Monday, November 27, 2017

452. उल्लू इक दिन कहा (रोला छंद)

452. उल्लू इक दिन कहा (रोला छंद)

उल्लू इक दिन कहा, मात लक्ष्मी  से रोकर।
होता  है उपहास,  आपका   वाहन  होकर।
पूजे तुमको जगत, मूर्ख पर मुझको कहता।
मन  में  यही  ग्लानि,  वेदना  सहता  रहता।

नैनन आँसू  लिए, कहा माँ कुछ  तो करिए।
मैं   हूँ   तुम्हरा  दास,  दुक्ख माँ  मेरा हरिए।
माँ लक्ष्मी  ने  कहा, चाहते  हो  क्या  बोलो।
क्या है  तुमको कष्ट, पुत्र अपना  मुँह खोलो।

तब  उल्लू  ने  कहा,  एक  दिन  मेरा  आए।
होय  मान - सम्मान,  मुझे  भी  पूजा  जाए।
ऐसा  करो  उपाय,  पूर्ण   हो   जाये  आशा।
माता  विनती यही,  दूर  मम  करो  निराशा।

अच्छा  ये  है  बात,  इसी  से  मुँह  है  सूजा।
मुझसे दस  दिन  पूर्व,  हर बरस  होगी पूजा।
दुष्ट,  छिछोरे,  कामी,  लंपट  या   हों  लुल्लू।
तब से  करवाचौथ, दिवस पर  पुजते  उल्लू।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
25.11.2017
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Saturday, November 25, 2017

451. मुख पंकज सम (मुक्तक)

451. मुख पंकज सम (मुक्तक)

मुख पंकज सम, अधर कली सम, भृकुटी तीक्ष्ण    कटार लिए।
ग्रीवा   कदली,  तन  सांरगी,  उन्नत  वक्ष उभार  लिए।
साँसों  में  चंदन की  खुशबू, संग सुगंधित  ब्यार लिए।
धरती  से अम्बर  तक  जैसे  यौवन  है  विस्तार  लिए।

अँखियाँ नील गगन सी दीखें  नूतन एक जहान लिए।
दंतपंक्ति  मोतिन  सी शोभे, अधरों पर मुस्कान लिए।
डोल रही ज्यों रती धरा पर, दिल में सौ अरमान लिए।
नजर कटीली उर में धँसकर, जाती हो ज्यों प्रान लिए।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
25.11.2017
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450. पकड़ा एक गरीब (रोला छंद)

450. पकड़ा एक गरीब (रोला छंद)

पकड़ा  एक  गरीब  एक  दिन  एक   सिपाही।
थाने   लेकर   गया  मिली   जब  नहीं  उगाही।
दारोगा    के     पास    जाय,  पेशी    करवाई।
हाथ  जोड़  गिड़गिड़ा, व्यक्ति ने  व्यथा सुनाई।

दारोगा  ने   कहा   ठीक   है, रहम   कर   रहा।
चल सौ अभी निकाल, मामला खत्म कर रहा।
मुझ  गरीब  के  पास,  अगर  पैसा   ही  होता।
तो  थाने   में   नहीं   मजे   से   घर   में  सोता।

भिखमंगे   को  अरे   उठा   क्यों   थाने   लाया।
किसको पकड़ा जाय अभी तक सीख न पाया।
फिर  गुर्राकर   कहा   दूर   नजरों   से  ले  जा।
खाना  -  पूरी    हुई   जेल   में   उसको  भेजा।

लड़त-लड़त  तारीख  जिस्म  हो  गया  छुआरा।
गया   कर्ज   में   डूब    खेत - घर   बेचा सारा।
पाँच  वर्ष   के  बाद  बरी   हो  जब  वह   छूटा।
मुख  से  उसके  और  नहीं  कुछ  इतना  फूटा।

दयावान   नहिं   नाथ   आपसा   कोई    होगा।
ईश्वर  करे   बनें   जज  से   इक   रोज  दरोगा।
तब  लोगों  ने  कहा अरे  यह  क्या  तू  कहता।
जज   होता   है   बड़ा    दरोगा   छोटा   होता।

जिस विवाद  को पाँच साल में  जज निपटाते।
सौ   रुपयों   में   उसे   दरोगा   खत्म   कराते।
फिर किस तरह दरोगा इक जज से कम होता।
मेरे   लिए    दरोगा   तो    ईश्वर    सम   होता।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.11.2017
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Sunday, November 19, 2017

448. पिंड छुड़ाओ भूख से (कुण्डलिया)

448. पिंड छुड़ाओ भूख से (कुण्डलिया)

