माता है ये प्रार्थना, इतना कर उपकार।
वाणी मेरी मृदु रहे, लेखन में हो सार।।
दया करो माँ शारदे, चक्षु ज्ञान दो खोल।
शब्दों में माँ सार भर, वाणी में मृदु घोल।।
जिस जिव्या पर है नहीं, जय भारत, जयगान।
उसके हित में है यही, छोड़े हिंदुस्तान।।
कर्तव्यों की बात अब, होती नहीं हुजूर।
हर कोई अधिकार की, चर्चा में मशहूर।।
जिसकी ख़ातिर आज तक, तोड़े रिश्ते खास।
उसको ही मुझ पर नहीं, होता है विश्वास।।
'अनुपम' सारी उम्र ही, करता रहा मैं भूल।
दर्पण को पोंछत रहा, थी चहरे पर धूल।।
रूप, हुश्न, सौंदर्य की, प्रभु ने दी सौगात,
इन्हें देख सँभला रहे, है किसकी औकात।
कंपित होंठ न कर सके, जब मुख से इजहार।
नीची नज़रों ने कहा, हमको तुमसे प्यार।।
एक नहीं दस बीस भी, मिल सकती थीं हूर,
पर क्या करें कनीज़ ही, थी दिल को मंज़ूर।।
पुनः कामना है यही, पटल फले दिन-रात।
करूँ स्वागत आपका, सबको शुभप्रभात।।
निष्ठाएँ अब बिक चुकी, औ बन चुकी रखेल।
राष्ट्रप्रेम गायब हुआ, देश हुआ है खेल।।
जिस क्षण कान्हा ने छुआ, रुक्मिणिजी का गात।
मुख पंकज सा खिल उठा, अंग खिले ज्यों पात।।
राधे-मुख पर कृष्ण ने, जिस क्षण मला गुलाल।
गौरवर्ण की राधिका, हुई लाज से लाल।।
एक नहीं दस बीस भी, मिल सकती थीं हूर।
पर क्या करें कनीज़ ही, थी दिल को मंज़ूर।।
नगरों से जब ऊबकर, आया अपने गाँव।
गाँवों में भी अब नहीं, पीपल, पनघट, छाँव।।
कमल वदन, केहर कमर, नाजुक गोरा गात।
छुअत छवी धूमिल पड़े, सोच पवन सँकुचात।।
श्याम चक्षु, श्यामल लटें, गौरवर्ण ये गात।
सब मिल हृदय पर करें, रह रहकर आघात।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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