Monday, November 30, 2015

156. सरस्वती वंदना (कुण्डलिया छंद)

माता जो आता मुझे, वो तो है तृणभार।
जो मुझको आता नहीं, वो पर्वत उनहार।
वो पर्वत उनहार, पुत्र पर किरपा करिये।
आलोकित पथ करो, मात सब तम को हरिये।
सच को सच लिख सकूँ, रहे सच से ही नाता।
इतनी कृपा करो आज, इस सुत पर माता।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Saturday, November 28, 2015

155. बताओ एक तो खूबी

बताओ एक तो खूबी, करें हम तब वरण लोगो,
तुम्हारे तारने से अब, नहीं होगा तरण लोगो।

जरा सी बात को लेकर, न करिये रोज प्रदर्शन,
करो मत इस तरह अनशन, यहाँ पर आमरण लोगो।

नहीं इतने भी' हैं काबिल, ढिढ़ोरा पीटते जितना,
हकीकत देखिये इनकी, हटाकर आवरण लोगों।

कफ़न, नदियाँ, खदानें, ईंट-पत्थर और ये चारा,
इसी से आजकल करते, उदर का ये भरण लोगो।

सदा से रहनुमा बनकर, बनाते आ रहे हमको,
जरूरत के समय इनने, हमें कब दी शरण लोगो?

दिखा सपने तरक्की के, हमारी नींद भी ले ली,
किया है किस तरह देखो, जमीनों का हरण लोगो।

बिछौना है जमीं मेरी, खुला ये आसमां चद्दर,
मे'रा घर-बार तो बस है, यही वातावरण लोगो।

हितैषी हो नहीं सकते, धरम को बेंचने वाले,
अरे पाखंडियों के तुम, पखारो मत चरण लोगों।

कुटिल, कामुक, दुराचारी, मठों को घेर कर बैठे,
इन्हीने है किया देखो, धरम का ये क्षरण लोगो।

दबाकर शत्रु की गर्दन, चढ़ोगे वक्ष पर जिस दिन,
उसी दिन विश्व से आतंक का होगा मरण लोगों।

न कोई जन्म से ऊँचा, न कोई जन्म से नीचा,
इसे तो तय किया करता, सदा ही आचरण लोगो।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Monday, November 23, 2015

154. आने से उनके आ गया

आने से उनके आ गया, मौसम बहार का,
जाने लगे तो छा गया, मौसम तुषार का॥
धीरे से मुस्कराके, यों झुल्फ झटकना,
मुख को घुमाना जैसे हो, ग्राहक उधार का॥
पानी को उनने छू लिया, दरिया उफन गया,
नदियों में जैसे आ गया, मौसम ज्वार का॥
बिस्तर की सिलवटों ने, सब कुछ बता दिया,
आलम रहा रात भर, बस इंतजार का॥
आँखों में उनके आलस, अंगों में सुस्तियाँ,
जैसे नशा चढ़ा हो, अब भी खुमार का॥
छवि को निहार कर, दर्पण चटक गया,
टूटा हो सब्र जैसे, किसी बेकरार का॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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153. कुछ दोहे-2 (नेता और जनता)

चुनकर भेजा था जिन्हें, वो बन बैठे भाट।
वोट कीमती दे उन्हें, हाथ लिए हैं काट।। 1

बिकें विधायक शान से, लगी हुई है हाट।
नेता चूसे देश को, पब्लिक बारह बाट।। 2

भूखी जनता, अन्न की, कब से देखे बाट।
वोही खाली पेट है, वोही टूटी खाट।। 3

महलों ने हरदम करी, झोपड़ियों से घाट।
सब कुछ हमरा छीन के, कर दिया बारह बाट।। 4

दूध, दही, धन-सम्पदा, उन्हें महल, रजपाट।
हमको फटी कमीज बस, औ इक टूटी खाट।। 5

सुरा-सुंदरी, दावतें, प्रभु का उन पर हाथ।
भूख-प्यास, बीमारियाँ, सब हरिया के साथ।। 6