पिंड  छुड़ाओ  भूख  से,  पानी  कर  दो  बंद।
भूख भूलकर  प्यास पर,  करने दो  अब द्वंद।
करने दो  अब  द्वंद, अन्य  मसलों  में  झोंको।
इससे बने  न  बात,  साँस फिर  इनकी रोको।
तब भी  करें  विरोध, आस्था  को  ले  आओ।
रोटी,  पानी,  हवा,  दवा,  से   पिंड  छुड़ाओ।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
19.11.2017
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पिंड - पीछा

447. तुम्हारी चाह में हद से (मुक्तक)

447. तुम्हारी चाह में हद से (मुक्तक)

तुम्हारी चाह में  हद से, गुजर  जाने  की  सोची है।
जिधर भी ले चलोगी तुम, उधर जाने की सोची है।
तुम्हें दिल में बसाकर  के, तुम्हारा नाम  लेकर  के।
मुहब्बत  के  समुंदर  में, उतर जाने  की  सोची है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.11.2017
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Saturday, November 18, 2017

446. अक्सर सकल जहान (रोला छंद)

446. अक्सर सकल जहान (रोला छंद)

अक्सर सकल जहान धर्मगुरु चोर उचक्के।
नारिन पर  कस तंज  व्यंग के  मारें  छक्के।
ऐसे  ही   इक  बार   मंच  पर   दूल्हे  राजा।
परिचय  रहे  कराय  मित्र  से  बोले  आजा।

हँसकर  कहा सुनाय मिलो यह  मेरी साली।
अब  से  यह  बन  गईं अर्ध  मेरी   घरवाली।
साली तो चुप रही नहीं कुछ खुलकर बोली।
पर  दुल्हन  के  लगी  बात  हो  जैसे  गोली।

तब दुल्हन ने  उसी  मित्र  को पास  बुलाया।
देवर का कर पकड़  उसे परिचय  करवाया।
हँस-मुस्काकर  कहा  मिलो  ये  हमरे  देवर।
अब  से  हमरी  जान  दूसरे  पति  परमेश्वर।

सुन दुल्हन का तंज दुल्हा जी  हक्के-बक्के।
सब के सब  स्तब्ध रह  गए  सब  भौचक्के।
यों  नारी  ने  किया  पुरुष के दंभ का' मर्दन।
अब तक थी जो तनी झुका डाली  वो गर्दन।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.11.2017
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Thursday, November 16, 2017

445. पति परमेश्वर बन गए (कुण्डलिया)

अक्सर रिश्तों की मर्यादा को ताक में रखकर, सालियों को लक्ष्य बनाकर उन पर छींटाकसी करनेवाले पुरुषों पर एक कटाक्ष।

445. पति परमेश्वर बन गए (कुण्डलिया)

पति परमेश्वर  बन गए, परिचय  रहे  कराय।
मित्रों  को   मिलवा  रहे,  दूल्हा  जी  हर्षाय।
दूल्हा  जी   हर्षाय,  कहें   यह   मेरी  साली।
अब  से  यह  बन  गईं, अर्ध  मेरी  घरवाली।
तब देवर कर पकड़, कही दुल्हन ऊँचे स्वर।
ये  हैं  हमरी  जान, अर्ध  ये  पति  परमेश्वर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.11.2017
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Sunday, November 12, 2017

443. प्रेम जो दिल में उमड़ता (मुक्तक)

443. प्रेम जो दिल में उमड़ता (मुक्तक)
प्रेम  जो  दिल में  उमड़ता, तो  उमड़ने  दीजिए।
गर  उफानें   मारता   है,  तो   उफनने   दीजिए।
आरजू  मैंने   बता  दी,  आपको  अपनी  सनम।
आप भी उदगार दिल के, अब निकलने दीजिए।
आपकी  ही  कामना है,  प्रार्थना  सुन  लीजिए।
आप पर  ही  छोड़ता हूँ, जो  समझिए कीजिए।
आज भी  वो ही तड़फ है, आज भी वो ही जुनूँ।
चाह अब  भी  हाथ  की है, लीजिए या दीजिए।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.11.2017
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Saturday, November 11, 2017

442. बिन भोगे को जान सका है (गीत)

442. बिन भोगे को जान सका है (गीत)

बिन भोगे को जान सका है,
होती है क्या कंगाली।
महलोंवाले तुम क्या जानो,
भूख, गरीबी, बदहाली।

आँख मूँदकर नेताओं की,
बातों पर चलनेवालो,
बिना काम बिन मजदूरी के,
हाथों को मलनेवालो,
पूस मास की शीतलहर में,
खेतों में गलनेवालो,
जेठ माह की तप्त दुपहरी,
में नंगे जलनेवालो।
सोच साठ की क्यों लगती है?
तीस वर्ष की घरवाली।

