Sunday, July 30, 2017

388. याद आती रही पायल

388. याद आती रही पायल

कुछ लजाती  सी  सिमटी हुई,
गोरे   पैरों   से    लिपटी   हुई,
मुँह   छिपाती    रही   पायल।

जिसका चेहरा था मन में बसा,
लाख कोशिश  के  छू न सका,
मन   लुभाती    रही    पायल।

ढोल  मृदंग  गुमसुम  थे  सब,
थे  मँजीरे  भी  खामोश  जब,
छनछनाती     रही     पायल।

ये  जमाना  था  चुपचाप जब,
कुछ न कह पाये थे आप जब,
गुनगुनाती      रही      पायल।

गम  में  डूबा  था  सारा  जहां,
था  खुशी  का  न  नामोनिशां,
मुस्कुराती       रही      पायल।

था  खत्म  रोशनी  का  बसेरा,
चाँद-तारों  में  था  बस अंधेरा,
झिलमिलाती    रही    पायल।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
29.07.2017
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387. मत हसीनों के बालों में

387. मत हसीनों के बालों में  

मत  हसीनों  के   बालों  में   गूँथो  मुझे।
अब  तमन्ना   नहीं   है   मुझे   हार  की।
मंदिरों  की  भी  चाहत   न  यूं  तो मुझे।
ना ही  है  आरजू  दिल  में  बाज़ार  की।

ऐसे  द्वारों  पे  जाकर  के  मत  टाँगना।
जिनसे  भ्रष्टों  की  रैली  गुजरती  फिरे।
ऐसी गर्दन  की  भी  चाह  मुझको नहीं।
देशहित  में  जो  कटने  से  डरती फिरे।

जो  कि  तूफान  थे, देश  की  शान  थे।
थी ख़्वाहिश न जिनको कफन के लिए।
तोड़कर  फेंकना उस  समाधी  पे  बस।
हँस के  जो मिट गये  हैं वतन  के लिए।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
29.07.2017
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Saturday, July 29, 2017

386. मेरी मुसीबत को खुद पे ले ले

386. मेरी मुसीबत को खुद पे ले ले

मेरी मुसीबत को खुद पे ले ले, मुझे वो सीने की तलाश है।
थपेड़े खाकर लड़े भँवर से, उसी सफ़ीने की तलाश है।

हजार लड़ियों के बाद भी इस, जहां में फैला हुआ अँधेरा,
भरे जगत में जो रोशनी को, उसी नगीने की तलाश है।

उसे मंदिरों उसे मस्जिदों, में ढूंढकर भी नहीं पा सका,
न आज काबा न आज काशी, न ही मदीने की तलाश है।

मुझे न भोजन की थालियाँ दो, मुझे महीने का काम दे दो,
वही महीना है पर्व मेरा, उसी महीने की तलाश है।

हजार पुश्तों से है बहाया, तुम्हारी खातिर जो स्वेद मैंने,
मुझे भी रहबर तुम्हारे तन से, उसी पसीने की तलाश है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
29.07.2017
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Monday, July 24, 2017

385. रवि चाँद समीर जो पथ भटकें

385. रवि चाँद समीर जो पथ भटकें

रवि,  चाँद, समीर जो पथ भटकें, जगवासिन मारग कौन दिखावै।
तेरो तो कछु नहिं जाइहै सखि, जिनको जाइहै  उन्हे को समझावै। 
फिर  कौन  सँभाले  जा  धरनी,  जब  जाकिह  चाल  बिगड़ जावै।
यही हाल रहा  दो-चार दिना, तेरी दृष्टि से सृष्टि को कौन बचावै।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Saturday, July 22, 2017

384. मन में नव उत्साह ले (कुण्डलिया)

384. मन में नव उत्साह ले (कुण्डलिया)

मन में  नव उत्साह ले, गोरी  पकड़ी  डोर।
सधकर झूले  पे  चढ़ी, देखत  है  चहुँओर।
देखत  है  चहुँओर, वक्ष निज झाँप रही है।
झूल रही पर नियत, पवन की भाँप रही है।
ऊँची पैग  बढ़ाय, विचरती  फिरे  गगन में।
नव उमंग, उत्साह, कामिनी  लेकर मन में।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
21.07.2017
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Thursday, July 20, 2017

383. तेरी तस्वीर को अह जानम (मुक्तक)

383. तेरी तस्वीर को अह जानम (मुक्तक)

तेरी  तस्वीर  को  अह  जानम, आँखों  में  बसाकर  रखता हूँ।
तुझको कोई और न  देख सके, पलकों से  छुपाकर रखता हूँ।
बिछुड़न का डर मन में रहता, मुझको इस जालिम  दुनियाँ में।
इसलिए  तुझे  हरवक्त  सनम,  साँसो  में  समाकर  रखता  हूँ।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
19.07.2017
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Wednesday, July 19, 2017

382. अंदाज़ बदलने लगते हैं (मुक्तक)

382. अंदाज़ बदलने लगते हैं (मुक्तक)

