Monday, June 26, 2017

370. खुश रहो आप सब (जलहरण घनाक्षरी)

370. खुश रहो आप सब (जलहरण घनाक्षरी)

खुश रहो  आप  सब, खाओ  घी  पनीर  दूध,
दिन में  हमें  भी एक, बार  दाल-भात  मिले।

ऊँचे-ऊँचे  महलों  का,  हमको  विरोध  नहीं,
टूटी हुई  झोपड़ी  से, हमें  भी  निजात मिले।

कौड़ियों में  हरिया की, बिके न  जमीन अब,
और काहू  हलकू को, पूस की ना रात मिले।

तुम  पे  भरोसा  कर,  हमने   चुना   है  तुम्हें,
हमको ही काहे  गोली, डंडा, हवालात मिले।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
26.06.2016
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369. सुबह की भोर आई (कवित्त)

369. मनहरण घनाक्षरी

सुबह की भोर आई, खुशियों को संग लाई,
हिलमिल  आज  सब,  ईद   को   मनाइये।

अहमद  मेरा   यह   पड़ोसी   मेरा  भाई है,
मेरे   रहनुमा   मुझे   न,   इससे   लड़ाइये।

बनके  हितैषी  मेरे,  काहे  विष  घोलते  ये,
बैठकर  सोचो  सभी, अक्ल  को  लगाइये।

धरमो  के  ठेकेदार,  धर्म का  लिहाज करो,
आप   देशवासियों   में,  खाई   न  बढ़ाइए।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
26.06.2017
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Sunday, June 25, 2017

368. योगा कर

368. योगा कर

सब मर्जों  की  एक दवा है, योगा कर।
इस दुनिया में कौन सगा है, योगा कर।
प्रश्न छोड़ सब सिर्फ अरे तू, योगा कर।
जो जलता  वो  जले मरे तू, योगा कर।

काम चाहिये, अरे  छोड़ तू,  योगा कर।
दाम  चाहिये, अरे  छोड़  तू, योगा कर।
कर्ज चढ़ा है, अरे  छोड़  तू, योगा कर।
दर्द  बढ़ा  है, अरे  छोड़  तू, योगा कर।

बच्चों  की  फीसें भरनी  हैं, योगा  कर।
बेटी  की  शादी  करनी  है,  योगा  कर।
खुशहाली की बात न कर तू, योगा कर।
कोई  पश्चाताप  न   कर   तू, योगा कर।

घर  में   तेरे   चून  नहीं  तू,  योगा  कर।
चावल  मिर्ची  नून  नहीं  तू,   योगा कर।
बिटिया  भूखी  चिल्लाये  तू,  योगा कर।
बेशक  मरती  मर  जाये  तू,  योगा कर।

राष्टवाद  के  नारे   के  सँग,  योगा  कर।
भारत  के जयकारे  के सँग, योगा  कर।
जै जवान चिल्ला-चिल्लाकर, योगा कर।
देशभक्ति  के  गीत  सुनाकर, योगा कर।

तू  किसान  है  रोटी  मत खा, योगा कर।
गोली  खा  पेड़ों   पे  लटका, योगा  कर।
मैं   मंत्री   हूँ   बतलाता   हूँ,   योगा कर।
तुझको निशदिन समझाता हूँ, योगा कर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.06.2017
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Saturday, June 24, 2017

366. जग से मत भाग अरी सखि तू (दुर्मिला सवैया)

366. दुर्मिला सवैया (आठ x सगण)

जग से मत भाग अरी सखि तू, कछु नाँहि धरो इहि  जोगन में।
इहि कारण का अबलौं पगली, बदनाम भयी सब लोगन में।
आपने मन को समझाउ सखी, कछु ना कछु राज वियोगन में।
उनका मन भी कब तृप्त भयो, जिन उम्र गयी रस भोगन में।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.06.2017
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जोगन-वैराग्य; इहि-इस; अबलौं-अब तक; लोगन-लोगों; वियोगन-विछोह, विरह; भोगन-भोगने।
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365. अब बात नहीं कछु काम (दुर्मिला सवैया)

