Sunday, December 30, 2018

664. प्रेम की फसल को (घनाक्षरी)

664. प्रेम की फसल को (घनाक्षरी)

प्रेम की फसल  को  उगाने  हित साथी मेरे,
दिल की जमीन को मैं, गोड़-गाड़ आया हूँ।

सबसे  है बैर  लिया, तेरे  लिए  मेरी प्रिया,
जाति-धर्म  बंधनों को, तोड़-ताड़ आया हूँ।

तुझको क्या लगता है, ऐसे जग  मान गया,
कितनों के हाथ-मुँह, फोड़-फाड़  आया हूँ।

अब तो लगा ले गले, मुझको ओ मेरी जान!
तेरे   लिए   घर-द्वार, छोड़-छाड़  आया  हूँ।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
30.12.2018
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Saturday, December 15, 2018

658. गरीबी भूख बेकारी (मुक्तक)

658. गरीबी भूख बेकारी (मुक्तक)

गरीबी  भूख  बेकारी  के  मसलों  पर  लिखे  अब को।
सभी व्यापार में गाफ़िल तो फसलों पर लिखे अब को।
उदर  खाली  फटी  बनियान  ठिठुरें आसमां  नीचे।
बुझे  चूल्हे  पतीली  मौन  तसलों  पर  लिखे  अब को।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.12.2018
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Sunday, December 09, 2018

657. भूख भय शिक्षा गरीबी (मुक्तक)

657. भूख भय शिक्षा गरीबी (मुक्तक)

भूख भय  शिक्षा  गरीबी, धर्म  के  सँग  बह  गये।
खत्म हर  मसला हुआ बस, गाय-मंदिर  रह गये।
आजकल  हनुमान जी  भी, हो गए शोषित दलित।
हम सभी से  सत्य यह, आदित्य  योगी  कह गये।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
09.12.2018
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Saturday, December 08, 2018

656. अर्जुन प्रण हो या दसरथ (मुक्तक)

656. अर्जुन प्रण हो या दसरथ (मुक्तक)

656. अर्जुन प्रण हो या दसरथ (मुक्तक)

छः दिसंबर के बाद, आज एक बात समझ में आई कि बड़े पदों पर आसीन व्यक्तियों को बड़ी बात बहुत सोच-विचारकर करनी चाहिए। खासकर तब, जब कोई प्रण लेने जा रहे हों। क्योंकि "प्राण जाँय पर वचन न जाही" को निभाना सबके बूते की बात नहीं।

अर्जुन प्रण हो या दसरथ प्रण, प्रण साधारण बात नहीं।
सोच समझकर बात किया कर, बात सिर्फ है बात नहीं।
उतनी ही  थूका-थाकी  कर, जितने  को  तू  चाट सके।
प्राण जाँय पर वचन न जाए, सब में  यह औकात नहीं।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.12.2018
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655. काहे के धर्माधिकारी आप हैं (मुक्तक)

655. काहे के धर्माधिकारी आप हैं (मुक्तक)

काहे  के  धर्माधिकारी  आप   हैं,  एक  भी  आदर्श  जो  नहिं गढ़ सके।
वेद पाठन यह भला  किस  काम का, वेदना इंसान की  नहिं पढ़ सके।
आस्तीनों  को  चढ़ा  छाती  फुला, खुद  को अल्ला  राम जो कहते फिरें।
आदमी वे आदमी की राह पर, दो कदम भी आज तक नहिं बढ़ सके।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.12.2018
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Monday, November 26, 2018

654. बंद उर के इन पटों को (मुक्तक)

654. बंद उर के इन पटों को (मुक्तक)

बंद उर  के इन पटों को  खटखटाता कौन है?
बेहताशा   हसरतें  मन   में  जगाता  कौन है?
कौन है जो बिन बुलाए आ धमकता द्वार पर?
नित नये सपने दिखाकर लौट जाता कौन है?

रणवीर सिंह 'अनुपम'
26.11.2018
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Sunday, November 25, 2018

653. गरीबी भूख भय के इन (मुक्तक)

653. गरीबी भूख भय के इन (मुक्तक)

गरीबी  भूख भय  के  इन सवालों पर लिखेगा  कौन।
किसानों  वंचितों शोषित के छालों पर लिखेगा कौन।
सभी मंदिर व मस्जिद की सियासत पर लिखेंगे तो,
उदर की आग की खातिर निबालों पर  लिखेगा कौन।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.11.2018
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Wednesday, November 21, 2018

649. आदमी की खाल ओढ़े (मुक्तक)

649. आदमी की खाल ओढ़े (मुक्तक)

आदमी  की  खाल ओढ़े, भेड़िए अब  आ  गए।
गाँव, कस्बों, देश भर में, हर जगह  ये  छा  गए।
है समय खुद को बचा लो, नरपिशाचों से अभी।
फिर  न कहना  ये हमारे, अस्थिपंजर खा    गए।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
21.11.2018
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Sunday, November 18, 2018

