Sunday, January 27, 2019

703. भूख भय अरु बेबसी पर (मुक्तक)

703. भूख भय अरु बेबसी पर (मुक्तक)

भूख भय अरु बेबसी पर, अब कोई लिखता नहीं।
बात कहता किन्तु कहकर, बात पर टिकता नहीं।
शान  से  हर ओर  बिकता, झूठ  देखो थोक  में,
सत्य का है हाल फुटकर, में भी यह बिकता नहीं।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
27.01.2019
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Thursday, January 24, 2019

702. जरूँ शाम से रात तक (कुंडलिया)

702. जरूँ शाम से रात तक (कुंडलिया)

जरूँ शाम से  रात तक, रातहिं  आधी रात।
बार-बार  मैं  बारती, बार-बार   बुझ  जात।
बार-बार बुझ जात, ठिठोली  तुमको  सूझे।
बेकल  हिय से हाय, कौन क्षण  नाहीं जूझे।
बार-बार थक गई, उबर ना सकी  काम से।
कंडे माफिक रोज भोर तक, जरूँ शाम से।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.01.2019
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Wednesday, January 23, 2019

701. संझा से भई रात है (कुंडलिया)

701. संझा से भई रात है (कुंडलिया)

एक दबंग व्यक्ति अपने निर्धन दामाद जिसका नाम रंझा था के साथ अपनी बेटी जिसका नाम मंझा था का गौना करने से मना कर देता है। रंझा पंचायत कराता है जो उसके हक में फैसला देती है पर उसका ससुर फैसला नहीं मानता। रंझा उसी गांव में किनारे पर एक झोपड़ी डालकर रहने लगता और गांव वालों के पशुओं को चराने का काम करने लगता। यह सब उसके ससुर को नागवार गुजरता है और वह उसे धमकाता है कि वह गांव छोड़कर चला जाय। पर रंजा उसकी बात नहीं मानता। जिससे क्रोधित हो उसका ससुर एक दिन जंगल में उसकी हत्या कर देता है। जब रंझा शाम को गाँव में नहीं लौटता तो उसकी पत्नी मंझा अपने पिता से छुपकर जंगल में उसे ढूँढ़ने जाती है तो उसे वहाँ उसकी लाश मिलती है। वह रुदन करती है और उसका दाह संस्कार करने की कोशिश करती है पर उसकी चिता बार-बार बुझ जाती है। इस तरह धीरे-धीरे शाम से सुबह होने को आ जाती है पर चिता आग नहीं पकड़ती। तब मंझा अपने मृतपति रंझा से जो कहती है उस पर एक कुंडलिया छंद।

701. संझा से भई रात है (कुंडलिया)

संझा से  भई  रात है, रातहिं  हुआ प्रभात। 
बार-बार  मैं  बारती, बार-बार  बुझ  जात।
बार-बार  बुझ जात, ठिठोली तुमको सूझे।
मम हियरा की बात, नाथ कबहूँ नहिं बूझे।
बरते   काहे   नाँय,  कहे   मंझा,  रंझा  से।
बार-बार  थक  गई, बलम बारूँ  संझा से।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
23.01.2019
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संझा से - शाम से;  भई - हुई;  बार-बार - बारम्बार;  बारती - जलाती;  जात - जाते हो;  सूझे - सूझ रही है; बूझे - पूछे;  बरते - जलते; काहे - क्यों; नाँय - नहीं; बार-बार - जलाते-जलाते;  बारूँ-जलाऊँ।
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Monday, January 21, 2019

699. चंचल नजरें चंचला (कुंडलिया)

699. चंचल नजरें चंचला (कुंडलिया)

चंचल  नजरें  चंचला, चितवत चारहुँओर।
चुनरी को  लहरा रही, उँगलिन दाबे छोर।
उँगलिन  दाबे छोर, देह जा सुथरी-सुथरी।
ज्यों  कोई  अप्सरा, स्वर्ग से धरती उतरी।
उन्नत उभरे शृंग, और  यह  बेसुध अंचल।
चितवत  चारहुँओर चंचला, नजरें चंचल।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
21.01.2019
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698. पिय नहिं आये लौटकर (कुंडलिया)

