शिक्षा की दुर्दशा - ताटंक छंद
16/14 अंत में तीन गुरु (222)
गुरुओं का कद रोज गिर रहा, बात नहीं ये छोटी है।
मोटे वेतन के संग इनकी, अक्ल हो गई मोटी है।
बात करें क्या अंग्रेजी की, हिंदी भी नहिं आती है।
दिन भर रहते राजनीत में, राजनीत ही भाती है।
प्रदेशों के नाम न आते, पता नहीं रजधानी का।
कब कैसे आजाद हुए हैं, कुछ नहिं पता कहानी का।
गिनती और पहाड़े भी नहिं, ठीक से इनको आते हैं।
इनको है मालूम नहीं क्यों, शिक्षक दिवस मनाते हैं?
नेताओं अरु प्रधानों के घर, इनके डेरे होते हैं।
बी.एस.ए. से साठगाँठ कर, मुँह ढककर के सोते हैं।
मिड डे मील में कितना हिस्सा, रोज हिसाब लगाते हैं।
विद्यालय का गैस सिलेंडर, अपने घर ले जाते हैं।
शिक्षा, शिक्षा नहीं रही अब, शिक्षा बिके बजारों में।
बामुश्किल से एक है मिलता, शिक्षक आज हजारों में।
चंद बचे सच्चे गुरुओं को, अपना शीश झुकाता हूँ।
ये ही भारत भाग्य विधाता, गीत इन्हीं के गाता हूँ।
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.