462. ईख की व्यथा
एक बार ईख ने नारायण के पास जाकर शिकायत की कि मेरे शरीर को पत्तों से ढक देने के कारण, लोग आते हैं और पत्ते हटा-हटाकर मेरे शरीर को छूते हैं और उसे उघार-उघार देखते हैं। इस सबसे मुझे बहुत मानसिक पीड़ा होती है। अतः आपसे प्रार्थना है कि मेरी देह से इन सूखे पत्तों को हटा दीजिये। इससे हमें भी आसानी होगी और लोगों को भी मनपसंद गन्ने छाँटने में सुविधा होगी। उन्हें हर एक गन्ने को नंगा कर-कर नहीं देखना पड़ेगा। इसी घटना को छंदबद्ध किया है।
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नारायण ढिग जाय ईख ने करी शिकायत।
पुरुषों का मन देख मुझे रहता लालायित।
तन से पात हटाँय पलटते हो ज्यों पन्ने।
सुंदर - सुंदर छाँट - छाँट ले जाते गन्ने।
नाथ बड़ी हूँ तंग आदमी की इस लत से।
बाज़ न आता कभी पुरुष ओछी हरकत से।
जब भी कोई छुअत लाज से मर-मर जाती।
सभी दुखों की खान देह से चिपटी पाती।
नरक हो गया नाथ हमारा तो यह जीवन।
क्या लाभ इस तरह झाँपकर ये तन-यौवन।
मनुज हटाकर पात जिस्म ढूँढें गदराया।
नंगा तन कर जाय अगर मन को नहिं भाया।
रोज-रोज अपमान कराकर घिन है आती।
प्रभु जी माँग हमार हटा दो तन से पाती।
खुली देह के साथ मिटेगी मन से दुविधा।
लोगों को भी नाथ होय छाँटन में सुविधा।
लक्ष्मी जी ने कहा, नाथ लेते क्यों पंगा।
नग्न होन खुद चाह करत काहे नहीं नंगा।
ईश कहा समझाय आवरण बहुत जरूरी।
इसीलिए नहिं करी कामना अब तक पूरी।
फिर प्रभु बेमन कहा चाहती वह हूँ देता।
तन से सारे पात अभी से वापस लेता।
पा इच्छित वरदान, ईख मन में हरषाई।
हो प्रसन्न, संतुष्टि, लौट घर वापस आई।
बिना पात की देह देख इच्छा जग जाती।
सुघर सलौना रूप देख तबियत ललचाती।
अब यह होने लगा, जिसे भी जो मन भाये।
घूरे तके निहारे तोड़े घर ले जाये।
मन में सोचे ईख अरे यह गजब हो गया।
जो भी था सम्मान एक सँग सभी खो गया।
नष्ट-भ्रष्ट इस तरह एक दिन हो जाऊँगी।
जो भी इज्जत बची उसे भी खो जाऊँगी।
फिर दोऊ कर जोड़ ईख ईश्वर से बोली।
मुझको कर दो माफ नाथ मैं हूँ अति भोली।
लज्जित हूँ भगवान रूप लेकर मैं ऐसा।
नाथ हमें कर देउ आप फिर पहले जैसा।
फिर ईश्वर ने पुनः कर दिया पहले सा तन।
हर प्राणी का, खास गुणों से भरा है जीवन।
कुदरत ने जो दिया उसे स्वीकार करो तुम।
हीन भावना त्याग स्वयं से प्यार करो तुम।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.12.2017
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