Wednesday, December 30, 2015

185. सभी कुछ सामने तेरे (मुक्तक)

मापनी-1222 1222 1222 1222

सभी कुछ सामने तेरे, बता अब क्या इरादा है।
अभी खुलकर मना कर दे, निभाना गर न वादा है।
फकत इस बात पर करना, किनारा ठीक होगा क्या?
सरल है जिंदगी मेरी, ये' जीवन सीधा' सादा है।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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184. आता है चुनाव जब (कवित्त)

आता है चुनाव जब, आते सभी गॉंव तब,
हम को ही वोट देना, शीश को नवात हैं।

गरज पडे तो आप, गधे को भी कहें बाप,
थूकें और चाट लेत, नेक न लजात हैं।

जिस दिन जीत जाँय, उस दिन ही दिखाँय,
बाकी पाँच साल नहीं, मुख को दिखात हैं।

अरबों कमाय लेत, कोठियाँ बनाय लेत,
बड़ी-बड़ी गाड़ियों में, अब आत जात हैं।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Sunday, December 27, 2015

183. तुम्हीं प्यार हो और कारण (मुक्तक)

साथियो! एक मुक्तक मेरी प्रेरणा, मेरी अर्धांगिनी के बारे में।
मापनी - 122  122  122  122

तुम्हीं प्यार हो और कारण तुम्हीं हो।
मे'रे दर्द, ग़म का, निवारण तुम्हीं हो।
तुम्हीं से शुरू गीत, तुम पर खतम हैं।
तुम्हीं छंद मेरे, उदाह'रण तुम्हीं हो।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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182. मुझे फूल बनने की हसरत नही है

मुझे फूल बनने, की' हसरत नही है।
बनू तो चुभन दूँ, ये' फितरत नही है।
गले में सजायो, या' डालो शवों पर।
किसी से हमें कोई नफरत नही है।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Friday, December 25, 2015

180. मुखौटों पर, मुखौटों को

मापनी-1222   1222   1222   1222

मुखौटों   पर  मुखौटों  को,  लगाना  कब   हमें  आया।
कहें   कहकर  पलट  जाएँ,   हुनर   हमने  कहाँ  पाया।
कभी इसकी कभी उसकी, तमन्ना कब  रही "अनुपम"।
जनम ले सिंह का, जूठन, अगर खाया तो' क्या खाया।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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179. हमारी ही बदौलत से

विधाता छंद पर आधारित

मापनी-1222  1222  1222  1222

हमारी ही  बदौलत  से, यहाँ  भर  पेट  खाते  हो।
मगर अफ़सोस है इतना, हमें  ही भूल  जाते  हो।
हमारी मौत  की  चर्चा, से' तुमको  वास्ता इतना।
उसी चर्चा की' चर्चा कर, सदा चर्चा में' आते हो॥

रणवीर सिंह (अनुपम)
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178. सभी से नजर यूँ

भुजंगप्रयात छंद (वाचिक भार) पर आधारित एक गीतिका।

सभी  से नजर  ये, मिलाने  की' कोशिश।
करो तुम न यूँ दिल, लगाने  की' कोशिश।

अभी  सिर्फ  हो  तुम, अठारह  बरस की,
नहीं  ठीक  यूँ  पास, आने  की' कोशिश।

जिधर  देखिये  मनचलों  का  है  मजमा,
करो इनसे खुद को, बचाने की' कोशिश।

न यूँ   रोज  सजधज, के'  दर्पण निहारो,
कहीं  कर  न बैठे, समाने  की' कोशिश।

जिसे  हुश्न  से  खुद,  खुदा  ने   सजाया,
उसे क्या करो अब, सजाने की' कोशिश।

ये कदली  सी' काया, लचीली  कमर ये,
इसे  मत  करो  यूँ, लचाने की' कोशिश।

नहीं  प्यार   छुपता,  किसी   के  छुपाये,
करो मत  इसे यूँ,  छुपाने  की' कोशिश।

समर्पण  किया  तो, भरोसा  भी' करिये,
नहीं  ठीक  ये  आजमाने  की' कोशिश।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी-122 122 122 122

