Monday, October 26, 2015

133. मैं जानत दूध-दही कारन

मत्त सवैया (राधेश्यामी छंद)

मैं जानत दूध-दही कारन, नहीं चीर गहो है नटनागर।
चाखन को माखन जो चाहो, दधि भरी धरी है जा गागर।
जानति हूँ तुमरे जिय की मैं, तुम काहे ऐतिक रार करो।
गोरस के मिस जो रस चाहो, सो रस हैं तुमकों नाय धरो।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****
चीर-वस्त्र, गहो-पकड़ा,  जिय-मन, ऐतिक-इतनी, रार-झगड़ा, गोरस- दूध, दही,  मिस-बहाने, रस-इन्द्रियों का रस, नाय-नहीं।

Saturday, October 24, 2015

132. चली है पिय से मिलने आज (आल्हा छंद)

वीर छंद/आल्हा (16/15, अंत में 21)

एक तो उमर अठारह की है,  दूजे रूप दिया करतार।
तीजे है भरपूर जवानी, चौथे सजधज हुई तियार।
शीशफूल जूड़े में साजे, और गले मोतिन का हार।
नाक नथनियाँ, कानन बाली, गजरा मँहके खशबूदार।।

भाल मध्य बिंदी शोभित है, दुगना माथा रही निखार।
रंग बदामी है गालों पर, मुख पर लिए लाज का भार।
सुर्ख गुलाबी होंठ लगे यों, ज्यों खिलने को कली तियार।
नख-शिख सजी कामिनी लागे, जैसे कोई चढ़ा सितार।।

माहवर साजे दोऊ पैरन, टिकुली चन्दा के उनहार।
आठ मुद्रिकायें उँगलिन में, कोनी तक चूड़िन का भार।
नाजुक कमर लेय हिचकोले, जैसे लचक रही हो डार।
पंकज पैर धरति धरनी पर, रुक-रुक चलत कामिनी नार।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

वीर छंद/आल्हा
31मात्रा (16/15), अंत गुरु लघु (21) अनिवार्य

नाक नथनियाँ, हाथन कंगन,
कोनी तक चूड़िन का भार।
नयन झुके हैं, पलकें भारी,
अरु अँखियों पर चढ़ा खुमार।।

गाल गुलाबों सम लगते हैं,
मुखड़ा चंदा के उनहार।
सुर्ख गुलाबी ओंठ लगें ज्यों,
हो खिलने को कली तियार।।

मेंदी साज रही हाथों में,
और गले मोतिन का हार।
इतना सारा बोझ सहन को,
ग्रीवा करती है इनकार।।

रूप, जवानी अरु आभूषण,
ऊपर से सोलह श्रृंगार।
यों सज-धजकर बैठी गोरी,
मोहित करने को संसार।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

131. सरस्वती वंदना (कवित्त)

सरस्वती वंदना (कवित्त)

श्वेत चीर धारणी माँ, श्वेत हंस वाहिनी माँ,
मातु मेरे हृदय को, शांत कर दीजिए।।

सच को मैं सच लिखूँ, दृढ़ता से लिख सकूँ,
लेखनी में मेरी ऐसी, शक्ति भर दीजिए।।

दूर अंधियारा करूँ,  जग में उजारा करूँ,
एक-एक शब्द को माँ, ज्योतिपुंज दीजिए।।

सच मूल मंत्र रहे, लेखनी स्वतन्त्र रहे,
देना है तो मातु मुझे, यही वर दीजिए।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

Thursday, October 22, 2015

130. मुखौटा राम का ओढ़े

मुखौटा राम का ओढ़े, मगर अंतर में' रावन है।
हजारो जल चुके पुतले, हुई धरती न पावन है।
लगा दरवार रहता है, यहाँ नित धर्मगुरुओं का,
घिनौने कृत्य हैं इनके, धरम चर्चा लुभावन है।।

