628. जहाँ भय भूख बेकारी (मुक्तक)
आज हमारे जीवन से, त्यौहारों से और आचरण से, सादगी, मितव्ययता लुप्त होती जा रही है। इसकी जगह दिखावा, आडंबर, फिजूलखर्ची बढ़ती जा रही है। जनता से कर के रूप में वसूले जा रहे धन से जगह-जगह, बार-बार भव्य सरकारी आयोजनों का होना यह बताता है कि शासन को लोगों के दुख-दर्द से कोई सरोकार नहीं है। क्या भव्य आयोजनों पर अनाप-सनाप खर्च करके, हम अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी से छुटकारा पा जाएंगे।
628. जहाँ भय भूख बेकारी (मुक्तक)
जहाँ भय भूख बेकारी, जहाँ पर बाढ़ सूखा है।
जहाँ दुख-दर्द लाचारी, जहाँ हर पेट भूखा है।
वहीं अरबों हुए स्वाहा, गरीबों की कमाई से।
हमेशा की तरह फिर से, दिखा बर्ताव रूखा है।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
06.11.2018
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