेट में घुस गए,
मेहनत गई व्यर्थ, यार हम ऐसे फँस गए॥
मन में करूँ विचार, कहाँ ऐसे में जाएं,
सूझी इक तरकीब, जनाने में घुस जाएं,
इतना सोच घुस गए, कुंडी कर ली बंद,
झटपट खोली पैंट, और बैठ गए सानंद॥
प्रेशर जब कम हुआ, और कुछ राहत पाई,
तब तक नॉकिंग की आवाज कान में आई,
जल्दी करिए बहिन, अर्ज उन ने फरमाई,
उनको क्या मालूम, बन्द अन्दर है भाई?
काम हुआ ज्यों खत्म, और मैं बाहर आया,
मैडम, मिस्टर, बैग, नज़र कुछ भी न आया,
मन किया विचार फिसड्डी, यहाँ भी बन गए,
लगता दोनों लोग यहाँ से, पहले कढ़ गए॥
सोच ताला लगा, पास एस.एम. के आया,
चाबी करी सुपर्द, और मन में हर्षाया,
धन्यवाद फिर दिया, लिया ज्यों मैंने झोला,
पी.पी. अंदर घुसा, और फिर ऐसे बोला॥
साहब, मैडम बंद, और हैं वो चिल्लाती,
हैं गुस्से में लाल, और हैं वो घबरातीं,
ताला खोला गया, और मिस बाहर आईं,
किसने किया था बंद? ज़ोर से वो चिल्लाईं॥
ताला मैनें दिया, मगर तुम कहाँ थी अंदर?
झिझक के उनने कहा, पुरुष टोयलेट के अंदर,
इसीलिए तो अक्ल, खा गई मेरी धोखा,
कर दिया ताला बंद, नहीं मैंने कुछ सोचा॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
*****
एस.एम. – स्टेशन मास्टर, कढ़ गए – निकल गए, पी.पी. – प्लेटफ़ार्म पोर्टर
81 अब कुकुरमुत्तों की तरह
हर मुहल्ले और गली में, खुल रहे हैं नर्सिंग होम॥
आज दौलत की हबस में, जल रहे हैं नर्सिंग होम॥
बेचकर इंसानियत को, सो रहे हैं नर्सिंग होम॥
पार निर्दयता की सीमा, हो रहे हैं नर्सिंग होम॥
इस नई पीढ़ी में काँटें, बो रहे हैं नर्सिंग होम॥
चोरियत में अब तरक्की, कर रहे हैं नर्सिंग होम॥
फर्ज की गम्भीरताऐं, खों रहे हैं नर्सिंग होम॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
*****
80 शिक्षा के दिन अब गुजरते पार्क में
79 "इस वतन का आदमी'
किस तरह लाचार है, इस वतन का आदमी,
सिर्फ इक औज़ार है, इस वतन का आदमी॥
खेत हों या फैक्ट्री, खून से जो सींचता,
वो ही पानी को प्यासा, इस वतन का आदमी॥
चूमती जिसकी बदौलत, ये इमारत गगन को,
नींव नीचे दब रहा है, इस वतन का आदमी॥
पत्थरों को काटकर, सड़कें बनाता जो रहा,
उन पर कुचला जा रहा है, इस वतन का आदमी॥
प्याज-रोटी खाकर पानी, पी लिया करता था जो,
मार मंहगाई का खाता, फिर रहा है आदमी॥
गाँव से आया शहर को, पेट पापी के लिए,
बद से बदतर हो गया है, इस शहर का आदमी॥
सभ्यता का होटलों में, हो रहा है कैबरे,
आबरू चिथड़ों ढकता, फिर रहा है आदमी॥
चार चोरों में से चुनना, पड़ रहा इक चोर को,
किस व्यवस्था में फँसा है, इस वतन का आदमी॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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78 "खुद ही को कोसता हूँ"
अजी कर शादी उनसे, बुलावा बर्बादी का,
खुदी दे डाला मैंने, खुद ही को कोसता हूँ॥
न ये पाबन्दियाँ थीं, कुँवारा जिन दिनों था,
कई दिलकश हसीनों का, सहारा उन दिनों था,
मजे का दौर था वो, खुद ही को कोसता हूँ॥
नाम कालेज का लेकर, सिनेमा हाल में होता,
जहाँ अब डर लगा करता, वहाँ हर-हाल में होता,
गई वो बहादुरी खो, खुद ही को कोसता हूँ॥
न ही दफ्तर का झंझट था, न चिंता बॉस की कोई,
सिवा बस एक रिश्ते के, न रिश्ता खास था कोई,
वो रिश्ता खो गया अब, खुद ही को कोसता हूँ॥
न बीबी की लिपिस्टिक थी, न झुमके थे, न बाले थे,
किसी का चाँद सा मुख था, नज़र के मस्त प्याले थे,
अब तो हर ओर हैं आँसू, खुद ही को कोसता हूँ॥
वो दुनियाँ कितनी अच्छी थी, न चौका था, न चूल्हा था,
कई कमसिन हसीनों के, दिलों का मैं तो दूल्हा था,
कहाँ ये आ गए हम, खुद ही को कोसता हूँ॥
न साले खटमलों से थे, न जोंकें सालियों सी थीं,
न ही बीबी की झिड़कन थी, न बातें गलियों सी थीं,
कहाँ ये फँस गए हम, खुद ही को कोसता हूँ॥
न बच्चे थे, न बच्चों की, हुआ करती थी ये फ़ीसें,
लाख कोशिश भी करने पर, निकल आती हैं, ये खींसें,
बजट बनता बनाए न, खुद ही को कोसता हूँ॥
