Sunday, December 06, 2015

161. इक दिन मुझसे मिलने आओ

लावणी छंद
(16/14,  हर चरण का पदांत 12)

इक दिन मुझसे मिलने आओ, मन में नव उल्लास लिए।
अँखियों में ले स्वप्न हजारों, अंतर में विश्वास लिए।।

तुम भी कब से तड़फ रही हो, विरह वेदना में सजनी,
और इधर बैठा हूँ मैं भी, मधुर मिलन की आस लिए।।

मृग सहरा में ज्यों जल खोजे, दृष्टि तुम्हें है खोज रही,
व्याकुल रीती इन अँखियों में, सदियों की हूँ प्यास लिए।।

रहम करो इस दीवाने पर, कब से ये विक्षिप्त पड़ा,
दिल बहिलाने को आ जाओ, मृदु होठों पर हास लिए।।

हुआ आगमन तेरा जब से, सृष्टि लगे बदली-बदली,
जैसे रति अवतरित हुई, आँचल में मधुमास लिए।।

चलता फिरता मदिरालय हो, जग बौराया पीने को,
मद्य भरी इन दो अँखियों में, आई हो कुछ खास लिए।।

भँवरे भूल गए कलियों को, पवन लगे बहकी-बहकी,
आम सलामी झुक-झुक देते, अपने संग पलास लिए।।

रंग दूधिया, कोमल काया, कमर लचकती बल खाये,
देह कसी सारंगी सी है, नूतन नव अहसास लिए।।

श्यामल जुल्फें, गाल गुलाबी, अधर अधखिली दो कलियाँ,
उन्नत वक्ष, सुराही गर्दन, तन है पूर्ण विकास लिए।।

तुम मंदिर सी, तुम मस्जिद सी, तुम गुरूद्वारे सी लगती,
लब्ज़ों में हो दुआ लिए तुम, होंठों पर अरदास लिए।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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