अंदाज़  बदलने  लगते  हैं,  जब  दिल  में  मोहब्बत  होती  है।
हर  ओर  बहारें   आ  जातीं,  जब  उनकी  इनायत  होती  है।
तोपें,  तलवारें  कर  न  सकीं,  वो  प्रेम  ने  करके  दिखलाया।
बिगड़े भी सँभलने लगते जब, दिलबर की शिकायत होती है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
19.07.2017
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381. जहाँ हर चीज़ मिलती है (मुक्तक)

381. जहाँ हर चीज़ मिलती है

जहाँ हर  चीज़ मिलती है, उसे बाज़ार कहते हैं,
बना ले  रास्ता अपना, उसी  को धार  कहते हैं,
मिटा दे  दूरियाँ रिस्ता, उसी को प्यार  कहते हैं,
किसी भी काम का ना हो, उसे बेकार कहते हैं।

ये  परेशानी  के बादल, भी  कभी  छट जाएंगे,
कौन कितना चाहता है, सब नज़र  आ जाएंगे,
आप मुख  को मोड़कर, कुछ नया  करते नहीं,
एक दिन ये सब  बुरे दिन, भी अरे कट जाएंगे।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.07.2017
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Tuesday, July 18, 2017

380. सौ बार गिराया है तुमने (मुक्तक)

380. सौ बार गिराया है तुमने

सौ बार  गिराया  है  तुमने,  हर  बार  गिरे औ  सँभल  गये।
बर्दाश्त  रहे  करते  तुमको,  तुम हद  से आगे  निकल गये।
अब नहीं  जरूरत है  कोई,  हमदम अफसोस  जताने की।
कुछ फर्क नहीं अब पड़ता है, तुम बदले या हम बदल गये।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.06.2017
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Sunday, July 16, 2017

379. कब तलक ऐसे उड़ाओगे (गीत)

379. कब तलक ऐसे उड़ाओगे (गीत)

कब तलक ऐसे उड़ाओगे,
हमारी  खिल्लियाँ।
नोचते कब तक रहोगे,
जंगली  ज्यों  बिल्लियाँ।

पीठ  से  चिपके  उदर 
आँखें  धँसी  मुख जर्द है,
ये  गरीबी  बेबसी   
लाचारियों  का  दर्द है।
ना  चुकाए  से चुके  यह
किस  तरह  का कर्ज है,
जो  दवा के  साथ  बढ़ता 
कौन  सा  यह  मर्ज है।

भूख-तड़पन को लिए हर
ओर चिल्लम-चिल्लियाँ।।

रोपती   है  धान   को  
हर  ख्वाब  चकनाचूर है,
गाँव   की   हर   लाजवंती  
का   वदन  बेनूर  हैं।
एक  नन्ही   जान  खाली  
पेट  में  पलती  रहे,
श्यामली  सूखी  पथेरन  
जेठ   में  जलती  रहे।

चक्षुओं में आँसुओं की 
जम गयीं हैं सिल्लियाँ।।

इस  तरफ  जूठन  नहीं 
प्याले  में  उनके  खीर  है,
मेरी   कंगाली  किसी  की  
बन  गई  तकदीर  है।
तन जलाकर भी न मिलतीं 
दो  वकत  की रोटियाँ,
आप   कुर्सी   के    लिए   
रहते   बिठाते  गोटियाँ।

हमसे अच्छे हैं  तुम्हारे,
नाथ  पिल्ले - पिल्लियाँ।।

कब  करी  चर्चा  हमारी 
कब  रहे  हम जिक्र  में,
जानते  हैं  हम  सभी  
दुबले हुए  क्यों  फिक्र में।
है  बड़ी  जद्दोजहद   
जीवन  नहीं आसान है,
जानवर अब्बल  यहाँ  
दोयम  हुआ  इंसान  है।

किस तरह अनभिज्ञ हैं  ये 
लखनऊ औ  दिल्लियाँ।।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
16.07.2017
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लूट   में   मशगूल   हैं,
चहुँओर  कुत्ते - बिल्लियाँ।
कब  तलक  उड़ती  रहेगी,
बेबसी  की  खिल्लियाँ।

Saturday, July 15, 2017

378. वर्षा कितनी है सुखद (कुण्डलिया)

378. वर्षा कितनी है सुखद (कुण्डलिया)

वर्षा  कितनी है  सुखद, चलकर देखो गाँव।
घर आँगन जलमग्न हैं, बैठन को नहिं ठाँव।
बैठन को  नहिं  ठाँव, झोपड़ी भीतर  पानी।
एक नहीं दस-बीस, लाख की यही कहानी।
कंगाली  में  कभी, किसी का  मन  है  हर्षा।
बेघर   कैसे   कहें,  सुखद  होती   है   वर्षा।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.07.2017
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377. पंकजमुख, काले नयन (कुण्डलिया)

377. पंकजमुख, काले नयन (कुण्डलिया)

