Saturday, November 14, 2015

146. मेरे कुछ दोहे -1

हिंदी सबसे कह रही, निज अंतर की पीर।
आज सूर, तुलसी नहीं, नहिं रैदास, कबीर।।1
 
आज हिन्द में देखिये, हिंदी का प्रतिकार।
हिंदी में हम कर  रहे,  इंगलिश का प्रचार।।2
 
मैकाले कब  के गये, पर नहिं  सुधरी भूल।
गली-गली में खुल रहे,  कानवेंट  इस्कूल।।3
 
श्रृंगार और सौंदर्य
 
साजन से  मिलने चली, गोरी  कर श्रृंगार।
पायलिया बजने लगी, जाग गया घर बार।।4
 
नदिया अपनी  कर जरा, तू धीमी रफ़्तार।
प्रियतम से मिलने मुझे, जाना है उस पार।।5
 
सजनी, रजनी में लगे, शशि सा तेरा रूप।
आनन की आभा लगे, सूर्यमुखी पर धूप।।6
 
खिंचा धनुष भृकुटी लगे, नयन कटीले वाण।
सजधज कर तू आ गयी, हरने सब के प्राण।।7
 
अँखियाँ तरकश सी लगें, भृकुटी खिंची कमान।
माया सम ये रूप है, दृष्टि मोहनी वान।।8
 
तिरछी चितबन तीर सी, भृकुटी खिंची कमान।
और मोहनी रूप ये, सब मिल हरते प्रान।9
 
तन तेरा सूरजमुखी, नज़र हमारी धूप,
ज्यों ही आनन पर पड़े, खिले दोगुना रूप।।10
 
पुष्प वदन को देख कर, भ्रमर चक्षु मदहोश।
नहिं जाने किस बात पर, 'अनुपम' ये खामोश।।11
 
घूँघट से छन-छन पड़े, गोरी मुख पर धूप।
दृग दोऊ खामोश हैं, देख मनोहर रूप।।12
 
तेरे सन्मुख आ प्रिये, किसको रहता होश।
विश्व मोहिनी रूप ये, कर देता मदहोश।।13
          
दुनियाँ भर के रूप से, ईश्वर दीन्हा लाद।
हुश्न तुम्हारा सृष्टि को, कर नहिं दे बर्बाद।।14
 
देह कसी मृदंग सी,  छेड़े रह-रह तान।
राग-रागिनी देख ये, भूले सभी विधान।।15
 
अंग-अंग में मस्तियाँ, देह रूप की खान।
जो देखे आहें भरे, चुप रह तजता प्रान।।16
 
किस विधि सँवरेगी यहाँ, नारी की तक़दीर।
जब नारी समझे नहीं, नारी की ही पीर।। 17
 
श्रीकृष्ण
 
भोली सूरत श्याम की, शोभत कुंडल कान।
अधरों की मुरली सखी, इक दिन लेगी प्रान।।18
 
दोहा
 
दोहा अनुपम छंद है, मात्रा चौबिस भार।
चार चरण, दो पंक्ति में, है इसका विस्तार।।19
 
जग में सबको एक सा, समझ न ओ नादान।
एक से बढ़कर एक हैं, दुनियाँ में विद्वान।। 20
 
'अनुपम' आता जो तुझे, वो तो है तृणभार।
जो तुझको आता नहीं, वो पर्वत उनहार।। 21
 
झूठ हमेशा झूठ है, गले न इसकी दाल।
चाहे जितनी देर तू, रे मन इसे उबाल।। 22
 
कवि होकर जो छंद का, माने नहीं विधान।
मैं-मैं, मैं-मैं जो करे, वह कैसा विद्वान।। 23
 
छंद नियम की पालना, काम करे आसान।
लय खुद ही आ जात है, खुद आ जायें प्रान।।24
 
नियम, नियम ही होत है, नियम जरूरी अंग।
रचना का दर्जा गिरे, अगर नियम हो भंग।।25
 
दो दोहे क्या रच लिए, बनते, सूर, कबीर।
पढ़कर ग़ालिब, मीर को, समझें खुद को मीर।।26
 
रट ग़ालिब के शे'र वो, खुद को समझें शेर।
सच को सुनना सीख तू, मत ऐसे मुँह फेर।।27
 
कइयों शायर लिख गए, दोयम दर्जा शे'र।
सीधी सच्ची बात पर, ऐसे मुँह मत फेर।।28
 
गुरु वशिष्ठ से लोग भी, कर जाते हैं चूक।
वक्त पड़े समझाइये, कभी न रहना मूक।।29
 
शायर भी इंसान है, कर जाते हैं भूल।
भूल, चूक, त्रुटियाँ कभी, होती नहीं उसूल।।30
 
दीपावली
 
नमो वैद्य धनमंतरी, तन-मन करो निरोग।
व्याधिमुक्त सब हों यहाँ, मिटे जगत से रोग।।31
 
कृपा करो माँ शारदे, यह सुत है नादान।
भावों को स्वीकार कर, दूर करो अज्ञान।।32
 
माँ लक्ष्मी किरपा करो, सब का हरो कलेश।
और हमें बलबुद्धि दो, गौरी पुत्र गणेश।। 33
 
लाख जलाये दीप पर, फैला नहिं उजियार।
ये लड़ियाँ अरु बल्ब ये, सब कुछ हैं बेकार।। 34
 
जब आलोकित मन नहीं, तो दीपक बेकार।
मन अँधियारा जब मिटे, तब सच्चा त्यौहार।। 35
 
तम हरने को रात भर, दिए जलाये आज।
पर हिय के अँधकार का, कोई नहीं इलाज।। 36
 
दीवाली के पर्व पर, ओछे रीत-रिवाज।
गलियों में लुड़कत फिरें, पी-पी मदिरा आज।।37
 
दारू पी-पी टुन्न हो, फड़ पर बैठे लोग।
ईश्वर मेरे गाँव को, कैसा लागा रोग।। 38
 
विरह
 
तुम बिन प्रिये अब नहीं, मोकूँ कछू सुहात।
खुद ही खुद से बात कर, जागूँ मैं दिन-रात।।39
 
रणवीर सिंह (अनुपम)
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