सरकारें आईं गयीं, सकी न बेड़ी काट।
दूरी राजा रंक की, नहीं सकी वो पाट।। 7

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Sunday, November 22, 2015

152. मेरे स्पर्श को पाकर

मे'रे   स्पर्श   को  पाकर,  नशे   में   डोलते   हैं  वो।
"मुझे यूँ तंग मत  करिये", सिमट  कर  बोलते है वो।
हजारों मिन्नतों के  बाद, उनको  कुछ  रहम  आता।
कहीं तब लाज के घूँघट, के' पट को खोलते हैं वो।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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मे'रे  स्पर्श  को  पाकर,  नशे  में   डोलने   लगते।
फिजां में मस्त नज़रों से, नशा सा  घोलने  लगते।
पिलाकर जाम आँखों से, मुझे मदहोश करके वो।
हया औ शर्म के घूँघट, को' थोड़ा खोलने लगते।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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Wednesday, November 18, 2015

151. जिसको ढूँढा जिधर

जिसको ढूँढा जिधर, वो उधर न मिला,
लाख ढूँढा मगर उनका घर न मिला॥
 
यूं तो मिलते रहे ज़िंदगी बहुत,
हम जुबां न मिला, हमसफर न मिला॥
 
जब भी मतलब रहा लोग आते रहे,
यूँ ही आकर के कोई इधर न मिला॥
 
जख्म पे जख्म खाता रहा आज तक,
दर्द महसूस हो वो असर न मिला॥
 
तेरी फितरत से वाकिफ हूँ अच्छी तरह,
मेरे साथी तूँ ऐसे नज़र न मिला॥ 
 
लोग बिकते रहे, मैं नहीं बिक सका,
मुझमें बस एक ये ही हुनर न मिला॥
 
रणवीर सिंह (अनुपम)
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150. बहुत बार गुजरे हैं', तेरी गली से

बहुत बार गुजरे हैं', तेरी गली से,
मगर ऐसा मौसम न, देखा कभी भी,
मेरी बात पर हो न एतवार तुमको,
तो जाकर के अपने पड़ोसी से पूछो॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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149. सुलगती आग जल जाती

सुलगती आग जल जाती, अगर थोड़ी हवा होती,
नहीं यों खेलती दिल से, अगर थोड़ी वफा होती,
नहीं शिकवा, शिकायत न, मुझे अपने, पराओं से,
तेरी नफरत छुपा लेता, अगर थोड़ी जगह होती॥

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Monday, November 16, 2015

148. नैतिकता आदर्श मिट गए

नैतिकता, आदर्श मिट गए, अब आधुनिक जमाने में।
नेकी और ईमान बिक गए, अपना काम चलाने में॥

मुगल हुमायूँ-कर्णवती  से, रिश्ते कौन बनाता अब,
नर-नारी आधुनिक हो रहे, ये नहिं उन्हें सुहाता अब,
कैसे - कैसे  काम  हो रहे, कारोबार चलाने  में॥

नया  जोश अब, नई  उमंगें, नई सभ्यता  है आई,
आज  सभ्य लोगों ने ली  है, नंगे  होकर अँगड़ाई,
क्या-क्या मिले देखने को अब, यारो नए जमाने में॥

आज जवानी बनी हुई  है, पर्दों का बस आकर्षन,
आज खुली जंघाएं लेकर, इठलाता  फिरता यौवन,
यौवन गर्वित हुआ झूमता, अपनी देह दिखाने में॥

टुन्न चमेली पौआ पीकर, मुन्नी भी बदनाम फिरे, 
अरु मुन्नी वो काम कर रही, जो न झंडू बाम करे, 
पर्दे पर  यों  दिखें नारियाँ, आती लाज बताने में॥  