दलितों के घर भोजन की ये,
नौटंकी करनेवालो,
सब्ज़बाग दिखलाकर सारी,
तकलीफें हरनेवालो,
शोषण, भ्रष्टाचार, भुखमरी,
की फसलें चरनेवालो,
जनता के पैसों से अपनी,
झोली को भरनेवालो।
बहुत देख ली यह लफ़्फ़ाज़ी,
गाल बजाते हो खाली।

चार शहीदों के नामों की,
गाथा को गानेवालो,
बात-बात पर देशभक्ति को,
आगे ले आनेवालो,
वीर जवानों की अर्थी सँग,
फोटो खिंचवानेवालो,
मैयत में दो-दो घड़ियाली,
आँसू टपकानेवालो।
देशभक्ति ये आँसू, मातम,
सब के सब ही हैं जाली।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.11.2017
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Friday, November 10, 2017

441. बातें सुन-सुन खुश होत रहे (मुक्तक)

441. बातें सुन-सुन खुश होत रहे (मुक्तक)

बातें  सुन-सुन खुश होत रहे, सब कष्ट सहे हम हँस-हँस के।
कछु नाहिं मिलो पर नाथ हमें, बातों में  तुम्हरी फँस-फँस के।
हम टूट गए  हम हार गए, किस्मत के धागे  गस-गस के।
उल्टे तुम मार रहे चाबुक, श्रीमान हमीं पर कस-कस के।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.11.2017
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440. अपने मन की तुम कात रहे (दुर्मिला सवैया)

440. अपने मन की तुम कात रहे (सवैया)

अपने मन की तुम कात रहे, कब नाथ सुनी हमरे मन की।
तुम बातन से भटकात रहे, कहुँ धर्मन की कहुँ जातन की।
दिन पै दिन हालत और गिरी, कमजोर, गरीब, किसानन की।
सच बात कहूँ बड़ भूल करी, तुमको सरदार बनाबन की।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.11.2017
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Tuesday, November 07, 2017

439. पाखंडी के दावों से (मुक्तक)

439. पाखंडी के दावों से (मुक्तक)

पाखंडी   के   दावों   से,  संसार   नहीं   बदला  करता।
अर्धसत्य,  झूठे,  तथ्यों  से,  सार  नहीं   बदल   करता।
खाल ओढ़कर बेशक गीदड़, खुद को कहता सिंह फिरे।
किन्तु आवरण के भीतर का, स्यार नहीं  बदला  करता।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
05.11.2017
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Sunday, November 05, 2017

438. दो कविताएं क्या लिखीं (कुण्डलिया)

438. दो कविताएं क्या लिखीं (कुण्डलिया)

दो  कविताएं  क्या लिखीं,  बन  बैठे कविराय।
छंद-बंद  का ज्ञान नहिं,  नहीं  व्याकरण आय।
नहीं व्याकरण आय, नहीं लय-तुक से मतलब।
कथ्य-तथ्य  का लोप, चरण  से आशय गायब।
नहीं   वर्तनी  शुद्ध,  वर्ण   भी  इन्हें   न  आएं।
दस-दस गलती  करें, लिखें जब  दो कविताएं।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
04.11.2017
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Saturday, November 04, 2017

437. दुनिया भर में शोर है (कुण्डलिया)

437. दुनिया भर में शोर है (कुण्डलिया)

दुनिया  भर  में  शोर  है,  पैदा  हुआ विकास।
नाइन भौचक्की  फिरे,  देख  हास - परिहास।
देख   हास - परिहास,  सोचती   दाई  मनमां।
बिन  दात्री, के  जीव,  सृष्टि  में   कैसे  जन्मा।
सूने  आँगन - द्वार,  दीखता  किसी  न घर में।
खेलन लगा  विकास, शोर  है  दुनिया भर में।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
03.11.2017
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Wednesday, November 01, 2017

436. यह किसी की है नहीं आलोचना (गीत)

436. यह किसी की है नहीं आलोचना (गीत)

यह किसी की है नहीं आलोचना,
कर्म मेरा गंदगी को पोंछना।

घूमते हैं, बंद वो आँखें करें,
राह के पत्थर, उठाते हम फिरें,
मन में डर हरवक्त रहता है यही,
मखमली पैरों में आए मोंच ना।

हुश्न का जेवर छुपाकर राखिए,
अधखुले आँचल को अपने ढांकिए,
आदतन मजबूर होकर के कोई,
मनचला कौआ, चुभा दे चोंच ना।

गर बढ़ो, संकल्प से आगे बढ़ो,
पर्वतों के शीश पर हँस-हँस चढ़ो,
लक्ष्य का चिंतन, मनन कर लीजिये,
कर्म करके बाद में क्या सोचना।

पत्थरों को ठोकरों से मोड़िए,
पर अधूरे कर्म को मत छोड़िए,
गड्डों से पानी निकलता है नहीं,
दोस्तो तुमको कुआँ है खोदना।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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