646. ख्वाब तेरे प्यार के (गजल)

646. ख्वाब तेरे प्यार के (गजल)

ख्वाब   तेरे   प्यार  के   पलते  रहे।
शाम  से  सुबह  तलक  छलते  रहे।

आप जब भी ले गए मुझको जिधर,
थामकर  उँगली   उधर  चलते  रहे।

जब समर्पण कर दिया तो उज़्र क्यों,
जैसा   ढाला   आपने   ढलते   रहे।

सामने   तेरे    प्रिये   निःसहाय   से,
बैठकर  बस   हाथ  ही  मलते  रहे।

ऐ  शमा  तू तो  जली  बस  रातभर,
हम  तो  सारी  उम्र  ही  जलते  रहे।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.11.2018
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645. चलती तो सलीके से चल तू (मुक्तक)

645. चलती तो सलीके से चल तू (मुक्तक)

चलती  तो  सलीके से चल  तू,  काहे  चहुँओर  करे फटफट।
कछुए की चाल भली न सदा, कछु काम किया कर तू झटपट।
हर वक्त  उलाहना  ठीक नहीं, दिन-रात  किया कर ना पटपट।
तब लौं चुपचाप न  रहियै तू, जब  लौं हुइ जैहै ना खटपट।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.11.2018
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Saturday, November 17, 2018

644. हाय तुम यह हाथ (गजल)

644. हाय तुम यह हाथ (गजल)

हाय  तुम  यह  हाथ  किसका  गह  गए।
ख़्वाब सब  टीलों के  माफिक  ढह  गए।

कौन   कहता  है   तड़फ   में   है   मजा,
जो   कहे   वो   झूठ   सारा   कह   गए।

कैसे   कह   दूँ    आप   से   नाराज   हूँ,
रंजो-गम  जब  अश्रु  बनकर   बह  गए।

पेड़   से   लिपटी   लता   को   देखकर,
कसमसाकर  हर  तड़फ  को  सह  गए।

लव पे रुख पर गाल पर किस पर लिखूँ,
देखते   अरु    सोचते   हम    रह    गए।

रणवीर सिंह
*****
17.11.2018

644. रेत के टीलों की तरह (गजल)

रेत   के   टीलों   के  माफिक   ढह   गए।
गहते - गहते   हाथ   किसका  गह   गए।

कौन   कहता   है   तड़फ   में    है   मजा,
कहने    वाले    झूठ    काहे    कह   गए।

कैसे   कह    दूँ    आप    से   नाराज   हूँ,
रंजो-गम   जब  अश्रु   बनकर   बह  गए।

पेड़   से    लिपटी    लता   को   देखकर,
कसमसाकर  हर  तड़फ   को  सह  गए।

लव पे रुख पर  गाल पर  किस पर लिखूँ,
देखते    अरु    सोचते    हम    रह    गए।

रणवीर सिंह
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17.11.2018

 

643. इस तरह मेरी वफ़ा (मुक्तक)

643. इस तरह मेरी वफ़ा (मुक्तक)

इस तरह मेरी वफ़ा  मत तोलिए।
खोलिए अपने लबों को खोलिए।
आपकी यह बेरुखी अच्छी नहीं।
बोलिये जानम अरे कुछ बोलिए।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
17.11.2018
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642. चुनरी पिय के प्रेम की (कुंडलिया)

642. चुनरी पिय के प्रेम की (कुंडलिया)

चुनरी पिय  के प्रेम की, जब से  लई  सजाय।
रंग-रूप  निखरा  सखी, नयना  रहे  लजाय।
नयना  रहे   लजाय,  हिया  ले   रहा  हिलोरें।
मन है  वश  में  नाँय, कौन  विधि  बाँधें-छोरें।खिला अंग-प्रत्यंग, सत्य यह  आली  सुन री।
जगा आत्मविश्वास, ओढ़कर पिय की चुनरी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
17.11.2018
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641. लिव-इन वाले आजकल (कुंडलिया)

641. लिव-इन वाले आजकल (कुंडलिया)

लिव - इन  वाले आजकल, लूट  रहे आनंद।
रोज   नई   इक   देह   में,   ढूँढ़ें   परमानंद।
ढूँढ़ें   परमानंद,   खोज   को  रखते   जारी।
हैं  दायित्व-विहीन,  नहीं   कुछ  जिम्मेदारी।
यहाँ - वहाँ  मुँह  मार, मजे  करते  मतवाले।
सच में यही स्वतंत्र, रिलेशन लिव-इन वाले।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
17.11.2018
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Sunday, November 11, 2018

637. मुखड़ा पंकज-सा (कुंडलिया)

637. मुखड़ा पंकज-सा (कुंडलिया)