सभी से नजर  ये, मिलाने की' कोशिश।
करो तुम न यूँ दिल, लगाने की' कोशिश।

नए दौर में ठीक होती नहीं है,
मुहब्बत को दिल में, जगाने की' कोशिश।

अभी सिर्फ हो तुम, अठारह बरस की,
नहीं ठीक यूँ पास, आने की' कोशिश।

करो मत अभी ये, मुनासिब नहीं है,
ज़माने को अपना, बनाने की' कोशिश।

जिधर देखिये मनचलों का है मजमा,
करो इनसे खुद को, बचाने की' कोशिश।

जिसे हुश्न से खुद, खुदा ने सँवारा,
उसे क्या करो अब, सजाने की' कोशिश।

न तुम रोज सजधज, ये' दर्पण निहारो,
कहीं कर न बैठे, समाने की' कोशिश।

तुम्हारी सहेली, जली जा रही है,
करो और मत तुम, जलाने जी' कोशिश।

वदन है कमल सा, गुलाबी अधर ये,
नशीले नयन ये, लजाने की' कोशिश।

हया की है' लाली, कपोलो पे' छाई,
उसी पर ये' जुल्फें, गिराने की' कोशिश।

तना वक्ष गर्वित, ये' दो दो उभारें,
सुराही सी' गर्दन, झुकाने की' कोशिश।

ये कदली सी' काया, लचीली कमर ये,
इसे मत करो यूँ, लचाने की' कोशिश।

शरद झील में तुम, नहाने न उतरो,
करो काहे हलचल, मचाने की' कोशिश।

नहीं प्यार छुपता, किसी के छुपाये,
करो मत इसे यूँ, छुपाने की' कोशिश।

जो' इजहार करते, हो' खुलकर के' करिये,
करो काहे' तुम, हिचकिचाने की' कोशिश।

समर्पण किया तो, भरोसा भी' करिये,
नहीं ठीक ये आजमाने की' कोशिश।

अगर आ गए हो, तो पहलू में बैठो,
करें आज हर गम, भुलाने की' कोशिश।

हमारे जिगर में, अँधेरा बहुत है,
करो तुम इसे जगमगाने की' कोशिश।

अभी ठीक से बैठ पाये नहीं हो,
अभी से करो यार, जाने की' कोशिश।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Thursday, December 24, 2015

177. नहीं ठीक यूँ दिल, दुखाने की बातें

मापनी-122 122 122 122

नहीं ठीक यूँ दिल, दुखाने की बातें।
चलो हम करें मन, मिलाने की बातें।

कदम दो बढ़े हम, कदम दो बढ़ो तुम,
करें फासले को,  मिटाने की बातें।

दिलों में जो गाँठों, को पाले हुए हैं,
उन्हीं को करें अब, गलाने की बातें।

किसी पे भरोसा, तो करना पड़ेगा,
अजी छोड़िये आजमाने की बातें।

अगर आ गए हो, तो पहलू में बैठो,
करें आज रिश्ते, निभाने की बातें।

अगर प्रेम करते, तो इकरार करिये,
अरे छोड़िये अब, लजाने की बातें।

अभी ठीक से बैठ पाये नहीं हो,
अभी से करो यार जाने की बातें।

सभी था हवाई, हवाई थे नारे,
वो अच्छे दिनों को दिखाने की बातें।

हवा दे रहे क्यों, हो चिनगारियों को
करो क्यों मेरा घर, जलाने की बातें।

चढ़ा आस्तीनें, वो मंचों पे करते,
खुलेआम दंगे, कराने की बातें।

समझनी ही होगी, सियासत हमें भी
करें क्यों हमें ये, लड़ाने की बातें।

सदा से बनाते, हमें आ रहे हो,
अजी कर रहे फिर, बनाने की बातें।

हमें सिर्फ नादां, न समझे जमाना,
समझता हूँ मैं भी, जमाने की बातें।

दिए जख्म जो भी, सियासत ने हमको,
करें उन पे मलहम, लगाने की बातें।

गमों से उबरने, की कोशिश करें फिर,
करें फिर से हम मुस्कराने की बातें।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Monday, December 21, 2015

176. बड़े हुशियार हैं दिल का

बड़े हुशियार हैं, दिल का शिकार करते हैं।
निशाना साधकर, छाती  पे' वार  करते हैं।
न ये  तलवार का, खंजर का सहारा  लेते।
नज़र के  तीर को, सीने के' पार  करते हैं।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Sunday, December 20, 2015

175. अजब था हाल दोनों का

विधाता/शुद्धगा छंद (14/14)

अजब था हाल दोनों का, अजब थे वो पुराने दिन।
अकेले रात भर जगना, तड़फ के वो सुहाने दिन।
जरा सी ज़िन्दगी उससे भी' कम है नौजवानी ये,
मनाने-रूठने में अब नहीं हमको गँवाने दिन।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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174. प्रेम में सयानी हुई (कवित्त)

प्रेम में सयानी हुई, कृष्ण की दीवानी हुई,
खुलेआम मीरा कहे, मोहन ही मीत है।

माना न समाज जब, छोड़ लोक लाज तब, 
साधुओं के बीच रह, गाये प्रेम गीत है।

नाचे गाये, दिन-रात, बाकूँ कछु न सुहात,
जग में निराली कैसी, प्रीत की ये रीत है।

कृष्ण-कृष्ण, बोल-बोल, कृष्ण में दिया है घोल,
जिस ओर देखो सिर्फ, प्रीत ही प्रीत  है।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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173 . सीज फायर का उलंघन

मापनी- 2122   2122   2 122   212

सीज फायर का उलंघन, इक चुनौती बन गया।
पाक को काबू में' रखना, इक चुनौती बन गया।।

इस लचीलेपन के चलते, बड़ रहा आतंक ये।
दुश्मनों का नाश करना, इक चुनौती बन गया।।

किस तरह से राजनेता, हो रहे धनवान यों, 
इसका' पर्दाफाश करना, इक चुनौती बन गया।।

रिश्वतखोरी मिल चुकी है, अब हमारे रक्त में,
खून गंदा साफ करना, इक चुनौती बन गया।।

मंदगति का कानून से, मुलजिम सभी निर्दोष हैं,
वक्त पर इंसाफ करना, इक चुनौती बन गया।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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Saturday, December 19, 2015