रणवीर सिंह(अनुपम)
*****

129. दशमीं मनाने चले (कवित्त)

दशमीं मनाने चले, रावण जलाने चले,
किन्तु हमें राम यहाँ, एक भी न मिले है।

नारियों पे अत्याचार, बच्चियों को डाले मार,
जरा भी न काँपे मन, हृदय न छिले है।

धर्म के पुजारियों का, इन व्यभिचारियों का,
क्वारियों को भोग-भोग, बूढ़ा मन खिले है।

बीसों राधे घूम रहीं, गाल-मुख चूम रहीं,
करें लाख ओछे कृत्य, पदवी न हिले है।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

Wednesday, October 21, 2015

128. हमारे घाव की पीड़ा

हमारे  घाव   की  पीड़ा, हमीं  को  यार सहने  दो,
न आकर छेड़िये इनको, इन्हें  रिसने दो' बहने दो,
तुम्हारा  खेल   है  सारा,  मुझे  मालूम  है  साहब,
करो अब  बंद  नौटंकी,  इसे  अब  यार रहने दो।।


रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

Sunday, October 18, 2015

125. नाक में नथनियाँ है (कवित्त)

प्रतीक्षा

नाक में नथनियां है, हाँथों सोहे कंगना हैं,
हरी-हरी चूड़ियों की, दिखती बहार है।

नयन झुके हैं नीचें, पलकें भी भारी दीखें,
कारी-कारी अँखियों पे, चढ़ा ज्यों खुमार है।

मुख है कमल सम, ओंठ हैं गुलाब सम,
कदली सी ग्रीवा लागे, मोतियों का हार है।

चढ़ती जवानी अरु, करके श्रृंगार सब,
बैठी सज-धज पिया, जी को इंतजार है।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

124. पूरब से काले घन (कवित्त)

वर्षा ऋतु

पूरब से काले घन, उमड़-घुमड़ चले,
गड-गड़ करत नगाड़े से बजात हैं।

बाल-बालिकाओं का न, पूछो अजी हाल अब,
नर-नारी, पशु-पक्षी, सबको डरात हैं।

काले-भूरे मेघ सब, सावन में मस्त दिखें,
नीर को समेटे उर, फूले न समात हैं।

जैसे हो पुरुष निज, भामिनी को लिपटाये,
चपला को अंक भरे, नेक न लजात हैं।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

123. ईद - आज ऐसी भोर आई (कवित्त)

ईद

आज ऐसी भोर आई, ईद की बहार लाई,
देखो है उमंग छाई, हर एक मन में।

प्रेममधु घोल रही, मस्त होके डोल रही,
झूमें ये पवन देखो, धरा औ गगन में।

रंजो-गम सब जले, हर कोई मिले गले,
यूँ ही ख़ुशी फूले-फले, प्यारे से वतन में।

मिल-जुल सब रहें, दुःख-सुख मिल सहें,
शांति का संदेश फैले, जन-गण-मन में।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

122. मदभरी पुरबाई (कवित्त)

विरहणी

मदभरी पुरबाई, तन लेत अँगड़ाई,
पिउ-पिउ मोर रट, दिल को जरात है।

बरसे बदरिया है, छाई ये अंधरिया है,
तड़पे बिजुरिया है, मन घबरात है।

भीगी लट झूम रही, मुख-ओंठ चूम रही,
सावन की बूंदे सखि, आग कूँ लगात है।

नींद नहीं आये सखि, याद तड़फाये सखि,
पिया बिन सेज मोकूँ, नेकु न सुहात है।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

121. छोटी-छोटी बात को जो (कवित्त)

घटिया सोच

छोटी-छोटी बात को जो, सह नहीं पाते आप, 
काहे के हो धीर वीर, मुझको बताइये।

एक जाति, एक धर्म, एक वर्ण, एक लिंग,
ऐसी ओछी, हीन सोच, मन से भगाइए।

चाहिए अमन खुशहाली इस देश में जो,
आदमी हो आदमी को, गले से लगाइये।

घात-प्रतिघात नहीं, विष बुझी बात नहीं,
जासे बचो खुद और, देश को बचाइये।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

