Saturday, November 10, 2018

631. कृषक की व्यथा

631. कृषक की व्यथा

गोदान पर आधारित यह रचना।

भुखमरी या फिर गरीबी से दबा,
दास्तां ये देश के हर गाँव की ,
पुलिस, पटवारी, महाजन से घिरा,
सूदखोरी से ग्रषित घर-गाँव की ॥

है जवानी में बुढ़ापे को लिए,
भूखी आंते और नंगे पाँव की ,
ठंड निष्ठुर या दुपहरी जेठ की ,
नीम या पीपल की शीतल छाँव की ॥

भोली कोयल की मधुर धुन कीजगह,
है कुटिल कौवे की काँव-काँव की,
बाढ़, सूखा, आपदाओं में फँसे,
बेवशों पर शातिरों के दाँव की ॥

'रज्जो' से, सानी लगा ‘हरिया' कहे,
रतनूं को तूं भेज देना खेत में,
जानें कबलहुं ईख गुड़ पाएगी जा,
सिगरी मेहनत मिल न जाए रेत में॥

'रज्जो' से चिल्लाया 'हरिया' फिर कहा,
लाठी ला काहे को करती देर तूं,
फिर से कछु खाने के चक्कर में तेरे,
करवा देगी आज फिर अबेर तूं॥

वासी मुँह घर से निकलना ठीक न,
कछु नहीं तो मुँह जुठारे जाइए,
घर से खाकर निकरो तो सब ठौर है,
वासी, सिगरे दिन न कछुहै पाइए॥

लाठी दे, तू समय को समझेगी न,
काहे को टाँगें अड़ाती काम में,
इन बड़न से मिलन का प्रसाद है,
जो सलामत हैं बचे जा गाम में॥

बेदखल कितने हुए अब तक यहाँ,
बात तू तो रज्जो है सब जानती,
मालिकों की चापलूसी में भला,
सीधी सी ये बात क्यों न मानती॥

सच कही, ये ही तो मालिक हैं मेरे,
रात-दिन जो जोंक जैसे चूँसते,
खुद का अटका काम तो घर आ गए,
वैसे आकर ये कभी कुछ पूँछते॥

उनको इससे लेना देना, कछु नहीं,
आ गई कब बाढ़, कब सूखा पड़ा,
तोंद हो उनकी भरी, फिर का फिकर,
कौन है कब से यहाँ, भूखा पड़ा॥

हमसे अच्छे वे, मजूरी जो करें,
हानि का न डर, लगानों की फिकर,
दिवस गुजरा, शाम को पैसे मिले,
शौक से निश्चिंत होकर जाते घर॥

कब लौं खेती के लिए मरते रहें,
देखो जोवन में बुढ़ापो आ गयो,
पेट भर दो जून न हम खा सके,
ये किसानी कर्म, हमको खा गयो॥

गर्दन पर जो पैर हो, सहलाइए,
ये कहावत तो बड़ी मशहूर है,
रोज समझाने पे तूँ समझे नहीं,
समझदारी तुझसे कोसों दूर है॥

हारकर मिरजई, पगड़ी और लाठी,
सामने जूते, तमाखू रख गई,
रज्जो सुन! ससुराल थोड़ी जा रहा,
पाँचो पोशाकों को जो तूँ रख गई॥

और फिर ससुराल में साली भी न,
शान से जिसको दिखाऊँ जाय सब,
चुप रहो ज्यादा सजीले मत बनो,
बूढ़े पे कोई मरन की नाय अब॥

काहे को कोई बिगाड़े धर्म को ,
बूढ़े, पिचके गाल, खाली जेब पर,
यौवन, धन, सम्मान, एकउ गुण नहीं,
कोई क्यों रीझेगी ऐसे भेष पर॥

चालिस पर काहे को बूढ़ा हो चला,
साठे पे भी पाठे लगता मर्द है,
वर्षों से दर्पण लगत देखो नहीं,
झुर्रियां, आँखें धसीं, मुख जर्द है॥

खाने को दो बार मिलता है नहीं,
उस पर खुद को साठे-पाठे कर रहे,
दूध-घी, अंजन लगाने को नहीं,
बूढ़े बंदर सी कुलाचें भर रहे॥

हार कर हरिया लगा ये सोचने,
नारियों के मुँह से जीता है कोई,
लेकिन कुछ तो खास इन नारिन में है,
कोई मरता और जीता है कोई॥

सहसा हरिया जा धरातल पे गिरा,
ज्यों गिरी हो बूंद तपती रेत पर,
साठ का होने का रज्जो मैं कहाँ ?
चल दिया आगे को लाठी टेककर॥

हरिया के शब्दों में सच की झलक को ,
देखकर रज्जो का दिल कम्पित हुआ,
जीवन के सागर में पति पतवार है,
मृदुल मन पत्नी का फिर शंकित हुआ॥

वर्षों से हरिया के दिल में स्वप्न था,
एक सुन्दर गाय होती द्वार पर,
लालसा पूरी न अब तक हो सकी ,
इच्छा रह जाती अधूरी हार कर॥

देखकर खेतों में गन्ने की फसल,
कृषक मन हरिया का हर्षाने लगा,
लालसा पूरी करूँगा गाय की,
मन ही मन में खुद को बहिलाने लगा॥

बंगला, कोठी, मोटरगाड़ी की तमन्ना,
छोटे से दिल में समा सकती नहीं,
ये जरूरत सेठ, साहूकार की ,
कृषक मन को यह लुभा सकती नहीं॥

जेठ की प्रबल तपन फैली हुई,
लूह के लगते थपेड़े गाल पर,
सारे मिलकर, रोकते हरिया को हैं,
पर फर्क न पड़ रहा था, चाल पर॥

धूप में नंगे बदन तपते हुए,
खेतों में कृषक मगर तल्लीन थे,
पोंछते जाते पसीना बदन का ,
गाल पिचके और मुख श्रीहीन थे॥

डालियां आमों की थी नीचे झुकी ,
और बौराये हुए जामुन खड़े,
जौं, चना, गेहूँ की फसलें कट चुकी,
ज्यादातर अब खेत थे खाली पड़े॥

प्रेम से, आदर से, अरु सत्कार से,
हरिया को देते निमंत्रण हैं सभी,
चिलम पीके चले जाना, तनिक ठहरो,
हँसकर हरिया सबको कहता, न अभी॥

द्वार पे पहुंचा जो साहूकार के,
सामने ही भेंट उससे हो गई,
कड़ककर हरिया से बोला ये क्या,
दो बरस से एक पाई न दई॥

कितने वादे हरिया तूनें कर लिए,
का धरम से डर तुझे लगता नहीं,
झूठे-सच्चे सौ बहाने कर लिए,
देने का मन क्यों तेरा करता नहीं॥

इस बरस तो ईख अच्छी लग रही,
मूल न दो, सूद ही हरिया भरो,
दो बरस से सूद दुगना हो गया,
तुम चुकाने के लिए कुछ तो करो॥

बहुत मोहलत दे चुका हूँ, अब तलक,
हरिया मुझको सारा पैसा चाहिए,
अब भरोसा मुझको तुझ पर है नहीं,
सूद के बदले में गन्ना चाहिए॥

आपकी जूती के नीचे सिर मेरा,
रहम करिए या कुचल दो पाँव से,
आपकी मर्जी के आगे क्या कहूँ,
चाहे मारो या निकारो गाँव से॥

जो खिलाते पेट भर औरों को हैं,
वो ही भूखे मर रहे इस देश में,
कोई आशा की किरण 'अनुपम' नहीं,
सच कहूँ तो आज के परवेश में॥

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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