172. जरा सोच तू कौन पथ पर चला है

जरा सोच तू कौन पथ पर चला है,
कुकर्मों का' पौधा भला कब फला है,
कभी जग न सुधरा सुधारे यहाँ पर,
खुदी लोग सुधरें तभी सब भला है।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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171. हकीकत लिखी है हकीकत

हकीकत लिखी  है हकीकत लिखूँगा।
जुबां की कभी भी न कीमत लिखूँगा।
गरीबी,    अमीरी,    लुटाई,     खुदाई।
लिखूँगा मैं' जो साफ नीयत लिखूँगा।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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170. हजारों नज़र से नज़र को बचाकर

हजारों नज़र से, नज़र को बचाकर, वो’ धीरे से’ आँखों की’ पुतली हिलाना।
नज़र फिर भी’ प्यासी की’ प्यासी रही तो, वो’ धीरे से’ गर्दन सुराही घुमाना।
नज़र पहुँची’ जब रूपसागर के’ तट पर, वो’ जी भर के’ अतृप्त प्यासें बुझाना।
नज़र से नज़र कुछ मिली इस तरह से, नज़र के सिवा फिर नज़र कुछ न आना॥

रणवीर सिंह (अनुपम)
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169. नज़र एक तन पर

नज़र एक तन पर, नज़र इक बदन पर, नज़र एक नज़रों से टकरा रही थी।
नज़र हो ब्याही, नज़र बिन ब्याही, हमें सिर्फ क्वारी नज़र आ रही थी।
नज़र अपने आशिक की नज़रों से मिलकर, नज़र फिर शरम से झुकी जा रही थी।
खुदा जाने या फिर नजरवाला जाने, कि किसकी नज़र अब कहाँ जा रही थी।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Friday, December 18, 2015

168. बहारें साथ जब छोड़ें

मापनी-1222    1222    1222    1222

बहारें साथ जब छोड़ें, तो' मुझको याद कर लेना,
जरूरत जब पड़े मेरी, तो' मुझको याद कर लेना,
अभी अपनों को' अजमाओ, अभी गैरों को' अपनाओ,
तबीयत सबसे' भर जाए, तो मुझको याद कर लेना॥

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Thursday, December 17, 2015

167. दिन रात यही रटना रटती (सवैया)

दुर्मिल सवैया (8 सगण अर्थात 112)

दिन रात यही रटना रटतीं, सब छोड़ पर ध्यान करौ।
तुम प्राण हमीं पर वार रहीं, हर रोज यही गुणगान करौ।
कछु देर समीप रहो सजनी, अरु जा मन की पहिचान करौ।
हमरे दिल में किस ठौर बसौ, तब ही इस ज्ञान का' भान करौ।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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अरु = और
जा मन = इस मन

Sunday, December 13, 2015

166. उमंगों औ तरंगों के नशे में

उमंगों औ तरंगों के, नशे में डोलने लगते,
फिजां में मस्त नज़रों से, नशा सा घोलने लगते,
पिलाकर जाम आँखों से, हमें मदहोश करके वो,
हया औ शर्म के घूँघट, को' कुछ-कुछ खोलने लगते।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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165. जब से है देखा तुझे (कवित्त)

जब से है देखा तुझे, तब से न होश मुझे,
समझा रहे हैं लोग, दवा-दारू लीजिये।।

कितने गुजारे साल, अब तो बुरा है हाल,
कुछ तो रहम करो, कुछ तो पसीजिये।।

मिलो तो सुकून मिले, मन का प्रसून खिले,
मुरझा हुआ है दिल, कुछ ख्याल कीजिये।।

मन में उछाल वही, अब भी सवाल वही,
चाह तेरे हाथ की है, लीजिये या दीजिये।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Saturday, December 12, 2015

164. जो बातें मैं कह नहीं' पाया

जो बातें मैं कह नहिं पाया, अब तक पत्र हजारों में।
वे  सारी  बातें   कह  डाली,  उनने  चंद  इशारों  में।

इक मैं हूँ जो तीसौ दिन ही, गुमसुम सा दिखता रहता।
इक वो हैं जो खिलती रहतीं, पैने निष्ठुर खारों में।।

पति-पत्नी का पावन रिश्ता, प्रेम समर्पण से चलता।
काहे इसे घसीट रहे हो, तुम अनुबंध, करारों में।।

जो हैं देशद्रोही उनको, प्राण दंड देना होगा।
फर्क हमें करना ही होगा, देशभक्त, गद्दारों में।।

निष्ठायें मोहताज न धन की, पन्ना दाई से सीखो।
पैसों से कब आती निष्ठा, अह जग पहरेदारों में।।