120. बार-बार तुमको मैं करता (कवित्त)

सावधान

बार-बार तुमको मैं, करता हूँ सावधान,
नाजुक ये नन्ही डाल, और न लचाइये।

कुशल, अमन और, देश की फिकर है जो,
शोषितों-गरीबों को न, ऐसे यूँ सताइये।

चाहते बचाना गर, आलीशान महलों को,
कृषकों के खेत और, झोपड़ी बचाइये।

देखना जो चाहते हो, देश को शिखर पे तो,
भारत औ इंडिया का, अंतर मिटाइये।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

119. पैसा हो जो पास में तो (कवित्त)

पैसा

पैसा हो जो पास में तो, करते सम्मान सब,
पैसा ही बनाता खास, पैसे  से ही आम है।

पैसा  से  चमकता है, भामिनी  का रंगरूप,
हँस - हँस  बातें  करे,  करे  सारा  काम  है।

खाली  जेब  देखकर, प्रेमिका  न आये  घर,
रोज  करे  वादे  झूठे,  प्रातः और  शाम  है।

ओछे गीत गायिका से, नंगे अंग नायिका से,
कुछ भी करा लो गर, मुठ्ठी  में जो दाम  है।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

118. आली संग झूल रही (कवित्त)

मनहरण घनाक्षरी

आली संग  झूल रही, गोरी मन  फूल रही,
अमुआ की डाल देखो, लच-लच जात है।

सावन  की  घट  छाई,  तन लेत  अँगड़ाई,
दिल कहे  पिया-पिया, फूली न समात है।

सखि से कहे है गोरी, तू न जाने गति मोरी,
बस  में   बहन  नहीं,  मेरो आज  गात  है।

जल की फुहार आली, करे मोय मतवाली,
तन  में  हमारे  आज,  आग कूँ  लगात है।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****
आली-सखी; मोय-मुझे; गात-शरीर; कूँ-को

117. अँखियों में नेह लिए (कवित्त)

सौंदर्य

अँखियों में नेह लिए, कदली सी देह लिए,
पतली कमर कैसे, मुड़-मुड़ जात है।

काली लट झूम रही, गाल-मुख चूम रही,
झीनी ये चुनर धानी, उड़-उड़ जात है।

रूप औ सिंगार देख, गले बीच हार देख,
प्यारी सखि जर-जर, कुड़-कुड़ जात है।

हृदय में आह लिए, मिलने की चाह लिए,
मेरा दिल टूट-टूट, जुड़-जुड़ जात है।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

116. सावन की ऋतू आई (कवित्त)

यौवन वर्षा

सावन की ऋतु आई, चहुँओर घटा छाई,
जड़ और चेतन पे, छा रही जवानी है।

दूधिया ये देह लिए, अँखियों में नेह लिए,
मुख पर छाई आभा, प्रेम की निशानी है।

चीर में लिपट रही, खुद में सिमट रही,
लगता है सारा जग, मोहने की ठानी है।

गदराया तन तेरा, उभरा जुबन तेरा,
दरिया में मत घुस, आग का लगानी है।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

115. नंदलाल घेरो जब (कवित्त)

नोकझोंक

नंदलाल घेरो जब, राधारानी कहे तब,
माँग-माँग दधि खात, नेकु न लजात हो।

रोज-रोज तंग करौ, काहे मान भंग करौ,
गोपियों पे काहे ऐसे, रौब को जमात हो।

बहियाँ को छोड़ों श्याम, ऐसे न मरोड़ो श्याम,
नाजुक कलाई मेरी, काहे ऐंठे जात हो।

कछु तो लिहाज करो, प्रीत की तो लाज करो,
अपनी सखी को कान्हा, कहे यूँ सतात हो।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