698. पिया न आये लौटकर (कुंडलिया)


पिया न आए  लौटकर, पल-पल  देखूँ  राह। 

कंडे-सी  सुलगूँ  जरूँ, हिय  से  उठे  कराह। 

हिय से उठे  कराह, जिया मिलने  को तरसे।

नैनन  बरसे  नीर, लगे  ज्यों   सावन  बरसे।

भोर, दोपहर, साँझ,  रात, नित  आए-जाए। 

पिय बिन पीली भई, लौटकर पिया न आए।

रणवीर सिंह 'अनुपम'

21.01.2019

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Sunday, January 20, 2019

697. सजनी रजनी में खिला (कुंडलिया)

697. सजनी रजनी में खिला (कुंडलिया)

सजनी रजनी में खिला, शशि सा तेरा रूप।
आनन की  आभा  लगे, सूर्यमुखी  पर धूप।
सूर्यमुखी  पर धूप, चित्त को  कौन सँभाले।
भ्रमर चक्षु ने  हार, हिया कर  दिया हवाले।
यौवन अरु लावण्य, और पूनम की रजनी।
तन में  आग लगाय, रूप यह  तेरा सजनी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
20.01.2019
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696. घूँघट पीछे चंद्रमुख (कुंडलिया)

696. घूँघट पीछे चंद्रमुख (कुंडलिया)

घूँघट पीछे  चंद्रमुख, अधरन  बिच मुस्कान।
श्याम चक्षु नीची नजर, एक दिन लेंगे जान।
इक  दिन   लेंगे  जान,  नैन  दोऊ  कजरारे।
उस पर ये रँग-रूप, देख दिल को नहिं हारे।
इधर   नैन   बेचैन, ताकते    हैं  अमृत  घट।
उधर   रूप-मकरंद, अकेले   चाखे   घूँघट।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
20.01.2019
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695. खिला तबस्सुम लब हँसें (कुंडलिया)

695. खिला तबस्सुम लब हँसें (कुंडलिया)

खिला  बस्सुम  लब  हँसें, नयनन  छलके नेह।
जो   देखे  आहें   भरे,  भूल  जाय  निज  गेह।
भूल  जाय  निज  गेह, हुश्न  का  ऐसा जलवा।
खुला छोड़ दो अगर, करा दे  चहुँदिश बलवा।
गुल गुलाब गुलफाम, सभी के सब हैं गुमसुम।
देख रूप लावण्य,अधर बिच खिला तबस्सुम।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
19.01.2019
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Friday, January 18, 2019

694.खिलती तो खिलाकर (मुक्तक)

694.खिलती तो खिलाकर (मुक्तक)

खिलती तो खिलाकर  खुलकर के, खिलने में  कोई दोष नहीं।
मिलती  तो  मिलाकर  हिरदय  से, मिलने  में  कोई  दोष नहीं।
अंतर  के   जख्म   छुपाकर  रख,  मत  खोल  जमाने  के आगे,
सिलना  जो  पड़े  तो  सिल  ले  तू, सिलने  में  कोई  दोष  नहीं।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.01.2019
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Thursday, January 17, 2019

692. जिसके कारण (कुंडलिया)

692. जिसके कारण (कुंडलिया)

जिसके   कारण  होत  है,  नर   तेरी  उत्पत्ति।
जो  जीवन   पिरमेय  की,  होती  है  उपपत्ति।
होती  है  उपपत्ति,  सृष्टि  जिससे   है  चलती।
जिससे  संतति वंश, बेल  मानव की  फलती।
जो सह  दुष्कर  कष्ट, कोख  में करती धारण।
मत कर उसे ज़लील, जन्मता जिसके कारण।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
17.01.2019
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पिरमेय - प्रमेय
ज़लील-अपमानित

Tuesday, January 15, 2019

689. मन के गलियारे में (गजल)