नैतिकता सिखलाने वाले, खुद कामी, व्यभिचारी हैं।
अब कैसे विश्वास करें हम, धर्म के ठेकेदारों में।।

जिस्म नुमाइश अब टीवी पर, खुल्लम-खुल्ला होती हैं।
जिस्मफरोशी, हर हथकंडा, जायज है व्यापारों में।।

पैसा अब प्रधान हुआ है, पैसे की खातिर देखो।
शयनकक्ष की बातें होती, मंचों पर, बाजारों में।।
*****

जातिवाद औ धर्मवाद जब, काबिज़ हो सरकारों में।
तो कैसे विश्वास करें हम, समता के अधिकारों में।

सदियाँ गुजरी, गुजर गए युग, वही गरीबी लाचारी,
ईश्वर बनकर एक न आया, ईश्वर के अवतारों में।

साँपनाथ औ नागनाथ में, एक हमें चुनना पड़ता,
अपना प्रतिनिधि ढूँढ रहे हम, खूनी औ हत्यारों में।

लंबी-चौड़ी इन बातों से, भला नहीं होने वाला।
खाली बातें जोश न भरती, व्याकुल, भूख के' मारों में।।

संसद ठप्प पड़ी रहती है, खर्च करोड़ों हो जाते।
जनता के मुद्दे मरते हैं, हर दिन हाहाकारों में।।

भारत का हित नहीं दीखता, पश्चिम की इस पूँजी में।
कोठी, क्लबों, फार्महाउस, बड़ी-बड़ी इन कारों में।।

आज टिटहरी कविता पढ़ती, उल्लू  करते आयोजन।
हंस हमें तल्लीन दिखें अब, कौओं की जयकारों में।।

नैतिकता, ईमान, यहाँ बस, लगें किताबों की बातें।
सच का सूरज डूब गया हो, जैसे कहीं कछारों में।।

भूखे-नंगे, दीन-गरीबों, से डरना सीखो साहब।
कभी-कभी आ जाती हिम्मत, बुझदिल औ लाचारों में।।

प्राण किसी के ले लो 'अनुपम', शब्दों का क्या करियेगा।
क़त्ल करे जो आवाज़ों को, धार कहाँ तलवारों में।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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163. कभी तकरार करते हैं

कभी तकरार करते  हो, कभी  इन्कार करते  हो।
मगर मुझको यकीं है ये,  हमीं से  प्यार करते हो।
तभी तो चूड़ियाँ, नथनी, नयन मदिरा भरे प्याले।
सभी को यूँ सजाकर  के, इन्हें  तैयार  करते  हो।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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162. ठंड आ गई है अब (कवित्त)

ठंड आ गई है अब, आते छा गई है अब,
अपना असर हम, सबको दिखात है।

जामें खूब भूख लगे, अति प्यारी धूप लगे,
पूड़ी औ पराठा कोई, दाल भात खात है।

कोहरे की मार कहीं, और है तुषार कहीं,
देख-देख कृषक का, मन घबड़ात है।

हिंद का किसान लोगों, हिंद की है जान लोगों,
नंगे तन ग्रीष्म-शीत, सब सह जात है।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Sunday, December 06, 2015

161. इक दिन मुझसे मिलने आओ

लावणी छंद
(16/14,  हर चरण का पदांत 12)

इक दिन मुझसे मिलने आओ, मन में नव उल्लास लिए।
अँखियों में ले स्वप्न हजारों, अंतर में विश्वास लिए।।

तुम भी कब से तड़फ रही हो, विरह वेदना में सजनी,
और इधर बैठा हूँ मैं भी, मधुर मिलन की आस लिए।।

मृग सहरा में ज्यों जल खोजे, दृष्टि तुम्हें है खोज रही,
व्याकुल रीती इन अँखियों में, सदियों की हूँ प्यास लिए।।

रहम करो इस दीवाने पर, कब से ये विक्षिप्त पड़ा,
दिल बहिलाने को आ जाओ, मृदु होठों पर हास लिए।।

हुआ आगमन तेरा जब से, सृष्टि लगे बदली-बदली,
जैसे रति अवतरित हुई, आँचल में मधुमास लिए।।

चलता फिरता मदिरालय हो, जग बौराया पीने को,
मद्य भरी इन दो अँखियों में, आई हो कुछ खास लिए।।

भँवरे भूल गए कलियों को, पवन लगे बहकी-बहकी,
आम सलामी झुक-झुक देते, अपने संग पलास लिए।।

रंग दूधिया, कोमल काया, कमर लचकती बल खाये,
देह कसी सारंगी सी है, नूतन नव अहसास लिए।।

श्यामल जुल्फें, गाल गुलाबी, अधर अधखिली दो कलियाँ,
उन्नत वक्ष, सुराही गर्दन, तन है पूर्ण विकास लिए।।

तुम मंदिर सी, तुम मस्जिद सी, तुम गुरूद्वारे सी लगती,
लब्ज़ों में हो दुआ लिए तुम, होंठों पर अरदास लिए।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Saturday, December 05, 2015