नंगे  होकर ट्रांजिस्टर  संग, आमिर खाँ प्रचार करे, 
वस्त्र त्यागकर आज सभ्यता, लोगों को हुशियार करे,
जिस्मों का उपयोग  हो  रहा, अब  बाजार बढ़ाने  में॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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गीत (16/14)

संस्कार आदर्श मिट गए,
अब इस नए ज़माने में।
नेकी औ ईमान बिक गए,
अपना काम चलाने में॥

नया  जोश अब, नई  उमंगें,
नई सभ्यता  है आई,
आज  सभ्य लोगों ने ली है,
नंगे  होकर अँगड़ाई।

क्या-क्या मिले देखने को अब,
यारो नए जमाने में॥ 1

आज जवानी बनी हुई  है,
पर्दों का बस आकर्षन।
आज खुली जंघाएं लेकर,
इठलाता  फिरता यौवन।

यौवन गर्वित हुआ झूमता,
अपनी देह दिखाने में॥ 2

टुन्न चमेली पौआ पीकर,
मुन्नी भी बदनाम फिरे, 
औ मुन्नी वो काम कर रही,
जो न झंडू बाम करे।

पर्दे पर यों दिखें नारियाँ,
आती लाज बताने में॥ 3

नंगे होकर ट्रांजिस्टर  संग,
आमिरखाँ प्रचार करे, 
वस्त्र त्यागकर आज सभ्यता,
लोगों को हुशियार करे।

जिस्मों का उपयोग हो रहा,
अब  बाजार बढ़ाने  में॥ 4

रणवीर सिंह (अनुपम)
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147. दूर से आँखें मिलाकर लूट लिया

दूर  से  आँखें   मिलाकर   लूट लिया।
मिले  तो  नज़रें  झुकाकर  लूट लिया।

पहले  तो  जलवा  दिखाया  हुश्न  का,
और फिर जुल्फें गिराकर  लूट लिया।

पास  पहुँचे  तो  शिकायत  ही  मिली,
जब  चले  तो  मुस्कराकर  लूट लिया।

इतने  से  जब दिल  नहीं उनका भरा,
नींद  में  नींदों  को आकर लूट लिया।

जंगलों   में   जो   लुटे    वे   और   हैं,
मुझको तो घर पर बुलाकर लूट लिया।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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Saturday, November 14, 2015

146. मेरे कुछ दोहे -1

हिंदी सबसे कह रही, निज अंतर की पीर।
आज सूर, तुलसी नहीं, नहिं रैदास, कबीर।।1
 
आज हिन्द में देखिये, हिंदी का प्रतिकार।
हिंदी में हम कर  रहे,  इंगलिश का प्रचार।।2
 
मैकाले कब  के गये, पर नहिं  सुधरी भूल।
गली-गली में खुल रहे,  कानवेंट  इस्कूल।।3
 
श्रृंगार और सौंदर्य
 
साजन से  मिलने चली, गोरी  कर श्रृंगार।
पायलिया बजने लगी, जाग गया घर बार।।4
 
नदिया अपनी  कर जरा, तू धीमी रफ़्तार।
प्रियतम से मिलने मुझे, जाना है उस पार।।5
 
सजनी, रजनी में लगे, शशि सा तेरा रूप।
आनन की आभा लगे, सूर्यमुखी पर धूप।।6
 
खिंचा धनुष भृकुटी लगे, नयन कटीले वाण।
सजधज कर तू आ गयी, हरने सब के प्राण।।7
 
अँखियाँ तरकश सी लगें, भृकुटी खिंची कमान।
माया सम ये रूप है, दृष्टि मोहनी वान।।8
 
तिरछी चितबन तीर सी, भृकुटी खिंची कमान।
और मोहनी रूप ये, सब मिल हरते प्रान।9
 
तन तेरा सूरजमुखी, नज़र हमारी धूप,
ज्यों ही आनन पर पड़े, खिले दोगुना रूप।।10
 
पुष्प वदन को देख कर, भ्रमर चक्षु मदहोश।
नहिं जाने किस बात पर, 'अनुपम' ये खामोश।।11
 