689. मन के गलियारे में

मन के गलियारे में, दिल का ये  दिया लेकर।
हर रोज  जिया करती, बेजान  जिया लेकर।

पिय के  संग पीहर  में, सत्कार  हुआ था यूँ,
जैसे  रघुवर आये, मिथला  से  सिया लेकर।

चूड़ी, कंगन, झुमका, नथनी, पायल, बाली,
जाने क्या-क्या देखो, आये  थे  पिया लेकर।

जब से  यह  सुना  मैंने, मनमीत  पधार  रहे,
चौखट पे खड़ी तब से, हाथों में हिया लेकर।

सनकी की बात न कर, ऐसा भी हुआ आली,
इक रोज रसिक आया, हाथों पे घिया लेकर।

कर्मों के सिवा जग में, किसने है  साथ दिया,
सब जग से जाते हैं, अपना ही  किया लेकर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.01.2019
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12/12  अंत में 
समान्त - इया
पदांत-लेकर

विरहा तन के भीतर, जलता ये' जिया लेकर।
चौखट पे खड़ी हूँ मैं, हाथों में' हिया लेकर।।

पिय के सँग पीहर में, सत्कार हुआ ऐसे,
जैसे रघुवर आये, मिथला से' सिया लेकर।।

चूड़ी, कंगन, झुमका, नथनी, पायल, बाली।
जाने क्या-क्या देखो, आये हैं' पिया लेकर।।

जा तन के रस खातिर, है रसिक पड़ा पीछे,
चहुँओर वो ढूँढ़ रहा, हाथों में' दिया लेकर।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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688. कहे मेढकी बावले (कुंडलिया)

688. कहे मेढकी बावले (कुंडलिया)

एक बार गंगा किनारे पंडित जी प्रवचन दे रहे थे और लोगों को गंगा स्नान का महत्व बता रहा थे। वही एक बंदर भी प्रवचन सुन रहा था। पण्डित जी ने कहा कि जो आने वाले महाकुम्भ के शुभ महूर्त में स्नान करेगा उसके सारे दुख दूर हो जाएंगे। मनुज तो मनुज अगर इस अवसर पर कोई जानवर भी स्नान कर ले तो वह भी मोक्ष को प्राप्त हो जाएगा।

बंदर ने यह बात जाकर बंदरिया को बताई। बंदरिया ने अपनी व्यवहारिक बुद्धि लगाई और समझाया कि अरे कहाँ तुम भी इंसानों की बातों आ गए। ऐसा नहीं होता है। कहीं ठंड-बंड लग गयी और तुम्हें कुछ हो हुआ गया तो मेरा क्या होगा। पर बंदर नहीं माना। वह बंदरिया को अपने संग लेकर सुबह-सुबह ही गंगा तट पर पहुँच गया और बंदरिया से कहा चल महूर्त निकला जा रहा जल्दी से स्नान कर लेते हैं। तब बंदरिया ने कहा मैं तो तुम्हारी धर्मपत्नी हूँ। पहले तुम नहाओ, मैं तुम्हारे बाद में ही नहाऊंगी। बंदर ने उत्साह में कड़कते पानी में 10-12 डुबकियां लगा डाली। अब वह ठण्ड से कंपकंपाने लगा और उसकी हिम्मत जबाब दे गई। फिर वह सिकुड़कर बंदरिया के पास आकर बैठ गया और टकटकी लगाकर उन लोगों को देखने लगा जो मोटे-मोटे शाल और स्वेटर ओढ़े भजन पूजन में लगे हुए थे।

बंदर की मूर्खता देख किनारे पर बैठी मेढकी जोर-जोर से हँसती हुई बोली। अरे बौरे! तू भी धूर्तों की बातों में आ गया। भला गंगा नहाने से मोक्ष मिलता तो मैं तो कब की तर गयी होती। मेरा तो घर ही गंगा जी में है। इसी वार्तालाप पर एक कुंडलिया छंद।

688. कहे मेढकी बावले (कुंडलिया)

