Tuesday, January 15, 2019

689. मन के गलियारे में (गजल)

689. मन के गलियारे में

मन के गलियारे में, दिल का ये  दिया लेकर।
हर रोज  जिया करती, बेजान  जिया लेकर।

पिय के  संग पीहर  में, सत्कार  हुआ था यूँ,
जैसे  रघुवर आये, मिथला  से  सिया लेकर।

चूड़ी, कंगन, झुमका, नथनी, पायल, बाली,
जाने क्या-क्या देखो, आये  थे  पिया लेकर।

जब से  यह  सुना  मैंने, मनमीत  पधार  रहे,
चौखट पे खड़ी तब से, हाथों में हिया लेकर।

सनकी की बात न कर, ऐसा भी हुआ आली,
इक रोज रसिक आया, हाथों पे घिया लेकर।

कर्मों के सिवा जग में, किसने है  साथ दिया,
सब जग से जाते हैं, अपना ही  किया लेकर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.01.2019
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12/12  अंत में 
समान्त - इया
पदांत-लेकर

विरहा तन के भीतर, जलता ये' जिया लेकर।
चौखट पे खड़ी हूँ मैं, हाथों में' हिया लेकर।।

पिय के सँग पीहर में, सत्कार हुआ ऐसे,
जैसे रघुवर आये, मिथला से' सिया लेकर।।

चूड़ी, कंगन, झुमका, नथनी, पायल, बाली।
जाने क्या-क्या देखो, आये हैं' पिया लेकर।।

जा तन के रस खातिर, है रसिक पड़ा पीछे,
चहुँओर वो ढूँढ़ रहा, हाथों में' दिया लेकर।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

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