160. जा तन प्रेम न ऊपजे (कुण्डलिया)

जा  तन  प्रेम  न  ऊपजे, सो  तन  है  बेकार।
प्रेम बिना सब खोखला, मृदु वाणी, व्यवहार।
मृदु वाणी, व्यवहार, प्रेम बिन जन्में  किसमें?
वे  ही  रिश्ते  चलें,  प्रेम  हो  बसता  जिसमें।
प्रेम जगत का सार, शेष  सब आवन-जावन।
वो  तन हैं  पाषाण,  प्रेम  नहिं  भीतर  जा तन।
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

159. पति पत्नी दोऊ बने (कुण्डलिया)

पति-पत्नी दोऊ बने, सुख-दुःख के हक़दार।
ऐसे रिश्तों से फले, प्रीत और परिवार।
प्रीत और परिवार, इन्हें आदर्श बनाते।
पत्नी जब हो संग, पती इज्जत को पाते।
घर में रहकर मित्र, बात भार्या की सुननी।
तभी कुशल सर्वत्र, रहें मिलजुल पति-पत्नी।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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158. पत्नी जी हैं माँगती (कुण्डलिया)

पत्नी जी   हैं   माँगती,  मुझसे   सदा   हिसाब।
कितना  वेतन  मिल  रहा,  दीजे  सही  जवाब।
दीजे   सही    जवाब,   टालते    काहे   हरदम।
सच-सच हमें बताउ, आपकी तनखा क्यों कम।
बात,  बात  पर  कहें,  नहीं   तुमसे  पटनी जी।
जब  से  घर  में  घुसीं, यही  कहतीं  पत्नी जी।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Wednesday, December 02, 2015

157. गीता सारे विश्व को (कुण्डलिया छंद)

गीता सारे  विश्व  को,  कर्मयोग  सिखलाय।
किंकर्तव्यविमूढ़   में,  हमें   राह  दिखलाय।
हमें राह  दिखलाय, कहे  संग  रहो  धर्म के।
फल की चिंता छोड़, भाग्य है जुड़ा कर्म से।
जो जन्मे  सो मरे, कौन सदियों  तक जीता।
जन्म-मरण  का मर्म,  हमें समझाती  गीता।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Monday, November 30, 2015

156. सरस्वती वंदना (कुण्डलिया छंद)

माता जो आता मुझे, वो तो है तृणभार।
जो मुझको आता नहीं, वो पर्वत उनहार।
वो पर्वत उनहार, पुत्र पर किरपा करिये।
आलोकित पथ करो, मात सब तम को हरिये।
सच को सच लिख सकूँ, रहे सच से ही नाता।
इतनी कृपा करो आज, इस सुत पर माता।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Saturday, November 28, 2015

155. बताओ एक तो खूबी

बताओ एक तो खूबी, करें हम तब वरण लोगो,
तुम्हारे तारने से अब, नहीं होगा तरण लोगो।

जरा सी बात को लेकर, न करिये रोज प्रदर्शन,
करो मत इस तरह अनशन, यहाँ पर आमरण लोगो।

नहीं इतने भी' हैं काबिल, ढिढ़ोरा पीटते जितना,
हकीकत देखिये इनकी, हटाकर आवरण लोगों।

कफ़न, नदियाँ, खदानें, ईंट-पत्थर और ये चारा,
इसी से आजकल करते, उदर का ये भरण लोगो।

सदा से रहनुमा बनकर, बनाते आ रहे हमको,
जरूरत के समय इनने, हमें कब दी शरण लोगो?

दिखा सपने तरक्की के, हमारी नींद भी ले ली,
किया है किस तरह देखो, जमीनों का हरण लोगो।

बिछौना है जमीं मेरी, खुला ये आसमां चद्दर,
मे'रा घर-बार तो बस है, यही वातावरण लोगो।

हितैषी हो नहीं सकते, धरम को बेंचने वाले,
अरे पाखंडियों के तुम, पखारो मत चरण लोगों।

कुटिल, कामुक, दुराचारी, मठों को घेर कर बैठे,
इन्हीने है किया देखो, धरम का ये क्षरण लोगो।

दबाकर शत्रु की गर्दन, चढ़ोगे वक्ष पर जिस दिन,
उसी दिन विश्व से आतंक का होगा मरण लोगों।

न कोई जन्म से ऊँचा, न कोई जन्म से नीचा,
इसे तो तय किया करता, सदा ही आचरण लोगो।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Monday, November 23, 2015

154. आने से उनके आ गया

आने से उनके आ गया, मौसम बहार का,
जाने लगे तो छा गया, मौसम तुषार का॥
धीरे से मुस्कराके, यों झुल्फ झटकना,
मुख को घुमाना जैसे हो, ग्राहक उधार का॥
पानी को उनने छू लिया, दरिया उफन गया,
नदियों में जैसे आ गया, मौसम ज्वार का॥
बिस्तर की सिलवटों ने, सब कुछ बता दिया,
आलम रहा रात भर, बस इंतजार का॥
आँखों में उनके आलस, अंगों में सुस्तियाँ,
जैसे नशा चढ़ा हो, अब भी खुमार का॥
छवि को निहार कर, दर्पण चटक गया,
टूटा हो सब्र जैसे, किसी बेकरार का॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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153. कुछ दोहे-2 (नेता और जनता)

