Saturday, November 10, 2018

630. पंचायत

630.           पंचायत

कई वर्ष पूर्व प्रेमचंद जी की कहानी "पंच परमेश्वर" का किया गया काव्य रूपांतर।

शेखजी और चौधरी की प्रीत का,
हर गवाह था, प्रेम की इस रीत का,
रोटी का, न धर्म का, सम्बंध था,
दोस्ती का खून, फिर भी गर्म था॥

बालपन गुजरा जवानी आ गई,
अब गृहस्थी की कहानी आ गई,
चौधरी को पैसे से सब जानते,
शेख की बुद्धि का लोहा मानते॥

क्या भरोसा बुद्धि का, कब क्या करे,
ये बचा ले, या किसी को ले मरे,
स्वार्थ के संग ज्ञान, मिल जाए अगर,
इंसां की इंसानियत जाती है मर॥

ज्ञान को स्वारथ ने, वश में कर लिया,
बुद्धि को, लालच ने, देखो हर लिया॥

बूढ़ी मौसी की मिलकियत, शेख ने,
वादों के बदले में, अपने नाम की,
कुछ महीने बाद, मौसी को लगा,
उसकी सम्पति, तो गई बेदाम की॥

हर सुबह, हर शाम को, अब तो ठने,
मौसी में और शेखनी में न बने,
औरतों की रार ये, चलती रहे,
एक चुप तो, दूसरी लड़ती रहे॥

हर समय घर में मचा, कोहराम है,
घर न हो ज्यों, जंग का मैदान है,
गालियों की नित नई, बौछार है,
औरतों का खास ये, औजार है॥

जठरानल पर नहीं, उम्र का होता बंधन,
लूटपाट, ढंग, ढोंग सभी हैं, इसके कारन,
भूख-प्यास पर, क्या किसी का वश चलता है,
है ऐसा अंगार, अंत तक जो जलता है॥

बल गया, यौवन गया, भूख क्यों जाती नहीं,
अह बुढ़ापा क्रूर कितना! मौत क्यों आती नहीं,
हाय! ये क्या सोच बैठी, ये उचित मुझको नहीं,
मोड़ना मुँह जिंदगी से, है सही बिल्कुल नहीं॥

आखिरी मंजिल पे ये, तिरस्कार क्यों,
मैं खुदा की, इस खुदाई से लड़ूँ,
कब्र में हैं पाव, तो भी क्या हुआ,
आखिरी दम तक, बुराई से लड़ूँ॥

सांस फूली ही सही तो क्या हुआ,
आज मैं दूंगी जगा, इंसान को,
बेईमानी कद बढ़ा कितना भी ले,
फिर भी छू सकती नहीं, ईमान को॥

बचपन कैसे जान सके, क्या चीज है यौवन,
नहीं जवानी, जान सके, बूढे़ की  उलझन,
सदा सत्य अनुमान नहीं, होता है लोगो,
हर बूढ़ा बेईमान नहीं होता है लोगो॥

अलगू बेटा ! तुम भी शाम को आकर देखो,
बन पाये तो बात धर्म की, कहकर देखो,
आऊँगा पर नहीं बीच में मैं पड़ सकता,
जुम्मन के संग, मैं बिगाड़, कैसे कर सकता॥

जुम्मन तेरा मित्र, इसलिए मुँह न खुलेगा,
सच का करके खून, प्रीत का वृक्ष फलेगा,
चुप रह जाना, सच कहने से, क्या बेहतर है,
धर्म छोड़कर, क्या अधर्म, होता हितकर है॥

नहीं-नहीं ये क्या कह गया, दुर्बलता से,
मित्र धर्म न अधिक बड़ा है, मानवता से,
रिस्तों पर बिक जाय, नहीं ईमान खिलौना,
सच के आगे झूठ सदा, होता है बौना॥

शाम हो गई, पंछी आकर पेड़ पे बैठे,
चूँ-चूँ, चीं-चीं करें, सबल दुर्बल पर ऐंठे,
प्रकृति का है नियम, सदा निर्बल है दोषी,
ताकतवर की नहीं खिलापत, बहुधा होती॥