365. दुर्मिला सवैया आठ सगण (112)

अब बात नहीं कछु काम करो, कछु नाहिं धरो इन बातन में।
मत बाँट हमें शुभचिंतक तू, निज धर्मन में निज जातन में।
कुरसी हित में मत घात करे, हित नाहिं दिखे इन घातन में।
अब वाद-विवाद को छोड़ सखे, कछु लाभ न घूँसन-लातन में।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
25.06.2017
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बातन-बातों;   जातन-जातियों; नाहिं-नहीं; घातन-घातों; लातन-लातों

364. बड़ी ही सावधानी से (मुक्तक)

364. बड़ी ही सावधानी से (मुक्तक)

बड़ी  ही  सावधानी से, नजर को चार करती है।
निशाना  साध छाती  पर, करारा वार  करती है।
बड़ी हुशियार है जालिम, सँभलने भी नहीं देती।
नज़र के तीर को सीधा, जिगर के पार करती है।

रणवीर सिंह (अनुपम)
23.06.2016
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Wednesday, June 21, 2017

363. जब से पति की चिठिया (सवैया छंद)

363. दुर्मिला सवैया छन्द
सगण (112) x 8

जब से पति की चिठिया है मिली, तब से फिरती चहकी - चहकी।
इतरा - इतराकर   बात  करे,  घर  बीच  फिरे   लहकी - लहकी।
तन  से  मदमस्त  सुगंध  बहे,  सब  सृष्टि   लगे  महकी - महकी।
कहुँ  पैर  धरे   कहुँ  पैर  परे,  कमनीय   दिखे   बहकी - बहकी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
20.06.2017
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Monday, June 19, 2017

362. वह माँ का दिन यह पापा का (मुक्तक)

वह माँ का दिन, यह पापा का, नौटंकी ये  बंद करो।
जो सुकून दे मात-पिता को, अरे काम  वो चंद करो।
दिवसों  में  माँ-बाप  ढूँढ़ते, फिरते  हो  अह नादानों।
पश्चिम की इस भेड़चाल में, काहे मति को मंद करो।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
19.06.2017
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Sunday, June 18, 2017

361. नहिं छंद न छंदक ज्ञान सखे (दुर्मिला सवैया)

361. नहिं छंद न छंदक ज्ञान सखे (दुर्मिला सवैया)
आठ सगण (112)

नहिं छंद न छंदक ज्ञान सखे, किस भाँति लिखी तुम यो कविता।
नहिं शब्द दिखें नहिं भाव दिखें,  इसको  तुम यार कहो  कविता।
रसहीन  मलीन अगीत  लगे,  बिन ज्ञान लिखो  तुम जो कविता।
कविता तब  ही कविता लगती,  जब  ताल  तरंगित  हो कविता।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.06.2017
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Sunday, June 11, 2017

360. हिंद के किसान की न (कवित्त)

360. हिंद के किसान की न (कवित्त)

23 दिसंबर - किसान दिवस

हिंद के किसान की न, देखी जाती दशा आज,
सदियाँ    गुजर   गयीं,    वही   बुरा   हाल  है।

चिथड़ों  से  तन ढके, भूखा - प्यासा  लगा रहे,
जनने   से    मौत   तक,   जिये   फटेहाल   है।

दवा-दारू, शिक्षा, दूध, सपनों  की  बात  लगे,
दोनों   वक्त   नून   रोटी,   मिलना   मुहाल  है।

सबका  जो   पेट  भरे,  वही  विष  खाके  मरे,
फाँसी पे  लटक रहा,  किसी  को  न ख्याल है।

रणवीर सिंह (अनुपम)
10.06.2017
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जनने-जन्म; नून-नमक; मुहाल-दुष्कर

359. कागज़ पर ही हो रही (कुण्डलिया)

359. कागज़ पर ही हो रही (कुण्डलिया)