चुनकर भेजा था जिन्हें, वो बन बैठे भाट।
वोट कीमती दे उन्हें, हाथ लिए हैं काट।। 1

बिकें विधायक शान से, लगी हुई है हाट।
नेता चूसे देश को, पब्लिक बारह बाट।। 2

भूखी जनता, अन्न की, कब से देखे बाट।
वोही खाली पेट है, वोही टूटी खाट।। 3

महलों ने हरदम करी, झोपड़ियों से घाट।
सब कुछ हमरा छीन के, कर दिया बारह बाट।। 4

दूध, दही, धन-सम्पदा, उन्हें महल, रजपाट।
हमको फटी कमीज बस, औ इक टूटी खाट।। 5

सुरा-सुंदरी, दावतें, प्रभु का उन पर हाथ।
भूख-प्यास, बीमारियाँ, सब हरिया के साथ।। 6

सरकारें आईं गयीं, सकी न बेड़ी काट।
दूरी राजा रंक की, नहीं सकी वो पाट।। 7

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Sunday, November 22, 2015

152. मेरे स्पर्श को पाकर

मे'रे   स्पर्श   को  पाकर,  नशे   में   डोलते   हैं  वो।
"मुझे यूँ तंग मत  करिये", सिमट  कर  बोलते है वो।
हजारों मिन्नतों के  बाद, उनको  कुछ  रहम  आता।
कहीं तब लाज के घूँघट, के' पट को खोलते हैं वो।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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मे'रे  स्पर्श  को  पाकर,  नशे  में   डोलने   लगते।
फिजां में मस्त नज़रों से, नशा सा  घोलने  लगते।
पिलाकर जाम आँखों से, मुझे मदहोश करके वो।
हया औ शर्म के घूँघट, को' थोड़ा खोलने लगते।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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Wednesday, November 18, 2015

151. जिसको ढूँढा जिधर

जिसको ढूँढा जिधर, वो उधर न मिला,
लाख ढूँढा मगर उनका घर न मिला॥
 
यूं तो मिलते रहे ज़िंदगी बहुत,
हम जुबां न मिला, हमसफर न मिला॥
 
जब भी मतलब रहा लोग आते रहे,
यूँ ही आकर के कोई इधर न मिला॥
 
जख्म पे जख्म खाता रहा आज तक,
दर्द महसूस हो वो असर न मिला॥
 
तेरी फितरत से वाकिफ हूँ अच्छी तरह,
मेरे साथी तूँ ऐसे नज़र न मिला॥ 
 
लोग बिकते रहे, मैं नहीं बिक सका,
मुझमें बस एक ये ही हुनर न मिला॥
 
रणवीर सिंह (अनुपम)
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150. बहुत बार गुजरे हैं', तेरी गली से

बहुत बार गुजरे हैं', तेरी गली से,
मगर ऐसा मौसम न, देखा कभी भी,
मेरी बात पर हो न एतवार तुमको,
तो जाकर के अपने पड़ोसी से पूछो॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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149. सुलगती आग जल जाती

सुलगती आग जल जाती, अगर थोड़ी हवा होती,
नहीं यों खेलती दिल से, अगर थोड़ी वफा होती,
नहीं शिकवा, शिकायत न, मुझे अपने, पराओं से,
तेरी नफरत छुपा लेता, अगर थोड़ी जगह होती॥

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Monday, November 16, 2015

148. नैतिकता आदर्श मिट गए

नैतिकता, आदर्श मिट गए, अब आधुनिक जमाने में।
नेकी और ईमान बिक गए, अपना काम चलाने में॥

मुगल हुमायूँ-कर्णवती  से, रिश्ते कौन बनाता अब,
नर-नारी आधुनिक हो रहे, ये नहिं उन्हें सुहाता अब,
कैसे - कैसे  काम  हो रहे, कारोबार चलाने  में॥

नया  जोश अब, नई  उमंगें, नई सभ्यता  है आई,
आज  सभ्य लोगों ने ली  है, नंगे  होकर अँगड़ाई,
क्या-क्या मिले देखने को अब, यारो नए जमाने में॥

आज जवानी बनी हुई  है, पर्दों का बस आकर्षन,
आज खुली जंघाएं लेकर, इठलाता  फिरता यौवन,
यौवन गर्वित हुआ झूमता, अपनी देह दिखाने में॥

टुन्न चमेली पौआ पीकर, मुन्नी भी बदनाम फिरे, 
अरु मुन्नी वो काम कर रही, जो न झंडू बाम करे, 
पर्दे पर  यों  दिखें नारियाँ, आती लाज बताने में॥  

नंगे  होकर ट्रांजिस्टर  संग, आमिर खाँ प्रचार करे, 
वस्त्र त्यागकर आज सभ्यता, लोगों को हुशियार करे,
जिस्मों का उपयोग  हो  रहा, अब  बाजार बढ़ाने  में॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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गीत (16/14)

