Monday, April 27, 2015

12 ज़िन्दगी महलों में जीना

ज़िंदगी महलों में जीना, ही नहीं है जिंदगी,
इस जमीं से आसमां तक, हर जगह है जिंदगी।।
 
आदमी जब आदमी से, प्यार ही न कर सके,
क्या सिखाया धर्म ने फिर, क्या सिखी है जिंदगी।।
 
गर पड़ोसी की जरूरत, में न आऊँ काम तो,
काहे का इंसान मैं हूँ, काहे की है ज़िन्दगी।।
 
अपने साथी से वफ़ादारी निभाता जो नहीं,
वासना, दुर्गन्ध, कीचड़, सी लगे वो जिंदगी।।
 
तू समझता नारियाँ इक, भोगने की चीज हैं,
जानवर सी सोच तेरी, जानवर सी जिंदगी।।
 
लब्ज और करतूत में, कोसों का जिनके फासला,
इनसे रहना तू सँभलकर,  दोमुँही है जिंदगी।।
 
जो बुढ़ापे में सहारा, ना बने माँ-बाप का,
काहे की औलाद वो है, काहे की है जिंदगी।।
 
कौन सा घुन लग गया है, आज के आवाम में,
जिंदगी से आज बच-बच, चल रही है जिंदगी।।
 
बात मजलूमों, गरीबों, की अगर मैं ना करूँ,
काहे का मैं रहनुमा फिर, काहे की ये जिंदगी।।
 
सादगी के संग जीना, बात है आसां नहीं,
जब चलो तो मुश्किलों से, है भरी ये जिंदगी।।
 
जो जिऊँ खुद के ही लिए, निज पेट भरने के लिए,
सच कहूँ ये ज़िंदगी, 'अनुपम' नहीं है ज़िंदगी।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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