जीवन में पर घड़ी एक ऐसी आती है,
भौतिक ताकत जीत नहीं सच को पाती है,
सत्य स्वरूपा शक्ति जहाँ प्रकाशित होती,
दीपक सम देकर उजियारा, तम हर लेती॥

बैठन लागे लोग, आज पंचायत होगी,
किसको मिलती जीत, हार अब किसकी होगी,
एक तरफ धनवान और पहिचान सहारा,
एक तरफ कुछ नहीं, सिफ ईमान सहारा॥

पान, इलाइची, हुक्का और तंबाकू भी थी,
जिसका जो शौकीन शेख ने उसको वो दी,
बिछे फर्स पर जगह नहीं तिल भर भी खाली,
सूर्य अस्त हो चला, और गुम हो गई लाली॥

शुरू हो गई कानाफूसी, अब लोगो में,
सौ में सत्तर कहें, यार जुम्मन जीतेंगे,
सुनकर ऐसी बात शेख का मन खिल जाता,
अगले पल न जाने क्यों, हृदय हिल जाता॥

पंच लोग जब बैठ गए तब काकी बोली,
हाथ जोड़कर तकलीफों की गठरी खोली,
अब तक निभी, नहीं आगे इक दिन निभ सकती,
जुम्मन की बीबी के संग, अब न रह सकती॥

कहें रामधन, जुम्मन जी अपना मुंह खोलो,
किसे मानते हो सरपंच, अजी कुछ बोलो,
काकी बोली, हे जुम्मन ! सरपंच को चुन लो,
आज बनी है काकी तेरी, तुम ही चुन लो॥

इतना क्यों मनहीन, भरोसा खुद पर तो रख,
खुद पर गर है नहीं, अरे पंचायत पर रख,
पंच का कोई दोस्त, न ही दुश्मन होता है,
पंच आदमी नहीं, खुदा होता है॥

नहीं रामधन या औरों को, कभी चुनूगी,
बैर-भाव से दूषित जिनका अंतर्मन है,
तूने मेरी नहीं सुनी, तेरी सुनती हूँ,
और सभी को छोड़, चौधरी को चुनती हूँ॥

सभी विरोधी जुम्मन के, अब लगे कोसने,
काकी की मति गई, किसे सरपंच बनाया,
शेख-चौधरी की यारी तो, जग जाहिर है,
अलगू को चुन, क्यों काकी ने हाथ कटाया॥

सुन अलगू का नाम, चैन जुम्मन को आया,
काकी ने खुद चलो दोस्त सरपंच बनाया,
जुम्मन को अब लगा, जीत पक्की है उसकी,
न्याय उसी को मिले, पहुँच होती है जिसकी॥

बातों में सच है सरल बहुत,
लेकिन चलना, कितना  दुश्कर,
क्यों अग्नि-परीक्षा ली जाती,
जीवन में, सच के  इस पथ पर॥

होता है सत्य सरल इतना,
तो इसमें इतनी उलझन क्यों,
कर्तव्यविमूढ़ क्यों कर देता,
अंतर में इतनी बिचलन क्यों॥

ईमान बहुत है बड़ी चीज,
सम्बंधों की मोहताज नहीं,
ईमान से बढ़कर  जीवन में,
रिस्ते नाते और ताज नहीं॥

सरपंच यहाँ पर हूँ केवल,
है प्रीत रीत की बात नहीं,
देवों की वाणी में मिश्रित,
हो सकते हैं ज़जबात नहीं॥

जिरह शुरू जब हुई, लोग सब चौकन लागे,
होता न विश्वास, लोग जो देखन लागे,
आज चौधरी जज बनकर के, पूरा बैठा,
सभी लोग चुपचाप, यहाँ पर जो भी बैठा॥

जुम्मन अब तक पंचों ने जो, 
सोचा-समझा है, माना है,
काकी सच के पलड़े पर हैं,
बाकी हर बात बहाना है॥

