759. दरी बिछाते हम रहे (कुंडलिया)
जिस तरह से राजनैतिक पार्टियाँ उन कार्यकर्ताओं को जो बीसों साल से पार्टियों का झंडा-डंडा लेकर उन्हें अपने खून-पसीने से सींचते रहते हैं को टिकट न देकर, उनकी निष्ठा समर्पण को नकारकर पैराशूट से उतारे अनुभवहीन प्रत्याशियों को टिकट देतीं हैं यह प्रजातंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। इस तरह कर्मठ ईमानदार कार्यकर्ता पक्षपात के शिकार होते रहते हैं।
ऐसे में अगर कोई पार्टी यह कहती है कि उनके यहाँ पक्षपात, खरीदफरोख्त, भाई-भतीजावाद, परिवारवाद नहीं है तो इस पर कौन विश्वास करेगा।
ऐसे ही उपेक्षित कार्यकर्ताओं की व्यथा पर यह कुंडलिया छंद।
759. दरी बिछाते हम रहे (कुंडलिया)
दरी बिछाते हम रहे, टिकट ले गए और।
मेहनतकश को है नहीं, राजनीत में ठौर।
राजनीत में ठौर, भला कब हमें मिला है।
वायुयान से आत, प्रत्याशी यही गिला है।
घर-घर हम ही जाँय, लठ्ठ भी हम ही खाते।
टिकट ले गए और, रहे हम दरी बिछाते।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
27.04.2019
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