संस्कार आदर्श मिट गए,
अब इस नए ज़माने में।
नेकी औ ईमान बिक गए,
अपना काम चलाने में॥

नया  जोश अब, नई  उमंगें,
नई सभ्यता  है आई,
आज  सभ्य लोगों ने ली है,
नंगे  होकर अँगड़ाई।

क्या-क्या मिले देखने को अब,
यारो नए जमाने में॥ 1

आज जवानी बनी हुई  है,
पर्दों का बस आकर्षन।
आज खुली जंघाएं लेकर,
इठलाता  फिरता यौवन।

यौवन गर्वित हुआ झूमता,
अपनी देह दिखाने में॥ 2

टुन्न चमेली पौआ पीकर,
मुन्नी भी बदनाम फिरे, 
औ मुन्नी वो काम कर रही,
जो न झंडू बाम करे।

पर्दे पर यों दिखें नारियाँ,
आती लाज बताने में॥ 3

नंगे होकर ट्रांजिस्टर  संग,
आमिरखाँ प्रचार करे, 
वस्त्र त्यागकर आज सभ्यता,
लोगों को हुशियार करे।

जिस्मों का उपयोग हो रहा,
अब  बाजार बढ़ाने  में॥ 4

रणवीर सिंह (अनुपम)
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147. दूर से आँखें मिलाकर लूट लिया

दूर  से  आँखें   मिलाकर   लूट लिया।
मिले  तो  नज़रें  झुकाकर  लूट लिया।

पहले  तो  जलवा  दिखाया  हुश्न  का,
और फिर जुल्फें गिराकर  लूट लिया।

पास  पहुँचे  तो  शिकायत  ही  मिली,
जब  चले  तो  मुस्कराकर  लूट लिया।

इतने  से  जब दिल  नहीं उनका भरा,
नींद  में  नींदों  को आकर लूट लिया।

जंगलों   में   जो   लुटे    वे   और   हैं,
मुझको तो घर पर बुलाकर लूट लिया।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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Saturday, November 14, 2015

146. मेरे कुछ दोहे -1

हिंदी सबसे कह रही, निज अंतर की पीर।
आज सूर, तुलसी नहीं, नहिं रैदास, कबीर।।1
 
आज हिन्द में देखिये, हिंदी का प्रतिकार।
हिंदी में हम कर  रहे,  इंगलिश का प्रचार।।2
 
मैकाले कब  के गये, पर नहिं  सुधरी भूल।
गली-गली में खुल रहे,  कानवेंट  इस्कूल।।3
 
श्रृंगार और सौंदर्य
 
साजन से  मिलने चली, गोरी  कर श्रृंगार।
पायलिया बजने लगी, जाग गया घर बार।।4
 
नदिया अपनी  कर जरा, तू धीमी रफ़्तार।
प्रियतम से मिलने मुझे, जाना है उस पार।।5
 
सजनी, रजनी में लगे, शशि सा तेरा रूप।
आनन की आभा लगे, सूर्यमुखी पर धूप।।6
 
खिंचा धनुष भृकुटी लगे, नयन कटीले वाण।
सजधज कर तू आ गयी, हरने सब के प्राण।।7
 
अँखियाँ तरकश सी लगें, भृकुटी खिंची कमान।
माया सम ये रूप है, दृष्टि मोहनी वान।।8
 
तिरछी चितबन तीर सी, भृकुटी खिंची कमान।
और मोहनी रूप ये, सब मिल हरते प्रान।9
 
तन तेरा सूरजमुखी, नज़र हमारी धूप,
ज्यों ही आनन पर पड़े, खिले दोगुना रूप।।10
 
पुष्प वदन को देख कर, भ्रमर चक्षु मदहोश।
नहिं जाने किस बात पर, 'अनुपम' ये खामोश।।11
 
घूँघट से छन-छन पड़े, गोरी मुख पर धूप।
दृग दोऊ खामोश हैं, देख मनोहर रूप।।12
 
तेरे सन्मुख आ प्रिये, किसको रहता होश।
विश्व मोहिनी रूप ये, कर देता मदहोश।।13
          
दुनियाँ भर के रूप से, ईश्वर दीन्हा लाद।
हुश्न तुम्हारा सृष्टि को, कर नहिं दे बर्बाद।।14
 
