Friday, March 25, 2016

237. राधा-मुख पर कृष्ण ने (कुण्डलिया)

कुण्डलिया छंद

राधा-मुख पर कृष्ण ने, जिस क्षण मला गुलाल।
गौरवर्ण   की   राधिका,  हुई   लाज   से  लाल।
हुई  लाज   से  लाल,   लगे   पत्थर  की  मूरत।
किंकर्तव्यविमूढ़,  लखे   कान्हा     की    सूरत।
आधे तन  में  श्याम, लगे तन  ख़ुद  का  आधा।
यह  कैसा   संबंध,   सोचती    मन    में   राधा।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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236. आज शहीदी दिवस दोस्तों (मुक्तक)

आज शहीदी दिवस दोस्तों, भगत सिंह से वीरों का।
राजगुरू, सुखदेव सरीखे, वतनपरस्त  फकीरों का।
जब भारत की, महाघोष  की  ये  हुंकारें  भरते  थे।
गोरे अफसर इनके डर से, थर-थर काँपा करते थे।।

आजादी की खातिर इनने, हँस-हँस के बलिदान दिया।
भारत  के  तीनौ  बेटों   ने,  एक  साथ  प्रस्थान  किया।
इन  मतवाले  वीरों  की  इस,  कुर्बानी  का  ध्यान  रहे।
हाथ  तिरंगा  औ  होंठों  पर, भारत  का  जयगान रहे।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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235. होली- गगन व्याकुल लगे दिखने

235. होली-14/14

1222    1222     1222    1222

गगन व्याकुल लगे दिखने, समझ लो फ़ाग आया है।
धरा भी जब लगे सजने, समझ लो फ़ाग आया है।

शिशिर की हो विदाई जब, लगे ऋतुराज की आहट,
हरारत सी  लगे  बढ़ने,  समझ लो फ़ाग आया  है।

खुमारी जब लगे छाने, बढ़े जब देह में मस्ती,
हिलोरें मन लगे भरने, समझ लो फ़ाग आया है।

कभी इस फूल के आगे, कभी उस फूल के आगे,
भ्रमर गुंजन लगें करने, समझ लो फ़ाग आया है।

किसी अलि के निवेदन पर, मचलकर जब नई कलिका,
स्वतः ही जब  लगे  खिलने, समझ  लो  फ़ाग आया है।

कपोलों  पर   दिखे   सुर्खी,   खिले  अधरों  पे  अरुणाई,
झुकी  नजरें  लगे  उठने,  समझ  लो   फ़ाग  आया  है।

बिना   श्रृंगार   के   पत्नी,   लगे   प्रतिरूप   रंभा   का,
रती  सी  जब   लगे  लगने, समझ  लो  फ़ाग  आया है।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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(पुरानी रचना)

गगन व्याकुल लगे दिखने, समझ लो फ़ाग आया है,
धरा दुल्हन सी जब दीखे, समझ लो फ़ाग आया है।

शिशिर की हो विदाई जब, लगे ऋतुराज की आहट,
हरारत सी लगे बढ़ने, समझ लो फ़ाग आया है।

फिजां रंगीन हो जाये, पवन मदहोश हो जाये,
चराचर जब बहक उट्ठे, समझ लो फ़ाग आया है।

पुराने पीत पातों के, वसन को दूर करके जब,
विटप पर कोपलें फूटें, समझ लो फ़ाग आया है।

सजाकर देह को अपनी, नवेली फूल-कलियों से,
लता जब वृक्ष से लिपटे, समझ लो फ़ाग आया है।

किसी अलि के निवेदन पर, मचलकर जब नई कलिका,
स्वतः पट  खोलने लागे, समझ लो फ़ाग आया है।

कभी इस फूल के आगे, कभी उस फूल के आगे,
भ्रमर गुंजन लगें करने, समझ लो फ़ाग आया है।

खुमारी जब लगे छाने, बढ़े जब देह में मस्ती,
हिलोरें मन लगे भरने, समझ लो फ़ाग आया है।

किसी की दृष्टि पड़ने से, चमक आँखों में आ जाये,
कदम नर्तन लगें करने, समझ लो फ़ाग आया है।

करें हुड़दंग जब बच्चे, लिए हाथों में पिचकारी,
कुलाँचें भर उठें बुढ्ढे, समझ लो फ़ाग आया है।

कपोलों पर दिखे सुर्खी, खिले अधरों पे अरुणाई,
नज़र चंचल लगे होने, समझ लो फ़ाग आया है।

बिना श्रृंगार के पत्नी, लगे प्रतिरूप रंभा की,
रती सी जब लगे लगने, समझ लो फ़ाग आया है।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Tuesday, March 22, 2016

234. माँ शारदे माँ शारदे (प्रार्थना)

माँ शारदे! माँ शारदे!
माँ शारदे! माँ शारदे!

