702. जरूँ शाम से रात तक (कुंडलिया)
जरूँ शाम से रात तक, रातहिं आधी रात।
बार-बार मैं बारती, बार-बार बुझ जात।
बार-बार बुझ जात, ठिठोली तुमको सूझे।
बेकल हिय से हाय, कौन क्षण नाहीं जूझे।
बार-बार थक गई, उबर ना सकी काम से।
कंडे माफिक रोज भोर तक, जरूँ शाम से।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.01.2019
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