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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77 याद हैं पगडंडियाँ (गीत)
पगडंडियां
गीतिका छंद (14/12)
2122 2122, 2122 212
याद हैं पगडंडियां वे, काँटा चुभा जातीं थी' जो,
और खेतों से गुजरकर, गाँव तक जातीं थी' जो॥
धूप में कुम्लाहे चेहरे, और सूखे खेत वो,
लूह के लगते थपेड़े, और तपती रेत वो,
बादलों की छाँव खातिर, ताकना वो गगन को,
नहिं भुलाये भूल पाता, बरसती उस अग्नि को,
नंगे तलवों में जला, छाले बना जाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
चिलचिलाती धूप वो, वो दुपहरी जेठ की,
नौकरों की दृष्टि नीची, अरु घुड़क वो सेठ की,
वो मजूरों का पसीना, हेंकड़ी वो मेट की,
सूर्य की अगनी से प्रबल, अग्नि भूखे पेट की,
मार कंगाली की थी, बुझदिल बना जाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
नाव कागज़ की चलाना, केंचुओं का रेंगना,
देहरी तक पानी का भरना, तस्तरी से फेंकना,
टपकते छप्पर पे चढ़के, सांस का वो मूंदना,
याद है अब भी मुझे वो, छप्परों से कूदना,
सेंकना उन एड़ियों का, मोंच खा जातीं थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
पोखरों में वकदलों का, मौन होके ताकना,
पर भिगोए पक्षियों का, पेड़ से वो झाँकना,
कूकरों का वो घेर लेना, खरहाओं के ठौर को,
देखते थे फिर वही, जीवन-मरण की दौड़ को,
ज़िंदगी और मौत में, संघर्ष दिखलाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
नीम के पेड़ों के नीचे, वो निबौरी बीनना,
तो कहीं टूटी पतंगें, लूटना और छीनना,
पटि्टयों का वो लड़ाना, वो बुदक्के फोड़ना,
शाम को दीपक के आगे, भिन्न का वो जोड़ना,
अब भी चिड़ है उस हवा से, लौ बुझा जाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
वो जुते खेतों में जाकर, आलुओं का बीनना,
टोंटकर खेतों से सरसों, और उसका मींजना,
बेचकर पैसों को गिनना, और खुश हो झूमना,
और गिन-गिन खर्च करना, और मेला घूमना,
थी क्षणिक पर, क्या खुशी थी, गम भुला जाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
पूस की ठंडी हवाओं, की चुभन वो शूल सी,
वो बखारी का बिछौना, वो रजाई झूल की,
पैबंदों की वो कमीजें, वो सहारा आग का,
वो शिकस्तें मेहनतों की, जीतना दुर्भाग्य का,
आस में प्रभात के, हर रात कट जाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
अधफटी धोती में नानी का, शिथिल तन काँपना,
कोनें की उस पुआल में, रह-रह के उसका खाँसना,
फूलना फिर साँस का, नाम हरि का जापना,
पोर के संग आँख लगना, पोर के संग जागना,
कैसी निष्ठुर ठंड थी, रूह कँपा जाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
बच्चे का आँचल छुपके, सूखे स्तन चूसना,
रोते-रोते लोट जाना, और माँ से रूठना,
लौटकर फिर नीम नीचे, माँ के मुख को ताकना,
शून्यमय उस ज़िंदगी का, शून्य में वो झाँकना,
और वो गंभीर चितवन, मौन बरसाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
वो मके की एक रोटी, वो कटोरा साग का,
देखते ही वो भड़कना, पेट की उस आग का,
अधबुझी उस भूख को ले, फिर मदरसा भागना,
चाट खाते साथियों को, दूर से वो ताकना,
लार थी या थी गरीबी, मुँह भिगा जाती थी जो॥
याद हैं पगडंडियां...
मास्टर का साँट से, नंगा मेरा तन पीटना,
और कलमों को पकड़कर, जोर से वो खींचना,
गाल पर खाके तमाचा, मेरा आँखें मींचना,
दर्द से मेरा कराहना, और फिर वो चीखना,
मार वो हर बार की, मजबूत कर जाती थी जो॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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गीत
याद हैं पगडंडियाँ, काँटे चुभा जातीं थी' जो।
और खेतों' से गुजरकर गाँव तक आती थी' जो॥
धूप में कुम्लाहे चेहरे, और सूखे खेत वो,
लूह के लगते थपेड़े, और तपती रेत वो,
बादलों की छाँव खातिर, ताकना वो गगन को,
नहिं भुलाये भूल पाता, बरसती उस अग्नि को,
नंगे' तलवों में कई, छाले बना जाती थी' जो॥
याद पगडंडी ...
