Saturday, November 11, 2017

442. बिन भोगे को जान सका है (गीत)

442. बिन भोगे को जान सका है (गीत)

बिन भोगे को जान सका है,
होती है क्या कंगाली।
महलोंवाले तुम क्या जानो,
भूख, गरीबी, बदहाली।

आँख मूँदकर नेताओं की,
बातों पर चलनेवालो,
बिना काम बिन मजदूरी के,
हाथों को मलनेवालो,
पूस मास की शीतलहर में,
खेतों में गलनेवालो,
जेठ माह की तप्त दुपहरी,
में नंगे जलनेवालो।
सोच साठ की क्यों लगती है?
तीस वर्ष की घरवाली।

दलितों के घर भोजन की ये,
नौटंकी करनेवालो,
सब्ज़बाग दिखलाकर सारी,
तकलीफें हरनेवालो,
शोषण, भ्रष्टाचार, भुखमरी,
की फसलें चरनेवालो,
जनता के पैसों से अपनी,
झोली को भरनेवालो।
बहुत देख ली यह लफ़्फ़ाज़ी,
गाल बजाते हो खाली।

चार शहीदों के नामों की,
गाथा को गानेवालो,
बात-बात पर देशभक्ति को,
आगे ले आनेवालो,
वीर जवानों की अर्थी सँग,
फोटो खिंचवानेवालो,
मैयत में दो-दो घड़ियाली,
आँसू टपकानेवालो।
देशभक्ति ये आँसू, मातम,
सब के सब ही हैं जाली।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.11.2017
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