492. इक दिन एक कुम्हार (रोला छंद)
इक दिन एक कुम्हार कहा ईश्वर से जाकर।
निज कृतियों की दशा देखिए तो प्रभु आकर।
आँख बंदकर रोज रचे जाते हो जिनको।
मानवता से नहीं रहा कुछ मतलब इनको।
विश्व रचयिता रोज बनाते लाखों सूरत।
किन्तु ठीक से गढ़ो बनाओ जो भी मूरत।
मैं हूँ छोटा किन्तु काम आता है मुझको।
हरदम ठोंक - बजाय ठीक से रचता तुमको।
नाथ लाज आ रही तुम्हारे इन पुतलों पर।
अत्याचारी दुष्ट जुल्म करते निबलों पर।
तुम्हरे पुतले धर्म-जाति पर निशदिन लड़ते।
और रोज आ मम पुतलों के चरण पकड़ते।
रणवीर सिंह 'अनुपम
22.01.2018
*****
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.