कहे    मेढकी   बावले,  काहे   देता   प्रान।
कौन भला जग में तरा, कर गंगा असनान।
कर  गंगा असनान, खुद  नहीं मैं  तर पाई।
माँ  गंगा  के  नाम, लोग  कर  रहे  कमाई।
ओ बौरे  नादान, देख मत  लगा  टकटकी।
असनानों से तरण, हुआ कब  कहे मेढकी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.01.2019
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Monday, January 14, 2019

687. श्रद्धा मुझमें राखिए (कुंडलिया)

एक बार एक पुरोहित ने एक गरीब किसान से कहा था कि अगर वह एक दो गाएं दान कर दे तो उसे उसकी दरिद्रता से मुक्ति मिल जाएगी। उस समय वह बेचारा गरीबी के कारण यह सब न कर सका और बेचारा मन मसोस कर रह गया।

लेकिन उसे भगवान पर पूरा भरोसा था कि वह कभी न कभी उसकी सुधि जरूर लेगा। इसी बीच नई सरकार आयी और उसकी साधना पूरी होने का मार्ग प्रशस्त हुआ। जब गाँवों में चारो ओर गायों की बाढ़ आ गयी तो उसे एक युक्ति सूझी कि अब अच्छा समय है क्यों न 20-25 गायों का दान कर दिया जाय। इसी उद्देश्य से वह अपने पुरोहित के घर गया और कहा कि भगवन जो धर्मकर्म मैं पूर्व में न कर सका उसे करना चाहता हूँ। आपकी इच्छा हो तो मैं जी भरकर दान करना चाहता हूँ। पुरोहित जी बहुत खुश हुए और राजी हो गए। इसी पर पुरोहित और यजमान के वार्तालाप पर एक कुंडलिया छंद।

687. श्रद्धा मुझमें राखिए (कुंडलिया)

श्रद्धा  मुझमें  राखिए, जी  भर  करिये   दान।
स्वर्ण  रजत  धन  संपदा, जो भी  हो श्रीमान।
जो  भी  हो  श्रीमान, हाथ  पर  लाकर धरिये।
हिचिकिचाउ अब नाँय, कार्य शीघ्रतम करिये।
दस बछियां दस ठल्ल, बैल दस, दस हैं वृद्धा।
ये  चालिस  ले  जाउ,  नाथ  इतनी  है  श्रद्धा।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
14.01.2019
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Thursday, January 10, 2019

685. छप्पर पक्खा से कहे (कुंडलिया)

685. छप्पर पक्खा से कहे (कुंडलिया)

छप्पर  पक्खा से  कहे, दृढ़  रहना मम  भ्रात।
किसे  पता  दंगाइये, कब   दिखला  दें  जात।
कब  दिखला  दें  जात, मजहबी  नारे  देकर।
भड़क उठे कब आग, धर्म-जातों  को  लेकर।
पता नहीं  किस घड़ी, जल उठूँ  जैसे  खप्पर।
छोड़  न  देना  साथ,  कहे  पक्खा से  छप्पर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.01.2019
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पक्खा - कच्ची या पक्की ईंटों का खम्भा जिस पर छप्पर या छत टिकी होती है।
खप्पर - मिट्टी के कटोरेनुमा पात्र में आग की लपटों के साथ जलती हुई हवन सामिग्री।

684. जिसके कारण पुरुष (मुक्तक)

684. जिसके कारण पुरुष (मुक्तक)

शबरीमाला मंदिर विवाद, तथाकथित आस्था और आस्थावानों पर एक मुक्तक।

684. जिसके कारण पुरुष (मुक्तक)

जिसके कारण पुरुष कोख में, अपनी देह ढला करता।
जिससे मानव मात्र जन्मता, जिससे वंश फला करता।
उसी शक्ति जग की निर्मात्री, को अपमानित करते हो।
जिससे है उत्पत्ति ईश की, जिससे जगत चला करता।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.01.2019
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683. कहे पतीली निज व्यथा (कुंडलिया)

683. कहे पतीली निज व्यथा (कुंडलिया)