114. दिल में ईमान दिखे (कवित्त)

जीवन चरित्र

दिल में ईमान दिखे, सच को जो सच लिखे,
ऐसा सीधा-साधा जन, सोने से भी खरा है।

जिसका सम्मान गया, धन औ चरित्र गया,
आदमी जहाँ में ऐसा, जीते जी भी मरा है।

छोड़िए जी रंग-रूप, यौवन की ढले धूप,
देह भी न साथ देती, आता जब जरा है। 

भीरु दिन रात डरे, हर पल रोज मरे,
मौत से कभी न सच्चा, शूरवीर डरा है।। 

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

113. मेघ भरी काली रातों में ,

"स्वप्न सुंदरी"
 
मेघ भरी काली रातों में, अनजाना सा पहरा होता।
व्योम ताकते इन नयनों में, अक्सर ख्वाब सुनहरा होता।।
 
आँखें मूँद, भूलना चाहूँ,  फिर क्यों नींद नहीं आती,
करवट बदल-बदलकर यों ही, रोज रात कटती जाती,
बेकल विरह वेदना से ये, अंतर तपता सेहरा होता।।
 
गीत लिखूँ या कोई कविता, उसकी छवि को पाता हूँ,
लिखना चाहूँ विरह गीत पर, प्रेम गीत लिख जाता हूँ।
क्योंकि इन आँखों में उसका, खिला गुलाबी चेहरा होता।।
 
ख्वाबों के उपवन में आकर, कलिका बन खिल जाती है,
जब ये स्वप्न सुंदरी मुझको, सपनों में मिल जाती है।
रात दिवाली हो जाती है, अगला दिवस दशहरा होता।।
 
क्यों मीरा को विष मिलता है, मजनूँ को पत्थर मिलते,
शीरी औ फरहाद सदा क्यों, विरह वेदना में जलते,
प्रेम मार्ग क्यों इतना दुष्कर, क्यों जग गूंगा-बहरा होता।।
 
मर्म भरी अनुराग की' बातेँ, अनुरागी ही जान सके,
मुल्ला-पंडित धर्म के' ज्ञाता, इसको कब पहिचान सके,
प्रेम में' सब कुछ सह जाता जो, वो सागर से गहरा होता।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

Sunday, October 11, 2015

112. जिस दिन जीत जाय (कवित्त)

112. जिस दिन जीत जाय (कवित्त)

जिस  दिन जीत जायें  फिर मुख  न दिखायें,
सुध  लेने  जनता  की,  आते  नहीं  नेता  ये।

कफ़न  खदान  खायें   सड़कें   पहाड़  खायें,
रोटी  साग  दाल-भात,  खाते  नहीं  नेता ये।

जब भी ये  जेल जायें, अपना  बिठाल  जायें,
कुरसी को  छोड़ खाली, जाते  नहीं  नेता ये।

खुद  का  ईमान  बेचें,  देश का  सम्मान  बेचें,
बेचने  से   चैन  कभी,  पाते   नहीं   नेता  ये।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

Sunday, October 04, 2015

111 गुरुओं का कद रोज गिर रहा

शिक्षा की दुर्दशा - ताटंक छंद
16/14  अंत में तीन गुरु (222)

गुरुओं का  कद रोज गिर रहा, बात नहीं ये  छोटी है।
मोटे  वेतन  के  संग  इनकी, अक्ल हो  गई  मोटी है।
बात  करें  क्या  अंग्रेजी  की, हिंदी भी नहिं आती है।
दिन भर  रहते  राजनीत  में, राजनीत  ही  भाती  है।

प्रदेशों  के  नाम  न  आते,  पता  नहीं  रजधानी  का।
कब कैसे आजाद हुए हैं, कुछ नहिं पता कहानी का।
गिनती और  पहाड़े भी नहिं, ठीक से इनको आते हैं।
इनको है मालूम  नहीं क्यों, शिक्षक  दिवस मनाते हैं?