देह कसी मृदंग सी,  छेड़े रह-रह तान।
राग-रागिनी देख ये, भूले सभी विधान।।15
 
अंग-अंग में मस्तियाँ, देह रूप की खान।
जो देखे आहें भरे, चुप रह तजता प्रान।।16
 
किस विधि सँवरेगी यहाँ, नारी की तक़दीर।
जब नारी समझे नहीं, नारी की ही पीर।। 17
 
श्रीकृष्ण
 
भोली सूरत श्याम की, शोभत कुंडल कान।
अधरों की मुरली सखी, इक दिन लेगी प्रान।।18
 
दोहा
 
दोहा अनुपम छंद है, मात्रा चौबिस भार।
चार चरण, दो पंक्ति में, है इसका विस्तार।।19
 
जग में सबको एक सा, समझ न ओ नादान।
एक से बढ़कर एक हैं, दुनियाँ में विद्वान।। 20
 
'अनुपम' आता जो तुझे, वो तो है तृणभार।
जो तुझको आता नहीं, वो पर्वत उनहार।। 21
 
झूठ हमेशा झूठ है, गले न इसकी दाल।
चाहे जितनी देर तू, रे मन इसे उबाल।। 22
 
कवि होकर जो छंद का, माने नहीं विधान।
मैं-मैं, मैं-मैं जो करे, वह कैसा विद्वान।। 23
 
छंद नियम की पालना, काम करे आसान।
लय खुद ही आ जात है, खुद आ जायें प्रान।।24
 
नियम, नियम ही होत है, नियम जरूरी अंग।
रचना का दर्जा गिरे, अगर नियम हो भंग।।25
 
दो दोहे क्या रच लिए, बनते, सूर, कबीर।
पढ़कर ग़ालिब, मीर को, समझें खुद को मीर।।26
 
रट ग़ालिब के शे'र वो, खुद को समझें शेर।
सच को सुनना सीख तू, मत ऐसे मुँह फेर।।27
 
कइयों शायर लिख गए, दोयम दर्जा शे'र।
सीधी सच्ची बात पर, ऐसे मुँह मत फेर।।28
 
गुरु वशिष्ठ से लोग भी, कर जाते हैं चूक।
वक्त पड़े समझाइये, कभी न रहना मूक।।29
 
शायर भी इंसान है, कर जाते हैं भूल।
भूल, चूक, त्रुटियाँ कभी, होती नहीं उसूल।।30
 
दीपावली
 
नमो वैद्य धनमंतरी, तन-मन करो निरोग।
व्याधिमुक्त सब हों यहाँ, मिटे जगत से रोग।।31
 
कृपा करो माँ शारदे, यह सुत है नादान।
भावों को स्वीकार कर, दूर करो अज्ञान।।32
 
माँ लक्ष्मी किरपा करो, सब का हरो कलेश।
और हमें बलबुद्धि दो, गौरी पुत्र गणेश।। 33
 
लाख जलाये दीप पर, फैला नहिं उजियार।
ये लड़ियाँ अरु बल्ब ये, सब कुछ हैं बेकार।। 34
 
जब आलोकित मन नहीं, तो दीपक बेकार।
मन अँधियारा जब मिटे, तब सच्चा त्यौहार।। 35
 
तम हरने को रात भर, दिए जलाये आज।
पर हिय के अँधकार का, कोई नहीं इलाज।। 36
 
दीवाली के पर्व पर, ओछे रीत-रिवाज।
गलियों में लुड़कत फिरें, पी-पी मदिरा आज।।37
 
दारू पी-पी टुन्न हो, फड़ पर बैठे लोग।
ईश्वर मेरे गाँव को, कैसा लागा रोग।। 38
 
विरह
 
तुम बिन प्रिये अब नहीं, मोकूँ कछू सुहात।
खुद ही खुद से बात कर, जागूँ मैं दिन-रात।।39
 
रणवीर सिंह (अनुपम)
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145. हर शख्स की यहाँ पर

हर शख्स की यहाँ पर, नीयत बदल गई,
जो चीज़ आदमी थी, वो तो निकल गई,
पहले भी बिक रहे थे, अब भी हैं बिक रहे,
कुछ फर्क है तो बस, कीमत बदल गई॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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144. वो जमाले हुश्न उनका

144. वो जमाले हुश्न उनका (मुक्तक)

वो  जमाले   हुश्न   उनका,  और   अंदाजे   कलाम।
वो तबुस्सुम, वो झुका सिर, और वो उनका सलाम।
लय  पकड़ना  नृत्य  का  वो,  थिरकना  मृदंग  पर।
खत्म होकर भी  है लगता, उनका  रक्से  नातमाम।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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रक्स= नृत्य, 
नातमाम=अपूर्ण, ख़त्म न हुआ हो, संपन्न न हुआ हो

143. जब भी गुजरा कोई दिल से

जब भी गुजरा कोई दिल से, रहगुज़र बनती रही,
राहबर बनके हमारी, ज़िंदगी जलती रही,
गम-ए-गेती, गम-जनानां और कंगाली का गम,
दर्द सीने में दफन कर, ज़िंदगी चलती रही॥

रणवीर सिंह (अनुपम)

गम-ए-गेती= दुनियाँ का गम
गम-जनानां= प्रेमिका का गम
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142. सौभाग्य अगर द्वार पर (मुक्तक)

सौभाग्य अगर द्वार पर, दस्तक  दे  एक बार।
उस वक्त शीघ्र उसका, सत्कार होना चाहिए।
दुर्भाग्य  अगर  द्वार पर, आए जो  बार, बार।
हर बार  पूरे ज़ोर से, प्रतिकार  होना चाहिए।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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