घूँघट से छन-छन पड़े, गोरी मुख पर धूप।
दृग दोऊ खामोश हैं, देख मनोहर रूप।।12
 
तेरे सन्मुख आ प्रिये, किसको रहता होश।
विश्व मोहिनी रूप ये, कर देता मदहोश।।13
          
दुनियाँ भर के रूप से, ईश्वर दीन्हा लाद।
हुश्न तुम्हारा सृष्टि को, कर नहिं दे बर्बाद।।14
 
देह कसी मृदंग सी,  छेड़े रह-रह तान।
राग-रागिनी देख ये, भूले सभी विधान।।15
 
अंग-अंग में मस्तियाँ, देह रूप की खान।
जो देखे आहें भरे, चुप रह तजता प्रान।।16
 
किस विधि सँवरेगी यहाँ, नारी की तक़दीर।
जब नारी समझे नहीं, नारी की ही पीर।। 17
 
श्रीकृष्ण
 
भोली सूरत श्याम की, शोभत कुंडल कान।
अधरों की मुरली सखी, इक दिन लेगी प्रान।।18
 
दोहा
 
दोहा अनुपम छंद है, मात्रा चौबिस भार।
चार चरण, दो पंक्ति में, है इसका विस्तार।।19
 
जग में सबको एक सा, समझ न ओ नादान।
एक से बढ़कर एक हैं, दुनियाँ में विद्वान।। 20
 
'अनुपम' आता जो तुझे, वो तो है तृणभार।
जो तुझको आता नहीं, वो पर्वत उनहार।। 21
 
झूठ हमेशा झूठ है, गले न इसकी दाल।
चाहे जितनी देर तू, रे मन इसे उबाल।। 22
 
कवि होकर जो छंद का, माने नहीं विधान।
मैं-मैं, मैं-मैं जो करे, वह कैसा विद्वान।। 23
 
छंद नियम की पालना, काम करे आसान।
लय खुद ही आ जात है, खुद आ जायें प्रान।।24
 
नियम, नियम ही होत है, नियम जरूरी अंग।
रचना का दर्जा गिरे, अगर नियम हो भंग।।25
 
दो दोहे क्या रच लिए, बनते, सूर, कबीर।
पढ़कर ग़ालिब, मीर को, समझें खुद को मीर।।26
 
रट ग़ालिब के शे'र वो, खुद को समझें शेर।
सच को सुनना सीख तू, मत ऐसे मुँह फेर।।27
 
कइयों शायर लिख गए, दोयम दर्जा शे'र।
सीधी सच्ची बात पर, ऐसे मुँह मत फेर।।28
 
गुरु वशिष्ठ से लोग भी, कर जाते हैं चूक।
वक्त पड़े समझाइये, कभी न रहना मूक।।29
 
शायर भी इंसान है, कर जाते हैं भूल।
भूल, चूक, त्रुटियाँ कभी, होती नहीं उसूल।।30
 
दीपावली
 
नमो वैद्य धनमंतरी, तन-मन करो निरोग।
व्याधिमुक्त सब हों यहाँ, मिटे जगत से रोग।।31
 
कृपा करो माँ शारदे, यह सुत है नादान।
भावों को स्वीकार कर, दूर करो अज्ञान।।32
 
माँ लक्ष्मी किरपा करो, सब का हरो कलेश।
और हमें बलबुद्धि दो, गौरी पुत्र गणेश।। 33
 
लाख जलाये दीप पर, फैला नहिं उजियार।
ये लड़ियाँ अरु बल्ब ये, सब कुछ हैं बेकार।। 34
 