मुखड़ा पंकज-सा  खिला, भौहें  लगे  कटार।
अधर गुलाबी  अधखिले, नैनन  चढ़ा  खुमार।
नैनन  चढ़ा   खुमार, कपोलों  पर   है  लाली।
यौवन   भरे  उछाल,  चक्षु    मूँदे    मतवाली।
कामी व्याकुल फिरें,कहें अब किससे दुखड़ा।
ऋषियों का तप भंग, करे यह पंकज मुखड़ा।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.11.2018
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636. ऊपर वाला कर रहा (कुंडलिया)

636. ऊपर वाला कर रहा (कुंडलिया)

भारत की जनता की सामाजिक और आर्थिक स्थिति एक के ऊपर एक, बैठे हुए तीन मेढकों के समान है।

ऊपर वाला  कर  रहा,  टर्रम - टर्रम  टर्र।
और  बीच  वाला  कहे,  नीचे  वाला मर्र।
नीचे वाला मर्र, कहे यह  हँसकर मध्यम। 
में हूँ बेपरवाह, खुशी है ना  मुझको  गम।
ऊँचनीच का जाल, बुना है बड़ा निराला।
करता  टर्रम  टर्र, मजे  से  ऊपर  वाला।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.11.2018
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Saturday, November 10, 2018

634. छोड़ो जहां की फिक्र को (गजल)

634. छोड़ो जहां की फिक्र को (गजल)

छोड़ो  जहां  की  फिक्र को, मत चैन खोइए।
होता   है    होने   दीजिए,  चुपचाप   सोइए।

ऐसा अदब किस काम का, गर्दन न उठ सके,
बौनों  के  घर  पे  जाय  के,  बौने  न  होइए।

इंसान  हो   इंसान  से,  इतना  भी  बैर  क्या,
इंसानियत  की   राह   में,  कांटें   न   बोइए।

नफरत से बोलो आज तक, किसका भला हुआ,
नफरत का इतना बोझ मत, इस दिल पे ढोइए।

हर कौम ने  इस  देश  को, दी  हैं  जवानियाँ,
साहब  किसी  भी कौम पर, इतना न  रोइए।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.11.2018
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633. धर्मांतरण (लेख)

633. धर्मांतरण

कल मेरे एक मित्र ने फोन पर कहा कि "भाई आजकल का माहौल देखकर, मैंने धर्म परिवर्तन की सोची है"। तो मैंने कहा भाई मैं इसमें क्या कर सकता हूँ। वह बोला "तुम्हें कुछ नहीं करना। मैंने तुम्हें यह बताने के लिए फोन किया कि मैं हिंदू बनना चाहता हूँ"। मैंने कहा तो इसमें समस्या क्या है? इस कार्य में जो लोग लगे हुए हैं, उनसे मिल लो।

उसने कहा "समस्या मुझे नहीं, समस्या उन्हें है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा वे मुझे किस वर्ण में रखें। मेरी माँग है कि मुझे सर्वोच्च वर्ण दिया जाय"।

मैंने कहा यह कैसे हो सकता? अभी तुम हिन्दू धर्म में घुस भी नहीं पाए और वर्ण चाहिए सर्वोच्च। अरे भाई यहां लोग हजारों वर्ष से सामाजिक समानता के लिए रिरिया रहे हैं। बेचारों की पीढियां की पीढ़ियां खप गयीं फिर भी अगले वर्ण में प्रमोशन नहीं हो पाया, और तुम हो कि आते ही सर्वोच्च वर्ण चाहिए।

इस पर वह बोला "क्यों नहीं हो सकता जब एक बाहरी सांसद को दूसरी पार्टी में शामिल होते ही मंत्री पद मिल जाता है, तो मुझे हिन्दू धर्म में शामिल होने पर सर्वोच्च वर्ण क्यों नहीं मिल सकता?

इसके बाद मुझे कुछ सूझा नहीं तो फोन काटना ही ठीक समझा। 

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.11.2018
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632. बदलाव का दौर

632. बदलाव का दौर

मेरी पत्नी को मेरी कुछ चीजों से जैसे भाषा, भोजन, कपड़े, मितव्ययता आदि से बड़ी शिकायत रहती है। वे अक्सर कहती रहतीं हैं कि क्या रोज-रोज वही तीन जोड़ी पेन्ट कमीज बदल-बदलकर पहनते रहते हो। कभी तड़कते-भड़कते जीन्स-टीशर्ट भी पहन लिया करो। अरे अपने आसपास की दुनिया पर भी नजर डाला करो। पिछले दो, तीन साल में कितनी बदल गयी है। तुम भी कुछ अपने आप को बदलो। वैसे भी आजकल तो बदलने का मौसम चल रहा है। कुछ न कुछ रोज बदल रहा है।

