Saturday, December 12, 2015

164. जो बातें मैं कह नहीं' पाया

जो बातें मैं कह नहिं पाया, अब तक पत्र हजारों में।
वे  सारी  बातें   कह  डाली,  उनने  चंद  इशारों  में।

इक मैं हूँ जो तीसौ दिन ही, गुमसुम सा दिखता रहता।
इक वो हैं जो खिलती रहतीं, पैने निष्ठुर खारों में।।

पति-पत्नी का पावन रिश्ता, प्रेम समर्पण से चलता।
काहे इसे घसीट रहे हो, तुम अनुबंध, करारों में।।

जो हैं देशद्रोही उनको, प्राण दंड देना होगा।
फर्क हमें करना ही होगा, देशभक्त, गद्दारों में।।

निष्ठायें मोहताज न धन की, पन्ना दाई से सीखो।
पैसों से कब आती निष्ठा, अह जग पहरेदारों में।।

नैतिकता सिखलाने वाले, खुद कामी, व्यभिचारी हैं।
अब कैसे विश्वास करें हम, धर्म के ठेकेदारों में।।

जिस्म नुमाइश अब टीवी पर, खुल्लम-खुल्ला होती हैं।
जिस्मफरोशी, हर हथकंडा, जायज है व्यापारों में।।

पैसा अब प्रधान हुआ है, पैसे की खातिर देखो।
शयनकक्ष की बातें होती, मंचों पर, बाजारों में।।
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जातिवाद औ धर्मवाद जब, काबिज़ हो सरकारों में।
तो कैसे विश्वास करें हम, समता के अधिकारों में।

सदियाँ गुजरी, गुजर गए युग, वही गरीबी लाचारी,
ईश्वर बनकर एक न आया, ईश्वर के अवतारों में।

साँपनाथ औ नागनाथ में, एक हमें चुनना पड़ता,
अपना प्रतिनिधि ढूँढ रहे हम, खूनी औ हत्यारों में।

लंबी-चौड़ी इन बातों से, भला नहीं होने वाला।
खाली बातें जोश न भरती, व्याकुल, भूख के' मारों में।।

संसद ठप्प पड़ी रहती है, खर्च करोड़ों हो जाते।
जनता के मुद्दे मरते हैं, हर दिन हाहाकारों में।।

भारत का हित नहीं दीखता, पश्चिम की इस पूँजी में।
कोठी, क्लबों, फार्महाउस, बड़ी-बड़ी इन कारों में।।

आज टिटहरी कविता पढ़ती, उल्लू  करते आयोजन।
हंस हमें तल्लीन दिखें अब, कौओं की जयकारों में।।

नैतिकता, ईमान, यहाँ बस, लगें किताबों की बातें।
सच का सूरज डूब गया हो, जैसे कहीं कछारों में।।

भूखे-नंगे, दीन-गरीबों, से डरना सीखो साहब।
कभी-कभी आ जाती हिम्मत, बुझदिल औ लाचारों में।।

प्राण किसी के ले लो 'अनुपम', शब्दों का क्या करियेगा।
क़त्ल करे जो आवाज़ों को, धार कहाँ तलवारों में।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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