जब आलोकित मन नहीं, तो दीपक बेकार।
मन अँधियारा जब मिटे, तब सच्चा त्यौहार।। 35
 
तम हरने को रात भर, दिए जलाये आज।
पर हिय के अँधकार का, कोई नहीं इलाज।। 36
 
दीवाली के पर्व पर, ओछे रीत-रिवाज।
गलियों में लुड़कत फिरें, पी-पी मदिरा आज।।37
 
दारू पी-पी टुन्न हो, फड़ पर बैठे लोग।
ईश्वर मेरे गाँव को, कैसा लागा रोग।। 38
 
विरह
 
तुम बिन प्रिये अब नहीं, मोकूँ कछू सुहात।
खुद ही खुद से बात कर, जागूँ मैं दिन-रात।।39
 
रणवीर सिंह (अनुपम)
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145. हर शख्स की यहाँ पर

हर शख्स की यहाँ पर, नीयत बदल गई,
जो चीज़ आदमी थी, वो तो निकल गई,
पहले भी बिक रहे थे, अब भी हैं बिक रहे,
कुछ फर्क है तो बस, कीमत बदल गई॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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144. वो जमाले हुश्न उनका

144. वो जमाले हुश्न उनका (मुक्तक)

वो  जमाले   हुश्न   उनका,  और   अंदाजे   कलाम।
वो तबुस्सुम, वो झुका सिर, और वो उनका सलाम।
लय  पकड़ना  नृत्य  का  वो,  थिरकना  मृदंग  पर।
खत्म होकर भी  है लगता, उनका  रक्से  नातमाम।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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रक्स= नृत्य, 
नातमाम=अपूर्ण, ख़त्म न हुआ हो, संपन्न न हुआ हो

143. जब भी गुजरा कोई दिल से

जब भी गुजरा कोई दिल से, रहगुज़र बनती रही,
राहबर बनके हमारी, ज़िंदगी जलती रही,
गम-ए-गेती, गम-जनानां और कंगाली का गम,
दर्द सीने में दफन कर, ज़िंदगी चलती रही॥

रणवीर सिंह (अनुपम)

गम-ए-गेती= दुनियाँ का गम
गम-जनानां= प्रेमिका का गम
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142. सौभाग्य अगर द्वार पर (मुक्तक)

सौभाग्य अगर द्वार पर, दस्तक  दे  एक बार।
उस वक्त शीघ्र उसका, सत्कार होना चाहिए।
दुर्भाग्य  अगर  द्वार पर, आए जो  बार, बार।
हर बार  पूरे ज़ोर से, प्रतिकार  होना चाहिए।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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141. ज़िन्दगी इक राग है

फिलहाल यही है

जिंदगी इक राग है, सुर-ताल यही है,
कभी यह तलवार, कभी ढाल यही है॥

जीवन है एक नेमत, जीवन हसीन है,
फिर भी किसी की जान का, जंजाल यही है॥

आगे का किसने देखा, आगे क्या पता,
आगे की बात छोड़िए, इस साल यही है॥

आना जो चाहो आइए, मर्जी है आप की़,
जीने के लिए जो है, फिलहाल यही है॥

होंठों को जिसने चूमा, गालों को छुआ है,
हाथों में सजता जो रहा, रूमाल यही है॥

गोरी बिचारी गाँव की, रंग-रूप ढक रही,
उस नासमझ को क्या पता, टकसाल यही है॥

आदर्श, नेकनियती, 'अनुपम' की जिंदगी,
लालच के हाथों न गली, वो दाल यही है॥

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Friday, November 13, 2015

140. जुल्फ से पानी की बूँदें

जुल्फ  से  पानी की  बूँदें  किस तरह,
लिपट कर  इतरा  रहीं  हैं भाग्य पर।
अगले पल की कुछ खबर इनको नहीं,
तौलिए  से  जब  कोई  देगा  मिटा।।  
रणवीर सिंह (अनुपम)
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139. इस जमीं से आसमां तक