अचानक कल पता नहीं उन्हें क्या सूझी, मेरे नाम के पीछे पड़ गईं और कहने लगी कुछ नहीं तो, नाम तो नए जमाने का रख लेते।
कहाँ इसमें इंग, सिंह लगाए घूम रहे हो। न इसे कोई जानता न कोई पहिचानता। ऊपर से झगड़ालू प्रवृत्ति का बोध होता, सो अलग। इसे बदलकर कोई बड़ा सा नाम क्यों नहीं रख लेते। अरे तुम्हारे नाम बदलने में कौन सौ, दो करोड़ का खर्च आएगा।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.11.2018
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631. कृषक की व्यथा

631. कृषक की व्यथा

गोदान पर आधारित यह रचना।

भुखमरी या फिर गरीबी से दबा,
दास्तां ये देश के हर गाँव की ,
पुलिस, पटवारी, महाजन से घिरा,
सूदखोरी से ग्रषित घर-गाँव की ॥

है जवानी में बुढ़ापे को लिए,
भूखी आंते और नंगे पाँव की ,
ठंड निष्ठुर या दुपहरी जेठ की ,
नीम या पीपल की शीतल छाँव की ॥

भोली कोयल की मधुर धुन कीजगह,
है कुटिल कौवे की काँव-काँव की,
बाढ़, सूखा, आपदाओं में फँसे,
बेवशों पर शातिरों के दाँव की ॥

'रज्जो' से, सानी लगा ‘हरिया' कहे,
रतनूं को तूं भेज देना खेत में,
जानें कबलहुं ईख गुड़ पाएगी जा,
सिगरी मेहनत मिल न जाए रेत में॥

'रज्जो' से चिल्लाया 'हरिया' फिर कहा,
लाठी ला काहे को करती देर तूं,
फिर से कछु खाने के चक्कर में तेरे,
करवा देगी आज फिर अबेर तूं॥

वासी मुँह घर से निकलना ठीक न,
कछु नहीं तो मुँह जुठारे जाइए,
घर से खाकर निकरो तो सब ठौर है,
वासी, सिगरे दिन न कछुहै पाइए॥

लाठी दे, तू समय को समझेगी न,
काहे को टाँगें अड़ाती काम में,
इन बड़न से मिलन का प्रसाद है,
जो सलामत हैं बचे जा गाम में॥

बेदखल कितने हुए अब तक यहाँ,
बात तू तो रज्जो है सब जानती,
मालिकों की चापलूसी में भला,
सीधी सी ये बात क्यों न मानती॥

सच कही, ये ही तो मालिक हैं मेरे,
रात-दिन जो जोंक जैसे चूँसते,
खुद का अटका काम तो घर आ गए,
वैसे आकर ये कभी कुछ पूँछते॥

उनको इससे लेना देना, कछु नहीं,
आ गई कब बाढ़, कब सूखा पड़ा,
तोंद हो उनकी भरी, फिर का फिकर,
कौन है कब से यहाँ, भूखा पड़ा॥

हमसे अच्छे वे, मजूरी जो करें,
हानि का न डर, लगानों की फिकर,
दिवस गुजरा, शाम को पैसे मिले,
शौक से निश्चिंत होकर जाते घर॥

कब लौं खेती के लिए मरते रहें,
देखो जोवन में बुढ़ापो आ गयो,
पेट भर दो जून न हम खा सके,
ये किसानी कर्म, हमको खा गयो॥

गर्दन पर जो पैर हो, सहलाइए,
ये कहावत तो बड़ी मशहूर है,
रोज समझाने पे तूँ समझे नहीं,
समझदारी तुझसे कोसों दूर है॥

हारकर मिरजई, पगड़ी और लाठी,
सामने जूते, तमाखू रख गई,
रज्जो सुन! ससुराल थोड़ी जा रहा,
पाँचो पोशाकों को जो तूँ रख गई॥

और फिर ससुराल में साली भी न,
शान से जिसको दिखाऊँ जाय सब,
चुप रहो ज्यादा सजीले मत बनो,
बूढ़े पे कोई मरन की नाय अब॥

काहे को कोई बिगाड़े धर्म को ,
बूढ़े, पिचके गाल, खाली जेब पर,
यौवन, धन, सम्मान, एकउ गुण नहीं,
कोई क्यों रीझेगी ऐसे भेष पर॥

चालिस पर काहे को बूढ़ा हो चला,
साठे पे भी पाठे लगता मर्द है,
वर्षों से दर्पण लगत देखो नहीं,
झुर्रियां, आँखें धसीं, मुख जर्द है॥

खाने को दो बार मिलता है नहीं,
उस पर खुद को साठे-पाठे कर रहे,
दूध-घी, अंजन लगाने को नहीं,
बूढ़े बंदर सी कुलाचें भर रहे॥

हार कर हरिया लगा ये सोचने,
नारियों के मुँह से जीता है कोई,
लेकिन कुछ तो खास इन नारिन में है,
कोई मरता और जीता है कोई॥