अज्ञान की सरिता से माँ,
निज मूड़ को तू तार दे।
माँ शारदे! माँ शारदे!

सच को सदा सच कह सकूँ,
शब्दों में माँ वो सार दे।
माँ शारदे! माँ शारदे!

मन को मेरे निर्भय करो,
मेरी लेखनी में धार दे।
माँ शारदे! माँ शारदे!

हर मन को शीतल कर सकूँ,
हृदय में इतना प्यार दे।
माँ शारदे! माँ शारदे!

घृणित विजय से दूर रख,
इसकी जगह माँ हार दे।
माँ शारदे! माँ शारदे!

सत्मार्ग पर, गिर-गिर उठूँ,
यह हौसला हर बार दे।
माँ शारदे! माँ शारदे!

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Sunday, March 20, 2016

233. गेहूँ, चना, पक रहे (कवित्त)

घनाक्षरी छन्द

गेहूँ,  चना,  पक   रहे, सरसों  चटक  रही,
कटहल, नीबू  और, आम भी  बौरा  गया।

मधुर   सुगंध   लिए,  मादक   समीर  बहे,
दिल में  उतर  सारा, होश  ही  गुमा  गया।

हियरा उछाल  भरे, चाल  भी  बदल गयी,
तन में शिशिर सखि, आग को लगा गया।

तन  अँगड़ाई  लेत, अंग-अंग  टूटा  जाए,
आली हमें  ऐसा लागे, फागुन है आ गया।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Saturday, March 19, 2016

232. चारो ओर छाया फ़ाग (कवित्त)

चारो ओर छाया फ़ाग, तन में लगी है आग,
विरहा में जल रही, और न जलाइये।

अपने पिया के संग, सखी करे हुड़दंग,
आ के मेरी पीर हरो, अंग से लगाइये।।

बस में नहीं है गात, मन भी सुने न बात,
आप में रमा है इसे, आप ही मनाइये।।

याद करूँ दिन-रात, कुछ भी नहीं सुहात,
पिया-पिया बोले जिया, आप चले आइये।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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231. मौसम है मधुमास का (कुण्डलिया)

कुण्डलिया

मौसम  है मधुमास  का, नगिचाया है फ़ाग।
अंग-अंग  में  मस्तियाँ, जाग  रहा अनुराग।
जाग  रहा अनुराग, शिथिल तन हैं गदराये।
नभ-जल-थल बेचैन, आम जामुन  बौराये।
बालक हुए जवान, बढ़ा  बूढ़ों  में दमखम।
नर-नारी मदमस्त, फ़ाग का आया मौसम।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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230. दर्पण सम्मुख हो खड़ी (कुण्डलिया)

कुण्डलिया

दर्पण सम्मुख बैठ  के, छवि को  रही निहार।
नथनी,   झुमका, चूड़ियाँ,  पहन गले में हार।
पहन गले में हार,   सजे   बालों   में   गजरा।
बिंदी  सोहे  भाल,  और   आँखों  में  कजरा।
रति सा रूप  निखार, हिये में  भाव समर्पण।
कैसे  रहा सँभाल,  देख  के  ये  सब  दर्पण।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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229. दिल में आया आज लिखूँ मैं

ताटंक छंद (16/14) अंत में 3 दीर्घ।

दिल में आया आज लिखूँ मैं, टीवी की चर्चाओं पे।
मिर्च मशाले की खबरों पे, औ इनकी अफवाहों पे।
राजनीति से गठजोड़ों पे, लालच भरी निगाहों पे।
खबरों की मंडी बन बैठे, जो गलियों चौराहों पे।।