इस  जमीं से आसमां  तक, आप ही  के चर्चे हैं,
आपकी  कातिल  नजर से, इश्क  वाले  डरते हैं,
तेरे दर की देख रौनक, दिल की धड़कन रुक गई,
अब  नहीं  आसां मुहबब्त, इसमें लाखों खर्चे हैं॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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138. आइने के सामने घंटों

आइने  के   सामने,  घंटों  खड़े  रहते  हैं  वो,
देखते  निजि  रूप  को,  सज-सज,  सँवर-सँवर,
कैसे   दर्पण  धैर्य   को,  रखता  है  बाँधकर,
मैं अगर होता तो कब का, टूटकर जाता बिखर॥
रणवीर सिंह (अनुपम
                *****

137. ते'रे होंठों पे' लिख सकता

मापनी-1222 1222 1222 1222

ते'रे होंठों पे' लिख सकता, ते'रे गालों पे' लिख सकता।
कई मुक्तक प्रिये तुझ पर, ते'रे बालों पे' लिख सकता।
इसे लिखने को दुनियाँ में, हजारों  लोग  बैठे  हैं।
अकेला सिर्फ मैं हूँ जो, तेरे छालों पे' लिख सकता।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Thursday, November 12, 2015

136. सदा अपनी हथेली पर

सदा अपनी हथेली पर  मैं'  अपने  प्रान  रखता हूँ।
हमेशा हिंद की खातिर, ये' जिस्मो-जान  रखता हूँ।
अरे  औकात   क्या  तेरी,  करे  जो   सामना  मेरा।
जो'  सीखा हूँ बड़ों से मैं,  उसी का मान रखता हूँ।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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Wednesday, November 04, 2015

135. इस तरह मत दूर जाकर बैठिये।

इस  तरह  मत  दूर  जाकर  बैठिये।
बैठना  तो   पास  आकर   बैठिये।।

सामने  जब   आ  गए  तो  अर्ज  है,
आज  तो   पर्दा  उठाकर  बैठिये।।

यूँ  हमेशा  छोटी'  छोटी   बात  पर,
गुलबदन  मत, मुँह फुलाकर बैठिये।।

हर किसी की बात को दिल पर न लो,
और  मत  दिल से लगाकर  बैठिये।।

गैर   की  नापाक  हरकत  के  लिये,
आप मत दिल को दुखाकर बैठिये।।

रंज, गम हम से छुपाने  के   लिए,
इस तरह  मत  मुस्कराकर  बैठिये।।

यह मुनासिब आप को बिलकुल नहीं,
हर  किसी  के पास जाकर बैठिये।।

जानता  हूँ  पर  न  इतना  जानता,
हाथ  कंधे   से   हटाकर  बैठिये।।

एक  दिन  चहुँओर  होगी  रोशनी,
प्रेम  अंतर  में  जगाकर   बैठिये।।

जो  सभा  में  कद  बढ़ाना  चाहते,
यह गुरूर-ए-कद घटाकर  बैठिये।।

धर्म  औ  तहजीब  के नामों पे' मत,
आस्तीनों   को  चढ़ाकर  बैठिये।।

आ मिले जब नेक मकसद के लिए,
दूरियों को अब  मिटाकर  बैठिये।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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134. सारा दिन निराहार (कवित्त)

करवा चौथ

सारा  दिन  निराहार,  घर  के करे है कार,
चारो ओर प्रीत रूपी, मधु को है  घोलती।।

मुखड़े पे हास लिए, आस औ विश्वास लिए,
मन में उमंग लिए, हँसती है बोलती।।

सजधज हो तैयार, करके सभी श्रृंगार,
मन में पिया की छवि, खुश हो के डोलती।।

मॉंग ये सिंदूरी रहे, पति से न दूरी रहे,
चाँद को निहार कर, भीष्म व्रत खोलती।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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