काकी को खर्च दिया जाये,
हर महीने गुजर चलाने को,
अन्यथा रद्‌द समझा जाये,
हो चुके वसीयतनामे को॥

तर-बतर पसीने से जुम्मन,
सुनकर पंचायत का निर्णय,
स्तब्ध और भयभीत हुआ,
अब तक दिखता था जो निर्भय॥

जयकार कर उठी भीड़ तभी,
जय पंचायत, जय पंचों की,
देवों से बढ़कर के होगी,
गणना ऐसे सरपंचों की॥

हुआ दूध का दूध, और पानी का पानी,
सच के आगे आज हार गई, फिर बेईमानी॥

क्या इसी प्रीत के बल पर मैं,
निश्चिंत रहा अब तक हर क्षण,
मौका पड़ने पर तिल भर भी,
जो नहीं दे सकी संरक्षण॥

क्यों हाय अचानक जीवन में,
आ जाते हैं, ऐसे अवसर,
जब मीत भी साथ निभाता न,
जो रहता था हरदम तत्पर॥

बस कालचक्र का खेल है ये,
न मीत रहा, न रीत रही,
अहसान रहा, न हिचक रही,
न झिझक रही, न प्रीत रही॥

कर्मलेख कब खेल खिलाये, कौन जानता,
किस क्षण विष का घूंट पिलाये, कौन जानता॥

प्रकृति करती न पक्षपात,
अवसर देती है, हर जन को,
चाहे तो फिर से कर सकता,
पावन, अपने दूषित मन को॥

कुछ मास बाद ही घटना के,
इक नई घटी फिर से घटना,
इक बैल मर गया अलगू का,
था दैवयोग, या दुर्घटना ॥

अलगू के घर का रुदन आज,
जुम्मन को मलहम सा लगता,
हाय ! ईर्ष्या मानव की,
जो भी कर ले, वह कम लगता॥

जहाँ ईर्ष्या-द्वेष, वहाँ पर संशय पलता,
यह अधजला अलाव, सदा अंतर में जलता,
कालचक्र की नियत, कभी बस में न होती,
कभी कराती मेल, कभी विस्फोटक होती॥

अरे ज्ञान! तू क्यों पर्याप्त,
नहीं मानव जीवन में,
लालच, द्वेष भरा क्यों इतना,
मानव के अंतर्मन में॥

हाय सत्य पथ क्यों तेरा है, इतना दुश्कर,
तुझ तक मानव अंगारों पर, जाता चलकर॥

धर्म साथ तेरे चलने का, फल ये निकला,
जहाँ प्रीत थी वहीं बैर का, अंकुर निकला॥

न मिलने से बेहतर है, कुछ का ही मिलना,
जड़ रहने से अच्छा है, लंगड़ाकर चलना॥

समझू साहू ने दिवस, आ बैल चौधरी का देखा।
मन में सोचा है हृष्ट-पुष्ट, हर रोज करेगा दो खेपा।

साहू जी बोले अलगू से, है पास नहीं मेरे पैसा,
पाई पाई मैं दे दूंगा, जो बात हुई चाहा जैसा।

बैल चौधरी ने बेंचा, साहू को घाटा खाकर,
या कहिये बदकिस्मत का, कोई चांटा खाकर॥

बैल पनीला बड़ा, करे वह भर-भर खेपा,
हृष्ट-पुष्टि बलवान, हाथ धरने न देता,
भूल गया सब साहू, अब तो धन अर्जन मे़,
तरस जानवर पर नहीं आता, उसके मन में॥

हाय क्रूर क्यों हो जाता है, मानव इतना ?
क्यों लालच में आने पर, गिर जाता इतना,
सदा प्राणियों में मानव, न होता बेहतर,
कभी-कभी ये हो जाता है, पशु से बदतर॥

भूखा-प्यासा बैल जोतता रहता दिनभर,
दूना भर-भर माल लगाता रहता चक्कर,
आखिर वो ही हुआ, जिसे था इक दिन होना,
इक निरीह को, क्रूर के हाथों, जीवन खोना॥