सहसा हरिया जा धरातल पे गिरा,
ज्यों गिरी हो बूंद तपती रेत पर,
साठ का होने का रज्जो मैं कहाँ ?
चल दिया आगे को लाठी टेककर॥

हरिया के शब्दों में सच की झलक को ,
देखकर रज्जो का दिल कम्पित हुआ,
जीवन के सागर में पति पतवार है,
मृदुल मन पत्नी का फिर शंकित हुआ॥

वर्षों से हरिया के दिल में स्वप्न था,
एक सुन्दर गाय होती द्वार पर,
लालसा पूरी न अब तक हो सकी ,
इच्छा रह जाती अधूरी हार कर॥

देखकर खेतों में गन्ने की फसल,
कृषक मन हरिया का हर्षाने लगा,
लालसा पूरी करूँगा गाय की,
मन ही मन में खुद को बहिलाने लगा॥

बंगला, कोठी, मोटरगाड़ी की तमन्ना,
छोटे से दिल में समा सकती नहीं,
ये जरूरत सेठ, साहूकार की ,
कृषक मन को यह लुभा सकती नहीं॥

जेठ की प्रबल तपन फैली हुई,
लूह के लगते थपेड़े गाल पर,
सारे मिलकर, रोकते हरिया को हैं,
पर फर्क न पड़ रहा था, चाल पर॥

धूप में नंगे बदन तपते हुए,
खेतों में कृषक मगर तल्लीन थे,
पोंछते जाते पसीना बदन का ,
गाल पिचके और मुख श्रीहीन थे॥

डालियां आमों की थी नीचे झुकी ,
और बौराये हुए जामुन खड़े,
जौं, चना, गेहूँ की फसलें कट चुकी,
ज्यादातर अब खेत थे खाली पड़े॥

प्रेम से, आदर से, अरु सत्कार से,
हरिया को देते निमंत्रण हैं सभी,
चिलम पीके चले जाना, तनिक ठहरो,
हँसकर हरिया सबको कहता, न अभी॥

द्वार पे पहुंचा जो साहूकार के,
सामने ही भेंट उससे हो गई,
कड़ककर हरिया से बोला ये क्या,
दो बरस से एक पाई न दई॥

कितने वादे हरिया तूनें कर लिए,
का धरम से डर तुझे लगता नहीं,
झूठे-सच्चे सौ बहाने कर लिए,
देने का मन क्यों तेरा करता नहीं॥

इस बरस तो ईख अच्छी लग रही,
मूल न दो, सूद ही हरिया भरो,
दो बरस से सूद दुगना हो गया,
तुम चुकाने के लिए कुछ तो करो॥

बहुत मोहलत दे चुका हूँ, अब तलक,
हरिया मुझको सारा पैसा चाहिए,
अब भरोसा मुझको तुझ पर है नहीं,
सूद के बदले में गन्ना चाहिए॥

आपकी जूती के नीचे सिर मेरा,
रहम करिए या कुचल दो पाँव से,
आपकी मर्जी के आगे क्या कहूँ,
चाहे मारो या निकारो गाँव से॥

जो खिलाते पेट भर औरों को हैं,
वो ही भूखे मर रहे इस देश में,
कोई आशा की किरण 'अनुपम' नहीं,
सच कहूँ तो आज के परवेश में॥

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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630. पंचायत

630.           पंचायत

कई वर्ष पूर्व प्रेमचंद जी की कहानी "पंच परमेश्वर" का किया गया काव्य रूपांतर।

शेखजी और चौधरी की प्रीत का,
हर गवाह था, प्रेम की इस रीत का,
रोटी का, न धर्म का, सम्बंध था,
दोस्ती का खून, फिर भी गर्म था॥

बालपन गुजरा जवानी आ गई,
अब गृहस्थी की कहानी आ गई,
चौधरी को पैसे से सब जानते,
शेख की बुद्धि का लोहा मानते॥

क्या भरोसा बुद्धि का, कब क्या करे,
ये बचा ले, या किसी को ले मरे,
स्वार्थ के संग ज्ञान, मिल जाए अगर,
इंसां की इंसानियत जाती है मर॥

ज्ञान को स्वारथ ने, वश में कर लिया,
बुद्धि को, लालच ने, देखो हर लिया॥

बूढ़ी मौसी की मिलकियत, शेख ने,
वादों के बदले में, अपने नाम की,
कुछ महीने बाद, मौसी को लगा,
उसकी सम्पति, तो गई बेदाम की॥

हर सुबह, हर शाम को, अब तो ठने,
मौसी में और शेखनी में न बने,
औरतों की रार ये, चलती रहे,
एक चुप तो, दूसरी लड़ती रहे॥