पंकजमुख, काले नयन, गौरवर्ण  यह  देह।
अधरों पर मुस्कान  ले, अँखियों में  ले नेह।
अँखियों  में ले नेह, धरा पर  कामिन उतरी।
छूते  होय  मलीन,  देह  यह  सुथरी-सुथरी।
भ्रमर चक्षु  मदहोश, लूटते दर्शन  का सुख।
पंकज रहे लजाय, देखकर यह पंकजमुख।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.07.2017
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376. सावन की ऋतु आ गयी (कुण्डलिया)

376. सावन की ऋतु आ गयी (कुण्डलिया)

सावन  की  ऋतु आ गयी, घन छाई  चहुँओर।
दादुर  शोर  मचात  हैं, पिउ-पिउ  करते  मोर।
पिउ-पिउ  करते मोर, कामिनी  को  ललचाते।
झूम - झूमकर   वृक्ष,  लता  को  अंग  लगाते।
विरहन को है आस, सजन के  घर आवन की।
रह-रह आग लगाय, जिया में ऋतु सावन की।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
14.07.2017
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Sunday, July 09, 2017

375. ठाकुर ठोकर खा बने (कुण्डलिया)

375. ठाकुर ठोकर खा बने (कुण्डलिया)

ठाकुर, ठोकर  खा बने, इस सच को लो जान।
कभी न  मिलते  भीख में, पद वैभव  सम्मान।
पद  वैभव   सम्मान, बिना  उद्योग  मिले कब।
तभी  पूजनीय  बने, छेनि  से  देह  छिले जब।
ठाकुर  बनने  हेतु,  फिरे  क्यों  इतना  आतुर।
बिन ठोकर खा कौन, बना इस जग में ठाकुर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
09.07.2017
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ठाकुर- ईश्वर, देवता, मुखिया

Friday, July 07, 2017

374. नंगा, नंगा होत है (कुण्डलिया)

374. नंगा, नंगा होत है (कुण्डलिया)

नंगा,  नंगा   होत  है,  मत  करना  तकरार।
नंगों के  मुँह  मत लगो, कह दे  जो दो-चार।
कह  दे जो दो-चार, उसे हँसकर  सुन लेना।
हाँ-हाँ  करते  रहो, ज्ञान  मत  इसको  देना।
करके  तर्क-वितर्क,  कभी  मत  लेना पंगा।
परमेश्वर  से   बड़ा,  धरा  पर   होता   नंगा।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
06.07.2017
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Thursday, July 06, 2017

373. ठोकर जीवन में सखे (कुण्डलिया)

373. ठोकर जीवन में सखे (कुण्डलिया)

ठोकर जीवन  में सखे, बड़े  काम  की  चीज़।
ये अनुभव  की खान है, इससे  मिले  तमीज़।
इससे  मिले तमीज़, धैर्य  हमको  सिखलाती।
कर्मवीर,   बलवान,   सभ्य   इंसान   बनाती।
जो  ठोकर  से   डरे,  जिंदगी    काटे   रोकर।
कदम-कदम  पर मिले, उसे जीवन में ठोकर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
05.07.2017
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Sunday, July 02, 2017

372. जालिम ने दुपट्टा सरकाकर

372. जालिम ने दुपट्टा सरकाकर

जालिम ने दुपट्टा सरकाकर, जलवों को दिखाकर लूट लिया।
फिर नाज-ओ-अदा से इतराकर, गर्दन को घुमाकर लूट लिया।

इक बार निहारा चौतरफा, धीरे-धीरे, चुपके-चुपके,
फिर मद्य भरे दो नयनों को, नयनों से मिलाकर लूट लिया।

आशा, उत्साह, उमंगों में, आँखों को चार किया जिसने,
जाने फिर क्या सोचा उसने, नजरों को झुकाकर लूट लिया।

सौंदर्य, रूप, लावण्य लिए, उस रूपमती मृगनयनी ने,
इक बार उघारा चंद्रवदन, फिर जुल्फ गिराकर लूट लिया।

दी थाह नहीं निज अंतर की, हृदय का हर पट बंद रखा,
लज्जा, संकोच, रिवाजों को, हथियार बनाकर लूट लिया।

कहती दुनियाँ मासूम जिसे, वो इतनी भी मासूम नहीं,  
जिसने इस भोले-भाले को, बहला-फुसलाकर लूट लिया।

रणवीर सिंह (अनुपम)
02.07.2017
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Saturday, July 01, 2017

371. समझाबत भोरहिं शाम रहे (दुर्मिला सवैया)

371. समझाबत भोरहिं शाम रहे (दुर्मिला सवैया)

समझाबत भोरहिं  शाम  रहे, पर  बात सुनी  कब  जोबन में।
जब प्रेम करो तब  काहि डरे,  कछु नाँहि धरो  अब रोबन में।
अबहूँ कछु नाहिं ते'रो बिगरो, अरि काह लगी सब खोबन में।
अनुरागन  रंग  न  छूटत  है, सब  उम्र  लगा  दे'उ  धोबन  में।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
30.06.2017
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