नेताओं  अरु  प्रधानों  के  घर,  इनके  डेरे   होते  हैं।
बी.एस.ए. से साठगाँठ कर, मुँह ढककर के सोते हैं।
मिड डे मील में कितना हिस्सा, रोज हिसाब लगाते हैं।
विद्यालय  का  गैस  सिलेंडर, अपने घर  ले जाते  हैं।

शिक्षा, शिक्षा  नहीं रही अब, शिक्षा बिके  बजारों में।
बामुश्किल से एक है मिलता, शिक्षक आज हजारों में।
चंद बचे  सच्चे  गुरुओं को, अपना  शीश  झुकाता हूँ।
ये  ही  भारत  भाग्य विधाता,  गीत इन्हीं  के गाता हूँ।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

110. दृढ़ता से सच कहे (कवित्त)

घनाक्षरी

दृढ़ता से सच कहे, कह के जो टिका रहे,
ऐसा ही सपूत माँ के, मान को बढ़ात है।

मौत से न भय खाये, शत्रु देख भाग जाये,
ऐसा वीर सैकड़ों पे, भारी पड़ जात है।

शेरनी का लाल है ये, रिपुओं का काल है ये,
हिन्द का जवान सौ-सौ, मार के गिरात है।

हर बाधा तोड़ दे जो, वक्त को भी मोड़ दे जो,
वो ही इतिहास यहाँ, रच के दिखात है।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

109. डर  लगता पहरेदारों से (मुक्तक)

कब डरता  नाविक  तूफां से, कब डरता ये मझधारों  से।
सच्चा जो पथिक हुआ  करता, वो डरता है कब खारों से।
दुश्मन  से  आज नहीं  है  डर, डर आस्तीन के साँपों  से।
डर  चोर,  ठगों से नहिं  लगता, डर  लगता पहरेदारों से।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

108 श्वेत चीर  धारणी माँ (कवित्त)

कुछ  घनाक्षरी

सरस्वती  वंदना (कवित्त)

श्वेत चीर धारणी माँ, श्वेत हंस वाहिनी माँ,
मातु मेरे हृदय को, श्वेत कर दीजिए।।

दूर अँधियारा करूँ, जग में उजारा करूँ,
एक-एक शब्द में माँ, ज्योति भर दीजिए।।

सच को मैं सच लिखूँ,  दृढ़ता से लिख सकूँ,
लेखनी में मेरी ऐसी, धार धर दीजिए।।

सच मूल मंत्र रहे, लेखनी स्वतन्त्र रहे,
देना है तो मातु मुझे, यही वर दीजिए।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

107 लूट कर दिल ले गई है

लूटकर,  दिल ले गई है, मुस्कराहट आपकी।
कर गयी बेहाल मुझको, मुस्कराहट आपकी।।

कुछ नहीं है याद तब से, भेंट जब से है हुई,
होश सारा ले गई है, मुस्कराहट आपकी।।

आपकी बातों में पड़ना, चाहता था ही नहीं,
किन्तु दिल को भा गई है, मुस्कराहट आपकी।।

कौन सी खूबी दिखी इस, सिरफिरे में ये बता,
दे रही है जो निमंत्रण, मुस्कराहट आपकी।।

आज तक खुद्दारियों पर, जो बड़ा मगरूर था,
कर गई लाचार उसको, मुस्कराहट आपकी।।

सच कहूँ तो यार हम तो, बिक गए बेदाम के,
और क्रय जिसने किया वो, मुस्कराहट आपकी।

काम जो तलवार तीरों, से हुआ अब तक नहीं,
कर गई वो काम सारे, मुस्कराहट आपकी।।

आपकी मदहोश नज़रें, हैं क़यामत ढा रहीं,
मोहनी बन छा गई है, मुस्कराहट आपकी।।

सौंप डाला आज खुद को, यार तेरे हाथ में,
अब जियाये या मराये, मुस्कराहट आपकी।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