हर समय घर में मचा, कोहराम है,
घर न हो ज्यों, जंग का मैदान है,
गालियों की नित नई, बौछार है,
औरतों का खास ये, औजार है॥

जठरानल पर नहीं, उम्र का होता बंधन,
लूटपाट, ढंग, ढोंग सभी हैं, इसके कारन,
भूख-प्यास पर, क्या किसी का वश चलता है,
है ऐसा अंगार, अंत तक जो जलता है॥

बल गया, यौवन गया, भूख क्यों जाती नहीं,
अह बुढ़ापा क्रूर कितना! मौत क्यों आती नहीं,
हाय! ये क्या सोच बैठी, ये उचित मुझको नहीं,
मोड़ना मुँह जिंदगी से, है सही बिल्कुल नहीं॥

आखिरी मंजिल पे ये, तिरस्कार क्यों,
मैं खुदा की, इस खुदाई से लड़ूँ,
कब्र में हैं पाव, तो भी क्या हुआ,
आखिरी दम तक, बुराई से लड़ूँ॥

सांस फूली ही सही तो क्या हुआ,
आज मैं दूंगी जगा, इंसान को,
बेईमानी कद बढ़ा कितना भी ले,
फिर भी छू सकती नहीं, ईमान को॥

बचपन कैसे जान सके, क्या चीज है यौवन,
नहीं जवानी, जान सके, बूढे़ की  उलझन,
सदा सत्य अनुमान नहीं, होता है लोगो,
हर बूढ़ा बेईमान नहीं होता है लोगो॥

अलगू बेटा ! तुम भी शाम को आकर देखो,
बन पाये तो बात धर्म की, कहकर देखो,
आऊँगा पर नहीं बीच में मैं पड़ सकता,
जुम्मन के संग, मैं बिगाड़, कैसे कर सकता॥

जुम्मन तेरा मित्र, इसलिए मुँह न खुलेगा,
सच का करके खून, प्रीत का वृक्ष फलेगा,
चुप रह जाना, सच कहने से, क्या बेहतर है,
धर्म छोड़कर, क्या अधर्म, होता हितकर है॥

नहीं-नहीं ये क्या कह गया, दुर्बलता से,
मित्र धर्म न अधिक बड़ा है, मानवता से,
रिस्तों पर बिक जाय, नहीं ईमान खिलौना,
सच के आगे झूठ सदा, होता है बौना॥

शाम हो गई, पंछी आकर पेड़ पे बैठे,
चूँ-चूँ, चीं-चीं करें, सबल दुर्बल पर ऐंठे,
प्रकृति का है नियम, सदा निर्बल है दोषी,
ताकतवर की नहीं खिलापत, बहुधा होती॥

जीवन में पर घड़ी एक ऐसी आती है,
भौतिक ताकत जीत नहीं सच को पाती है,
सत्य स्वरूपा शक्ति जहाँ प्रकाशित होती,
दीपक सम देकर उजियारा, तम हर लेती॥

बैठन लागे लोग, आज पंचायत होगी,
किसको मिलती जीत, हार अब किसकी होगी,
एक तरफ धनवान और पहिचान सहारा,
एक तरफ कुछ नहीं, सिफ ईमान सहारा॥

पान, इलाइची, हुक्का और तंबाकू भी थी,
जिसका जो शौकीन शेख ने उसको वो दी,
बिछे फर्स पर जगह नहीं तिल भर भी खाली,
सूर्य अस्त हो चला, और गुम हो गई लाली॥

शुरू हो गई कानाफूसी, अब लोगो में,
सौ में सत्तर कहें, यार जुम्मन जीतेंगे,
सुनकर ऐसी बात शेख का मन खिल जाता,
अगले पल न जाने क्यों, हृदय हिल जाता॥

पंच लोग जब बैठ गए तब काकी बोली,
हाथ जोड़कर तकलीफों की गठरी खोली,
अब तक निभी, नहीं आगे इक दिन निभ सकती,
जुम्मन की बीबी के संग, अब न रह सकती॥

कहें रामधन, जुम्मन जी अपना मुंह खोलो,
किसे मानते हो सरपंच, अजी कुछ बोलो,
काकी बोली, हे जुम्मन ! सरपंच को चुन लो,
आज बनी है काकी तेरी, तुम ही चुन लो॥

इतना क्यों मनहीन, भरोसा खुद पर तो रख,
खुद पर गर है नहीं, अरे पंचायत पर रख,
पंच का कोई दोस्त, न ही दुश्मन होता है,
पंच आदमी नहीं, खुदा होता है॥

नहीं रामधन या औरों को, कभी चुनूगी,
बैर-भाव से दूषित जिनका अंतर्मन है,
तूने मेरी नहीं सुनी, तेरी सुनती हूँ,
और सभी को छोड़, चौधरी को चुनती हूँ॥