कागज़  पर  ही   हो  रही,  खुशहाली  की  बात।
विज्ञापन    समझा   रहे,   अच्छे     हैं    हालात।
अच्छे  हैं  हालात,  कृषक फिर  सड़कों पर क्यों।
जब सब कुछ है ठीक, तुझे फिर लगता डर क्यों।
नौ  गज  की  उपलब्धि, बताता फिरता सौ गज।
ओ  रे  तिकड़मबाज,  दिखा  मत  झूठे  कागज।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.06.2017
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Saturday, June 10, 2017

358. हालात हैं अच्छे नहीं

358. हालात हैं अच्छे नहीं

आजकल  आबोहवा  हालात  हैं  अच्छे  नहीं।
रहनुमाओं  के  यहाँ  ब्यानात  हैं  अच्छे  नहीं।

ये मगरमच्छों  के आँसू  यार अपने  पास रख,
ये  रुँआसा  मुख तेरा  जज्बात  हैं अच्छे नहीं।

दूसरों  पर  दोष  मढ़कर, मत  बनो  निर्दोष यूँ,
कथनी, करनी आपके ख्यालात हैं अच्छे नहीं।

तख्त पर  बैठा उसे भगवान  कहना सीख लो,
अन्यथा  फिर आपके,  दिनरात हैं अच्छे नहीं।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.06.2017
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357. हत्याओं का दौर है (कुण्डलिया)

357. कुण्डलिया छंद

हत्याओं  का  दौर   है,  राष्ट्रवाद  का  शोर।
धर्मजाति के  नाम पर,  मारकाट  चहुँओर।
मारकाट  चहुँओर, करन  की  है  आजादी।
मजलूमों  की जान,  ले  रही खाकी-खादी।
को  है  जिम्मेदार, गाँव  की  इन आहों का।
किस दिन होगा बंद, दौर यह हत्याओं का।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
09.06.2017
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Tuesday, June 06, 2017

356.बड़ी अनोखी बात है (कुण्डलिया)

356. कुण्डलिया छंद

बड़ी अनोखी  बात है, बड़ा  अनोखा साथ।
सेवक महलों  में रहे, स्वामी  को  फुटपाथ।
स्वामी को फुटपाथ,  भूख  से  मरे बिचारा।
फटेहाल  चुपचाप, रोज  कर  रहा  गुजारा।
ये  तेरा   रँग-रूप,   हाय   ये   तेरी  शोखी।
सेवक  तेरी  बात,  दिखे  है  बड़ी अनोखी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
05.06.2017
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Saturday, June 03, 2017

355. जगह-जगह से खबरें आतीं

जगह-जगह से खबरें आतीं, यूपी की बदहाली की।
रोज-रोज घृणित करतूतें, गुंडों और मबाली की।
जला दिया शब्बीरपुरा को, सत्ता के मद ने देखो,
मार काट की गली-गली में, रक्तवर्ण हर नाली की।

टीवी पर इक खबर न आई, जनता की बेहाली की।
ये सब मुख कैसे खोलेंगे, जब खुद की बिकवाली की।
लोकतंत्र का चौथा खंबा, मरा हुआ सा दिखता है।
राष्ट्रवाद की, जातिवाद ने, बोलो कब रखवाली की।

बड़े-बड़े समता के वादे, बातें बस खुशहाली की।
रत्ती भर हालत ना सुधरी, अब तक इस कंगाली की।
ये घड़ियाली आँसू कब तक, काम करेंगे मलहम का।
लुटती इज्जत धृष्टराष्ट्र बन, देख रहे पांचाली की।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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353. घोड़ा-घोड़ा होत है (कुण्डलिया)

कुण्डलिया छंद

घोड़ा - घोड़ा  होत  है, गधा - गधा ही होत।
घोड़ागाड़ी  में सखे, कभी गधा  मत  जोत।
कभी गधा मत जोत, काम ये नहीं गधे का।
नशा जोश का सही, रोग पर  बुरा नशे का।
गधा मनुज से ज्ञान, पा गया जब से थोड़ा।
रेंक-रेंक  कर  कहे, गधा  नहिं मैं  हूँ घोड़ा।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
02.06.2017
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