कहने को ये लोकतंत्र का, चौथा खंभा कहलाते।
किन्तु आज ये राजनीति के, तलवों को हैं सहलाते।
खुद ही बने मियां मिठ्ठू ये, खुद अपनी महिमा गाते।
औरों को नंगा करने में, खुद ही नंगे हो जाते।।

देशद्रोहियों को मंचों पर, करने बहस बुलाते जो।
फुटपाथों पर मर्डर करते, उनकी महिमा गाते जो।
आरूषी सी हत्याओं पर, बिस्तर तक घुस जाते जो।
और निर्भया की खबरों को, सालों साल चलाते जो।।

बातें करते हैं दंगों की, हिन्दू-मुस्लिम खाई की।
अमन-चैन की बात न करके, बातें करें खटाई की।
औरों की निजता में घुसकर, बातें लोग-लुगाई की। 
तार-तार अस्मत करते हैं, पीड़ित नारि पराई की।।

बात स्वच्छता की करते हैं, करते साफ सफाई की।
किन्तु कभी भी बात न करते, खुद की कालिख-काई की।
कालेधन पर चर्चाओं में, बातें पाई-पाई की।
लेकिन बात कभी नहीं करते, काली गढ़ी कमाई की।।

भरे पेट की खबरें होतीं, बातें दूध मलाई की।
बेशकीमती पोशाकों की, आलीशान कढ़ाई की।
बात झोपड़ी की नहिं करते, ना ही फटी चटाई की।
कभी बात इनसे नहिं होती, पैबंद लगी रजाई की।।

जिसको मिली पार्टी जैसी, वो उसने  हथिया ली है।
उसका महिमामंडन करने, की सौगंध उठा ली है।
मोटी-मोटी कीमत पर अब, ख़बरों की बिकवाली है।
सूट-बूट गोरी चमड़ी में, बसी आत्मा काली है।।

राई को पर्वत करने की, इनने कसम उठा ली है।
उसको ब्रेकिंग न्यूज बताते, जो बिलकुल ही जाली है।
न्यायालय में केस चल रहा, उस पर कोर्ट लगा ली है।
करके चर्चा जैसा चाहा, वैसी हवा बना ली है।।

दो खानों के मिल जाने को, बड़ी खबर बतलाते हैं।
और किसी के नामकरण की, दिनभर महिमा गाते हैं।
खुद ही गुटका और तमाकू, का प्रचार कराते हैं।
चैनल की रेटिंग की खातिर, क्या-क्या नहिं कर जाते हैं।।

बिक जाते हैं, सुरा सुंदरी का आनंद लिया करते।
बदले में हर रोज उन्हीं की, जय जयकार किया करते।
कैसी-कैसी करतूतों को, ये अंजाम दिया करते।
स्वाभिमान की बात करें पर, तलवे चाट जिया करते।।

धर्मवाद औ जातिवाद के, विस्तारण के कारक हैं।
तिल को ताड़ बनाकर कहते, ये जग के हितकारक हैं।
बहुत घमंडी, ये पाखंडी, कई मुखौटे धारक हैं।
सच कहता हूँ चाटुकार हैं, झूठों के प्रचारक हैं।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Friday, March 18, 2016

228. गोरी दर्पण सामने (कुण्डलिया)

कुण्डलिया

गोरी, गोरी  देह  का,  बैठ   करे   श्रृंगार।

कंचन झुमका हाथ ले, रही कान में डार।

रही कान में डार, सजे अधरों पर लाली।

काले-काले केश, सुरमयी  आँखें काली।

दिखे फूल सी जवां, लगे  है कोरी-कोरी।

नजर  पड़े  कुम्लाह,  देह  ये  गोरो-गोरी।

रणवीर सिंह (अनुपम)

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227. पिता अम्बर से ऊँचा है (मुक्तक)

पिता अंबर से ऊँचा  है, पिता सागर  से  गहरा  है,
पिता भीतर से उपवन पर, दिखे बाहर से सहरा है,
पिता है  तो सुरक्षा  है,  पिता से  घर  की  रक्षा  है,
वही घर-द्वार रक्षित है, पिता का जिस पे पहरा है॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
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226. महलों ने हरदम करी (कुण्डलिया)