सभी विरोधी जुम्मन के, अब लगे कोसने,
काकी की मति गई, किसे सरपंच बनाया,
शेख-चौधरी की यारी तो, जग जाहिर है,
अलगू को चुन, क्यों काकी ने हाथ कटाया॥

सुन अलगू का नाम, चैन जुम्मन को आया,
काकी ने खुद चलो दोस्त सरपंच बनाया,
जुम्मन को अब लगा, जीत पक्की है उसकी,
न्याय उसी को मिले, पहुँच होती है जिसकी॥

बातों में सच है सरल बहुत,
लेकिन चलना, कितना  दुश्कर,
क्यों अग्नि-परीक्षा ली जाती,
जीवन में, सच के  इस पथ पर॥

होता है सत्य सरल इतना,
तो इसमें इतनी उलझन क्यों,
कर्तव्यविमूढ़ क्यों कर देता,
अंतर में इतनी बिचलन क्यों॥

ईमान बहुत है बड़ी चीज,
सम्बंधों की मोहताज नहीं,
ईमान से बढ़कर  जीवन में,
रिस्ते नाते और ताज नहीं॥

सरपंच यहाँ पर हूँ केवल,
है प्रीत रीत की बात नहीं,
देवों की वाणी में मिश्रित,
हो सकते हैं ज़जबात नहीं॥

जिरह शुरू जब हुई, लोग सब चौकन लागे,
होता न विश्वास, लोग जो देखन लागे,
आज चौधरी जज बनकर के, पूरा बैठा,
सभी लोग चुपचाप, यहाँ पर जो भी बैठा॥

जुम्मन अब तक पंचों ने जो, 
सोचा-समझा है, माना है,
काकी सच के पलड़े पर हैं,
बाकी हर बात बहाना है॥

काकी को खर्च दिया जाये,
हर महीने गुजर चलाने को,
अन्यथा रद्‌द समझा जाये,
हो चुके वसीयतनामे को॥

तर-बतर पसीने से जुम्मन,
सुनकर पंचायत का निर्णय,
स्तब्ध और भयभीत हुआ,
अब तक दिखता था जो निर्भय॥

जयकार कर उठी भीड़ तभी,
जय पंचायत, जय पंचों की,
देवों से बढ़कर के होगी,
गणना ऐसे सरपंचों की॥

हुआ दूध का दूध, और पानी का पानी,
सच के आगे आज हार गई, फिर बेईमानी॥

क्या इसी प्रीत के बल पर मैं,
निश्चिंत रहा अब तक हर क्षण,
मौका पड़ने पर तिल भर भी,
जो नहीं दे सकी संरक्षण॥

क्यों हाय अचानक जीवन में,
आ जाते हैं, ऐसे अवसर,
जब मीत भी साथ निभाता न,
जो रहता था हरदम तत्पर॥

बस कालचक्र का खेल है ये,
न मीत रहा, न रीत रही,
अहसान रहा, न हिचक रही,
न झिझक रही, न प्रीत रही॥

कर्मलेख कब खेल खिलाये, कौन जानता,
किस क्षण विष का घूंट पिलाये, कौन जानता॥

प्रकृति करती न पक्षपात,
अवसर देती है, हर जन को,
चाहे तो फिर से कर सकता,
पावन, अपने दूषित मन को॥

कुछ मास बाद ही घटना के,
इक नई घटी फिर से घटना,
इक बैल मर गया अलगू का,
था दैवयोग, या दुर्घटना ॥

अलगू के घर का रुदन आज,
जुम्मन को मलहम सा लगता,
हाय ! ईर्ष्या मानव की,
जो भी कर ले, वह कम लगता॥

जहाँ ईर्ष्या-द्वेष, वहाँ पर संशय पलता,
यह अधजला अलाव, सदा अंतर में जलता,
कालचक्र की नियत, कभी बस में न होती,
कभी कराती मेल, कभी विस्फोटक होती॥

अरे ज्ञान! तू क्यों पर्याप्त,
नहीं मानव जीवन में,
लालच, द्वेष भरा क्यों इतना,
मानव के अंतर्मन में॥

हाय सत्य पथ क्यों तेरा है, इतना दुश्कर,
तुझ तक मानव अंगारों पर, जाता चलकर॥

धर्म साथ तेरे चलने का, फल ये निकला,
जहाँ प्रीत थी वहीं बैर का, अंकुर निकला॥

न मिलने से बेहतर है, कुछ का ही मिलना,
जड़ रहने से अच्छा है, लंगड़ाकर चलना॥

समझू साहू ने दिवस, आ बैल चौधरी का देखा।
मन में सोचा है हृष्ट-पुष्ट, हर रोज करेगा दो खेपा।

साहू जी बोले अलगू से, है पास नहीं मेरे पैसा,
पाई पाई मैं दे दूंगा, जो बात हुई चाहा जैसा।