106. जब से है देखा तुझे (कवित्त)


जब से है देखा तुझे, तब से न होश मुझे,       
समझा रहे हैं लोग, दवा-दारू लीजिये।।

कितने गुजारे साल, अब तो बुरा है हाल,
कुछ तो रहम करो, कुछ तो पसीजिये।।

मिलो तो सुकून मिले, मन का प्रसून खिले,
मुरझा हुआ है दिल, कुछ ख्याल कीजिये।।

मन में उछाल वही, अब भी सवाल वही, 
चाह तेरे हाथ की है, लीजिये या दीजिये।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

105 "पता तुमको चलेगा तब"

मापनी-1222   1222    1222   1222

रहोगे साथ में कुछ दिन, पता तुमको चलेगा तब।
हमारा कद कहाँ तक है, पता तुमको चलेगा तब।।

हमारी अहमियत है क्या, तुम्हें मालूम ना लोगो,
चला जाऊँगा' दुनियाँ से, पता तुमको चलेगा तब।।

बड़ी मगरूर रहती हो, पुते चहरे के' ऊपर तुम,
हटाकर देखिए मेकप, पता तुमको चलेगा तब।।

अदाएं चीज क्या होतीं, किसे सौन्दर्य कहते हैं,
मिलोगो यार से मेरे, पता तुमको चलेगा तब।।

नहीं है मतलबी दुनियाँ, न मतलब के सभी साथी।
मिलेगा आदमी मुझसा, पता तुमको चलेगा तब।।

अभी ईमान भी जीवित, अभी ईमानदारी भी,
मिलो इक बार मुझसे तो, पता तुमको चलेगा तब॥

गुमां ये श्रेष्ठता का तुम, सदा को भूल जाओगे,
पड़ेगा हम से' जब पाला, पता तुमको चलेगा तब।।

तुम्हीं हो सिर्फ काबिल ये, नजरिया हम बदल देंगे,
घड़ी भर जो मिलो हमसे, पता तुमको चलेगा तब॥

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

104. तुमने न भूख देखी

तुमने न भूख  देखी, देखा न  बेकली  को,
देखा कभी न मेरी, जीवन की' बेबसी को,
नारे न  तुम लगाओ, हमको न यूँ बनाओ,
देखा करीब से है, हमने भी' ज़िन्दगी को।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

103. डिजिटल अपना भारत होगा

डिजिटल अपना भारत होगा, यह सुन मन हर्षाता है।
लेकिन इन कोरे नारों  से, भोजन  उदर  न  पाता  है।
कारें,   टीवी,  कम्प्यूटर  से,   कैसे  भूख  मिटाओगे।
कौन बटन रोटी का  इसमें,  आकर  हमें  बताओगे।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****

102 तेरी आँख का गर इशारा न होता

मापनी-122   122    122    122

ते'री आँख का जो इशारा न होता।
हमें ये जहाँ फिर गवारा न होता।।

मे'रे आँसुओं की ही' तासीर है ये,
नहीं तो समुन्दर ये' खारा न होता।।

अगर हम से' आशिक न होते यहाँ पर,
हसीनों तुम्हारा गुजारा न होता।।

किसे देखती आँख मल-मल के' दुनियाँ?
अगर तुमको' हमने निखारा न होता।।

हमीं से तुम्हारे जहाँ में है' रौनक,
हमारे बिना ये नज़ारा न होता।।

कयामत धरा पर कभी यूं न आती,
अगर हुश्न को यूँ सँवारा न होता।

अरे नासमझ डूबना चाहता क्यों?
मुहब्बत में कोई किनारा न होता।।

यहाँ चाक दिल खुद ही' सिलना पड़ेगा,
सिवा इसके कोई भी' चारा न होता।।

ते'री बात 'अनुपम' अगर मान लेता,
हुआ हादसा फिर दुवारा न होता।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
*****