कहे पतीली  निज व्यथा, सदा  रहूँ अधपेट।
पूस  होय  या  जेठ  हो, रखती  उदर समेट।
रखती उदर  समेट, रोज  चमचे  से  लड़ना।
अन्नपूर्णा  हाथ, अंत  में  कुछ  नहिं  पड़ना।
चाहे  बथुआ  साग, बने  या  दाल   रसीली।
पर पूरी नहिं पड़ी, कहे निज व्यथा पतीली।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.01.2019
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Wednesday, January 09, 2019

682. जिसकी रही भावना जैसी (मुक्तक)

682. जिसकी जैसी सोच हृदय में (मुक्तक)

जिसकी जैसी सोच हृदय में, नजर उसे  वैसा आता।
दिल दीवाना वो ही करता, जो इसके मन को भाता।
विलग  नहीं  हो सकता तुझसे, तेरे कहने से जानम।
चैन मिलेगा या बेचैनी, देखें अब  दिल  क्या पाता।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
09.01.2019
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जिसकी जैसी सोच हृदय में, नजर उसे वो आता है।
दिल दीवाना वो ही करता, इसको जो  मन भाता है।
विलग नहीं हो सकता तुझसे, तेरे कहने से  जानम।
चैन  मिलेगा  या  बेचैनी,  देखें  दिल  क्या  पाता हैं।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
09.01.2019
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681. सपनों में प्रिय आना-जाना (मुक्तक)

681. सपनों में यूँ आना-जाना (मुक्तक)

सपनों  में  यूँ  आना-जाना,  मन  में तड़प जगाता है।
अरे सामने आने में प्रिय, तुम्हरा क्या घिस जाता है।
दिल पर किसका जोर चला है, को काबू में रख पाया।
यह तो अपनी-अपनी किस्मत, कौन यहाँ  क्या पाता है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
09.01.2019
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Tuesday, January 08, 2019

680. पंकज मुख रक्तिम अधर (कुंडलिया)

680. पंकज मुख रक्तिम अधर (कुंडलिया)

पंकज  मुख  रक्तिम अधर, गौरवर्ण  यह देह।
श्याम  चक्षु  श्यामल लटें, नैनन  छलके  नेह।
नैनन   छलके   नेह, हिया  ले   रहा   हिलोरें।
कामिन समझ न पाय, कौन विधि बाँधें-छोरें।
रसिक बावले  फिरें, लूटने को  अनुपम सुख।
सृष्टि  दिखे  बेचैन, देखकर यह  पकंज मुख।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.01.2019
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Sunday, January 06, 2019

678. धूर्त भेड़िये खुले घूमते (मुक्तक)

678. धूर्त भेड़िये खुले घूमते (मुक्तक)

धूर्त  भेड़िये  खुले  घूमते, खाल  ओढ़कर  गौओं  की।
और हंस जयकार कर रहे, गिद्ध चील अरु कौओं की।
झरकटियों  को  उचक  सलामी, देते  हैं  सागौन खड़े।
नतमस्तक  हो आज  सवाये, स्तुति  करते  पौओं की।

रणवीर सिंग 'अनुपम
06.01.2919
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गौओं की - गायों की
सवाया - सवा गुना
पौआ - चौथाई

677. बेमतलब की फरमाइश सुन (मुक्तक)

677. बेमतलब की फरमाइश सुन (मुक्तक)

बेमतलब की फरमाइश सुन, कुछ गुस्सा आता  ही है।
यह भी सच है एक परी भर, खून  सूख  जाता  ही है।
पर तेरी कें-कें के कारण, अलग नहीं प्रिय हो सकता।
जीवन  भर  मैं  संग  रहूँगा, कुछ  ऐसा  नाता  ही  है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
06.01.2019
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677. बेमतलब की फरमाइश सुन (मुक्तक)

बेमतलब की  फरमाइश सुन, मन  में  गुस्सा आता है।
यह भी सच है इन बातों पर, खून सूख  प्रिय जाता है।
पर तेरी कें-कें के कारण, अलग नहीं प्रिय हो सकता।
जीवन  भर  मैं   संग  रहूँगा, अपना   ऐसा  नाता  है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
06.01.2019
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676. नहीं छुपाये छुपे आचरण (मुक्तक)