हाय स्वार्थ ! तू गिरा गर्त में, सबको देता,
ज्ञानचक्षु को हाय बंद ,कैसे कर देता,
तेरे सम्मुख अक्ल हाय, बेवश हो जाती,
न जाने क्यों हाय, तेरी सेवक हो जाती॥

लेते वक्त आदमी कितना आतुर होता,
वादे करता और कुशल का अभिनय करता,
कितु बाद में गिरगिट जैसा रंग बदलता,
सब कुछ जाता भूल, बात पर बात बदलता॥

अंतर की बेईमानी कब,
बेशर्म बनेगी किस हद तक,
पहले से कहना मुश्किल है,
कि कौन गिरेगा किस हद तक॥

अलगू ने जब पैसा मांगा,
साहू ने आनाकानी की,
मन ही मन अलगू समझ रहा,
इसकी नीयत बेमानी की॥

मन में किया बिचार, बात ऐसे न बनेगी,
तूं-तूं, मैं-मैं में पड़कर, बस रार ठनेगी,
पूरा गर ना मिले, अरे कुछ तो मिल जाये,
हाथ अगर न कढ़े, दबी उंगली हिल जाये॥

दिना दो दिना करी, दिमागी कसरत, जी भर,
हार गया ज्यों हिरन जाल में, कोई फँसकर,
बहुत हो गया और नहीं, अन्याय सहूँगा,
पंचायत के बीच, बात को आज रखूंगा॥

उसी पेड़ के तले आ गई फिर आवादी,
कभी रहा सरपंच, आज वो है फरियादी,

साहू सब में किसको हो, सरपंच मानते,
चुन लो यहाँ पर उसे, जिसे हो सही मानते,
साहू बोले यही सही, जैसी है मर्जी,
जुम्मन हों सरपंच, यही मेरी है अर्जी॥

नाम जुम्मन का सुना अलगू ने जब,
गाल पर मानो कोई थप्पड़ पड़ा,
इतना कम क्या था, अरे वदकिस्मती,
हाय क्यों दुर्भाग्य है पीछे पड़ा॥

मन दुखी लेकर के अलगू चौधरी,
पंचों के सन्मुख बढ़े मनहीन हो,
संशय से पीड़ित, व्यथित हृदय लिए,
बात को पूरा किया गमगीन हो॥

न्याय मुझको चाहिये इस मंच पर,
पंचों से है अर्ज बस इतनी यहाँ,
मैं अगर हूँ सत्य के पलड़े तो,
बैल का पैसा मिले मुझको यहाँ॥

अलगू मन में सोचता, अब क्या बचा,
हार है निश्चित मेरी इस मंच पर,
फैसला तो लग रहा है, हो चुका,
क्या करूं उम्मीद दुश्मन पंच पर॥

पर उधर आसन पे जुम्मन सोचते,
आज पंचायत का मैं प्रधान हूँ,
न्याय का है मंच, आसन धर्म का,
आज मैं हूँ, मैं नहीं, भगवान हूँ॥

मुख से जो भी आज निकलेगा यहाँ,
ईश्वर की वाणी से कम होगा नहीं,
धुल गया है मैल मन का अब मेरा,
कुछ भी हो अन्याय पर होगा नहीं॥

बात दोनों पक्ष की सुनने के बाद,
फैसला जुम्मन सुनाने अब चले,
जुम्मन बोले फैसला पंचों का है,
चौधरी को बैल का पैसा मिले॥

आशा के विपरीत ये कैसे हुआ,
ईर्ष्या पे सत्य फिर भारी हुआ,
हर तरफ पंचों की जय-जयकार है,
जिंदगी में सत्य ही आधार है॥
               *****

जुम्मन शेख और अलगू चौधरी - दोनों गहरे दोस्त।
काकी - जुम्मन शेख की मौसी
रामधन - जुम्मन शेख का ईर्ष्यालु प्रतिद्वंदी
समझू साहू - एक बनिया

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