पूस की ठंडी हवाओं, की चुभन वो शूल सी,
वो बखारी का बिछौना, वो रजाई झूल की,
पैबदों की वो कमीजें, वो सहारा आग का,
मेहनतों की वो शिकस्तें, जीतना दुर्भाग का,
आस में प्रभात के, हर रात कट जाती थी' जो॥
याद पगडंडी ...
वो मके की एक रोटी, वो कटोरा साग का,
देखते ही वो भड़कना, पेट की उस आग का,
अधबुझी उस भूख को ले, फिर मदरसा भागना,
चाट खाते साथियों को, दूर से वो ताकना,
लार थी या थी गरीबी, मुँह भिगा जाती थी' जो॥
याद पगडंडी ...
मास्टर का साँट से, नंगा मेरा तन पीटना,
और कलमों को पकड़कर, जोर से वो खींचना,
गाल पर खाकर तमाचा, मेरा आँखें मींचना,
दर्द से मेरा कराहना, और फिर वो चीखना,
मार वो हर बार की, मजबूत कर जाती थी' जो॥
याद पगडंडी ...
रणवीर सिंह (अनुपम)
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76 दुनियाँ क्यों शोर मचाती है?
76. दुनिया क्यों शोर मचाती है (नवगीत)
दुनिया क्यों शोर मचाती है?
मेरे वेश्यालय जाने पर।
काहे उत्पात उठाती है,
मेरे वेश्यालय जाने पर।
सामाजिक कुटिल व्यवस्था को,
मैं भी जानूं, तू भी जाने,
फिर इतना ढोंग दिखावा क्यों?
काहे यूँ बनते अनजाने।
अपनी इस वर्णअंधता को,
क्यों दूर नहीं हो कर पाते,
जग नहीं घूमता, खुद घूमो,
इस सच को काहे, झुठलाते।
ज्ञानी ध्यानी होकर के भी,
क्यों मन है नहीं ठिकाने पर।।
महलों के भीतर ये कुकर्म,
ये भरा उदर ये ठाट-वाट,
नित नए जिस्म को चूस रहे,
ये नैतिकता, ये राजपाट।
जाने पर जान निकलती क्यों,
आ जाने पर क्यों परेशान,
क्यों इतनी होती उठा-पटक,
क्यों मचता इतना घमासान।
क्यों इतना हाहाकार मचे,
क्यों रहता रोज निशाने पर।।
इतना क्यों शोर-शराबा है,
इस वेश्यालय के मुद्दे पर,
क्योंकर हड़तालें, प्रदर्शन,
इस वेश्यालय के मुद्दे पर।
यह भरा पेट क्या जानेगा,
क्या चीज भूख, क्या जठरानल,
उपवास बहुत आसान मगर,
फाँके करना, होता मुश्किल।
असली मुद्दे को छोड़छाड़,
आ जाते गाल बजाने पर।।
पुरुषों की कामपिपासा ही,
नारी को यहाँ पर लाती है,
तुम उसे बदचलन कहते हो,
जो तुम्हरी भूख मिटाती है।
जिसका परिणाम लोकहित हो,
उससे नहीं श्रेष्ठ कर्म जग में,
मानव, मानवता जो जी ले,
इससे नहीं श्रेष्ठ धर्म जग में।
पर मुख पर बीस मुखौटे हैं,
आती है लाज बताने पर।।
हो चुका ज्ञान अब डर कैसा,
मुझको कामी कहलाने में,
कोई फर्क नहीं पड़ता मुझको,
वेश्यागामी कहलाने में,
क्या? कौन यहाँ पर कहता है?
इस बात की क्यों मैं फिक्र करूँ,
जो सच सुनने से डरते हैं,
उन डरपोकों से क्या डरूँ।
मुझको कुछ भी अफसोस नहीं,
अंतर की व्यथा सुनाने पर।
कोई वाट निहार रहा मेरी,
कोई आस लगाए बैठा है,
मुझ जैसे ग्राहक के दम पर,
कोई हाट सजाए बैठा है।
कोठे की पीड़ा-आर्तनाद,
किसने जानी चलते-चलते,
किसको मालूम बिके जब तन,
तब ही भूखे बच्चे पलते।
कुछ लाभ नहीं मुँह फेरन में,
कुछ लाभ न इसे छुपाने पर।।
मेरे अंतर में झाँकेगा,
वो ही मुझको पहिचान सके,
मैं खुली हुई हूँ इक किताब,
जो पढ़ेगा वो ही जान सके।
सब खेल सोच का ही तो है,
जो सोचोगे, वो देखोगे,
गर देह देखना सीख लिया,
तो रूह कहाँ से देखोगे।
बेवशी, घुटन, तडफ़न देखी,
मैंने हर एक मुहाने पर।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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