बैल चौधरी ने बेंचा, साहू को घाटा खाकर,
या कहिये बदकिस्मत का, कोई चांटा खाकर॥

बैल पनीला बड़ा, करे वह भर-भर खेपा,
हृष्ट-पुष्टि बलवान, हाथ धरने न देता,
भूल गया सब साहू, अब तो धन अर्जन मे़,
तरस जानवर पर नहीं आता, उसके मन में॥

हाय क्रूर क्यों हो जाता है, मानव इतना ?
क्यों लालच में आने पर, गिर जाता इतना,
सदा प्राणियों में मानव, न होता बेहतर,
कभी-कभी ये हो जाता है, पशु से बदतर॥

भूखा-प्यासा बैल जोतता रहता दिनभर,
दूना भर-भर माल लगाता रहता चक्कर,
आखिर वो ही हुआ, जिसे था इक दिन होना,
इक निरीह को, क्रूर के हाथों, जीवन खोना॥

हाय स्वार्थ ! तू गिरा गर्त में, सबको देता,
ज्ञानचक्षु को हाय बंद ,कैसे कर देता,
तेरे सम्मुख अक्ल हाय, बेवश हो जाती,
न जाने क्यों हाय, तेरी सेवक हो जाती॥

लेते वक्त आदमी कितना आतुर होता,
वादे करता और कुशल का अभिनय करता,
कितु बाद में गिरगिट जैसा रंग बदलता,
सब कुछ जाता भूल, बात पर बात बदलता॥

अंतर की बेईमानी कब,
बेशर्म बनेगी किस हद तक,
पहले से कहना मुश्किल है,
कि कौन गिरेगा किस हद तक॥

अलगू ने जब पैसा मांगा,
साहू ने आनाकानी की,
मन ही मन अलगू समझ रहा,
इसकी नीयत बेमानी की॥

मन में किया बिचार, बात ऐसे न बनेगी,
तूं-तूं, मैं-मैं में पड़कर, बस रार ठनेगी,
पूरा गर ना मिले, अरे कुछ तो मिल जाये,
हाथ अगर न कढ़े, दबी उंगली हिल जाये॥

दिना दो दिना करी, दिमागी कसरत, जी भर,
हार गया ज्यों हिरन जाल में, कोई फँसकर,
बहुत हो गया और नहीं, अन्याय सहूँगा,
पंचायत के बीच, बात को आज रखूंगा॥

उसी पेड़ के तले आ गई फिर आवादी,
कभी रहा सरपंच, आज वो है फरियादी,

साहू सब में किसको हो, सरपंच मानते,
चुन लो यहाँ पर उसे, जिसे हो सही मानते,
साहू बोले यही सही, जैसी है मर्जी,
जुम्मन हों सरपंच, यही मेरी है अर्जी॥

नाम जुम्मन का सुना अलगू ने जब,
गाल पर मानो कोई थप्पड़ पड़ा,
इतना कम क्या था, अरे वदकिस्मती,
हाय क्यों दुर्भाग्य है पीछे पड़ा॥

मन दुखी लेकर के अलगू चौधरी,
पंचों के सन्मुख बढ़े मनहीन हो,
संशय से पीड़ित, व्यथित हृदय लिए,
बात को पूरा किया गमगीन हो॥

न्याय मुझको चाहिये इस मंच पर,
पंचों से है अर्ज बस इतनी यहाँ,
मैं अगर हूँ सत्य के पलड़े तो,
बैल का पैसा मिले मुझको यहाँ॥

अलगू मन में सोचता, अब क्या बचा,
हार है निश्चित मेरी इस मंच पर,
फैसला तो लग रहा है, हो चुका,
क्या करूं उम्मीद दुश्मन पंच पर॥

पर उधर आसन पे जुम्मन सोचते,
आज पंचायत का मैं प्रधान हूँ,
न्याय का है मंच, आसन धर्म का,
आज मैं हूँ, मैं नहीं, भगवान हूँ॥

मुख से जो भी आज निकलेगा यहाँ,
ईश्वर की वाणी से कम होगा नहीं,
धुल गया है मैल मन का अब मेरा,
कुछ भी हो अन्याय पर होगा नहीं॥

बात दोनों पक्ष की सुनने के बाद,
फैसला जुम्मन सुनाने अब चले,
जुम्मन बोले फैसला पंचों का है,
चौधरी को बैल का पैसा मिले॥

आशा के विपरीत ये कैसे हुआ,
ईर्ष्या पे सत्य फिर भारी हुआ,
हर तरफ पंचों की जय-जयकार है,
जिंदगी में सत्य ही आधार है॥
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जुम्मन शेख और अलगू चौधरी - दोनों गहरे दोस्त।
काकी - जुम्मन शेख की मौसी
रामधन - जुम्मन शेख का ईर्ष्यालु प्रतिद्वंदी
समझू साहू - एक बनिया