Wednesday, January 23, 2019

701. संझा से भई रात है (कुंडलिया)

701. संझा से भई रात है (कुंडलिया)

एक दबंग व्यक्ति अपने निर्धन दामाद जिसका नाम रंझा था के साथ अपनी बेटी जिसका नाम मंझा था का गौना करने से मना कर देता है। रंझा पंचायत कराता है जो उसके हक में फैसला देती है पर उसका ससुर फैसला नहीं मानता। रंझा उसी गांव में किनारे पर एक झोपड़ी डालकर रहने लगता और गांव वालों के पशुओं को चराने का काम करने लगता। यह सब उसके ससुर को नागवार गुजरता है और वह उसे धमकाता है कि वह गांव छोड़कर चला जाय। पर रंजा उसकी बात नहीं मानता। जिससे क्रोधित हो उसका ससुर एक दिन जंगल में उसकी हत्या कर देता है। जब रंझा शाम को गाँव में नहीं लौटता तो उसकी पत्नी मंझा अपने पिता से छुपकर जंगल में उसे ढूँढ़ने जाती है तो उसे वहाँ उसकी लाश मिलती है। वह रुदन करती है और उसका दाह संस्कार करने की कोशिश करती है पर उसकी चिता बार-बार बुझ जाती है। इस तरह धीरे-धीरे शाम से सुबह होने को आ जाती है पर चिता आग नहीं पकड़ती। तब मंझा अपने मृतपति रंझा से जो कहती है उस पर एक कुंडलिया छंद।

701. संझा से भई रात है (कुंडलिया)

संझा से  भई  रात है, रातहिं  हुआ प्रभात। 
बार-बार  मैं  बारती, बार-बार  बुझ  जात।
बार-बार  बुझ जात, ठिठोली तुमको सूझे।
मम हियरा की बात, नाथ कबहूँ नहिं बूझे।
बरते   काहे   नाँय,  कहे   मंझा,  रंझा  से।
बार-बार  थक  गई, बलम बारूँ  संझा से।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
23.01.2019
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संझा से - शाम से;  भई - हुई;  बार-बार - बारम्बार;  बारती - जलाती;  जात - जाते हो;  सूझे - सूझ रही है; बूझे - पूछे;  बरते - जलते; काहे - क्यों; नाँय - नहीं; बार-बार - जलाते-जलाते;  बारूँ-जलाऊँ।
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