676. नहीं छुपाये  छुपे आचरण (मुक्तक)

नहीं  छुपाये  छुपे  आचरण, अक्सर  बाहर  आता है।
जिसको जो भी खाना होता, वह उसको ही खाता है।
इसमें    कैसी   हैरानी   है,  इसमें   कौन  अचम्भा है।
कुत्तों   गीदड़  और  सियारों, को  जूठन  ही भाता है।

चाटुकार  तो  चारण  होता, स्वामी के  गुण  गाता है।
हाय  मीडिया  क्या मजबूरी, जो तू  गाल  बजाता है।
रोज - रोज    बेढंगी   बहसें,  बेमतलब   की  चर्चाएं।
देख-देख  ये रोज  परी भर, खून सूख  मम जाता है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
06.01.2019
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675. कुकर्मी को सदाचारी (मुक्तक)

675. कुकर्मी को सदाचारी (मुक्तक)

कुकर्मी  को सदाचारी, तुम्हें  कहना तो  कहिए ना।
छिछोड़ों  बत्तमीजों सँग, तुम्हें  रहना तो  रहिए ना।
नहीं  आसान  है  चलना, कभी प्रतिकूल  धारा के।
तुम्हें मुर्दे के माफिक ही, अगर बहना तो बहिए ना।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
05.01.2019
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Saturday, January 05, 2019

672. इंसानों की बात अब (कुंडलिया)

672. इंसानों की बात अब (कुंडलिया)

इंसानों की बात अब, होती कहाँ हुजूर।
राष्ट्रगान जयगान की, चर्चा  है मशहूर।
चर्चा  है मशहूर, गाय गोबर  को लेकर।
टीवी पर  चिल्लाँय, गलियाँ ये दे-देकर।
करें  पैरवी  बैठ, दुष्ट-खल-शैतानों की।
होती कहाँ हुज़ूर, बात अब इंसानों की।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
05.01.2019
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671. कर्तव्यों की बात अब (कुंडलिया)

671. कर्तव्यों की बात अब (कुंडलिया)

कर्तव्यों की  बात अब, सबको  लगे फ़िज़ूल।
हर  कोई  अधिकार  की, चर्चा  में   मशगूल।
चर्चा  में  मशगूल, बात  बस  अपनी  करता।
जो जितना चर पाय, देश को  उतना  चरता।
धूर्तों का गुणगान, बूझ  नहिं  इकलव्यों  की।
छल प्रपंच को शक्ल, मिल गयी कर्तव्यों की।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
05.01.2019
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Friday, January 04, 2019

670. लगाई भीड़ यह किसने (मुक्तक)

670. लगाई भीड़ यह किसने (मुक्तक)

लगाई भीड़ यह किसने, ये मजमा यार किन का है।
रखें  हद  में  इसे अपने, गुरूर -ए- हुश्न जिनका है।
अरे इस चाँद-सी सूरत पे, इतना भी  गुमाँ मत कर।
हमें  मालूम है  जानम, मुलम्मा  चार  दिन  का  है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
04.01.2018
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Tuesday, January 01, 2019

668. क्या कहूँ कितना कहूँ (मुक्तक)

668. क्या कहूँ कितना कहूँ (मुक्तक)

क्या  कहूँ  कितना कहूँ  कैसे कहूँ, कब-कब कहूँ।
चाहता जो  वह  बता  मैं, बात  वो  तब-तब कहूँ।
गर  तुझे  तकलीफ  है  तो, बंद  कर  लेता  जुबां।
क्यों बिदक जाता सनम तू, सत्य मैं जब-जब कहूँ।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
01.01.2019
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667. कोई बालों पे लिखता है (मुक्तक)

667. कोई बालों पे लिखता है (मुक्तक)

कोई होंठों पे लिखता है, कोई  गालों पे लिखता है।
कोई चेहरे पे लिखता है, कोई  बालों पे लिखता है।
यही सब  रोज  लिखते हैं, हजारों  लोग  लिखते हैं।
मगर इक शख्स भी है जो, तेरे छालों पे लिखता है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
31.12.2018
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