Monday, April 27, 2015

13 इक बुत को लगा के गले

इक बुत को लगा के गले, मैंने ने महसूस किया,
पत्थर के भीतर भी, इक चाह मचलती है॥
 
विधवा रातों की तड़फ, कोई कैसे जान सके,
हर शाम से सुबह तलक, करवट जो बदलती है॥
 
पुरुषों की काम अगिन, हर रोज बुझाती जो,
वो ही भीतर से क्यों, अंगार सी जलती है॥
 
हर गम को छुपा दिल में, औरत मुस्काती जो,
उसके अंर्तमन में, आरी सी चलती है॥
 
औरत का निकलना घर से, अब भी आसान नहीं,
नारी हर रोज नए, काँटों से गुजरती है॥
 
गलियों में, दपत्तर में, हर जगह गिध्द बैठे,
फिर भी हिम्मत से ये, आगे को बढ़ती है॥
 
नारी जीवन दाता, नारी सुखदायी है,
पुरुषों के जीवन में, निर्झर सी झरती है॥
 
फिर भी न जाने क्यों? सिर शर्म से झुक जाता,
नारी जब अधनंगी, पर्दे पे दिखती है॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
       *****

No comments:

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.