574. अंग-अंग में मस्तियाँ (कुण्डलिया)
अंग-अंग में मस्तियाँ, देह रूप की खान।
चक्षु कसे तरकश लगें, दृष्टि मोहिनी बान।
दृष्टि मोहिनी बान, हिया में धँसती जाए।
भृकुटी हँस-हँस कहे, इसे अब कौन बचाए।
इतराती फिर रही, कंचुकी वक्ष संग में।
रंग - रूप लावण्य, समाया अंग - अंग में।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
29.06.2018
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