Friday, June 29, 2018

574. अंग-अंग में मस्तियाँ (कुण्डलिया)

574. अंग-अंग में मस्तियाँ (कुण्डलिया)

अंग-अंग में  मस्तियाँ, देह रूप  की  खान।
चक्षु कसे  तरकश लगें, दृष्टि  मोहिनी बान।
दृष्टि  मोहिनी  बान, हिया में  धँसती  जाए। 
भृकुटी हँस-हँस कहे, इसे अब कौन बचाए।
इतराती  फिर  रही,  कंचुकी  वक्ष  संग  में।
रंग - रूप  लावण्य,  समाया  अंग - अंग में।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
29.06.2018
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