महलों  ने   हरदम   करी,   झोपड़ियों   से   घाट।
ला  छोड़ा  फुटपाथ  पर,  कर   दिया  बारहबाट।
कर   दिया   बारहबाट,   तरक्की   में   ये   रोड़ा।
खाए  कफ़न, पहाड़,  खदान  नहीं  कुछ  छोड़ा।
सरकारी   लुटपाट,   करी   कब    खपरैलों    ने।
हरदम    लूटा     देश,   गगनचुंबी     महलों   ने।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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225. दोहे- 4 (दस गुरु)

दस गुरु

गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर।

पहली  गुरु  माँ  होत  है, दूजा गुरु है बाप।
तीजा गुरु, गुरु होत है, चौथा मेल-मिलाप।
गुरू पाँचवीं  पुस्तकें,  छठवीं  धरणी मात।
नील गगन गुरु सातवाँ, साथ रहे दिन-रात।
बाधाएं  गुरु  आठवीं,  नौवाँ  गुरु  विश्वास।
अनुभव  है दसवाँ गुरू, सदा रहे जो पास।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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पहली  गुरु  माँ  होत  है, दूजा गुरु है बाप।
तीजा गुरु, गुरु होत है, चौथा मेल-मिलाप।
चौथा मेल-मिलाप, धरणि है गुरू  पाँचवीं।
छठवाँ गुरु आकाश, पुस्तकें गुरू  सातवीं।
बाधाएं  गुरु  आठ, और  विश्वास  है नौवाँ।
सदा रहे जो पास, गुरू अनुभव  है दसवाँ।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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Thursday, March 17, 2016

224. मुझे  माँ   सिर्फ (प्रार्थना)

मुझे  माँ   सिर्फ  तेरे  ही, सहारे  का  सहारा  है।
तुम्हारे बिन जहां में माँ, यहाँ अब  को हमारा है।
तुम्हीं नैया, खिवैया तुम, तुम्हीं से माँ किनारा है।
सभी को छोड़कर माता, तुझी को अब पुकारा है।।

रणवीर सिंह (अनपम)
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Wednesday, March 16, 2016

223. कुछ दोहे - 3

माता है ये प्रार्थना, इतना कर उपकार।
वाणी मेरी मृदु रहे, लेखन में हो सार।।

दया करो माँ शारदे, चक्षु ज्ञान दो खोल।
शब्दों में माँ सार भर, वाणी में मृदु घोल।।

जिस जिव्या पर है नहीं, जय भारत, जयगान।
उसके   हित  में   है  यही,  छोड़े   हिंदुस्तान।।

कर्तव्यों की बात अब, होती नहीं हुजूर।
हर कोई अधिकार की, चर्चा में मशहूर।।

जिसकी ख़ातिर आज तक, तोड़े रिश्ते खास।
उसको ही मुझ पर नहीं, होता है विश्वास।।

'अनुपम' सारी उम्र ही, करता रहा मैं भूल।
दर्पण को पोंछत रहा, थी चहरे पर धूल।।

रूप, हुश्न, सौंदर्य की, प्रभु ने दी सौगात,
इन्हें देख सँभला रहे, है किसकी औकात।

कंपित होंठ न कर सके, जब मुख से इजहार।
नीची नज़रों ने कहा, हमको तुमसे प्यार।।

एक नहीं दस बीस भी, मिल सकती थीं हूर,
पर क्या करें कनीज़ ही, थी दिल को मंज़ूर।।

पुनः कामना है यही, पटल फले दिन-रात।
करूँ स्वागत आपका, सबको शुभप्रभात।।

निष्ठाएँ अब बिक चुकी, औ बन चुकी रखेल।
राष्ट्रप्रेम   गायब  हुआ,  देश  हुआ  है  खेल।।

जिस क्षण कान्हा ने छुआ, रुक्मिणिजी का गात।
मुख पंकज सा खिल उठा, अंग खिले ज्यों पात।।

राधे-मुख पर कृष्ण ने, जिस  क्षण मला  गुलाल।
गौरवर्ण   की   राधिका,  हुई   लाज   से  लाल।।

एक नहीं दस बीस भी, मिल सकती थीं हूर।
पर क्या करें कनीज़ ही, थी दिल को मंज़ूर।।

नगरों  से  जब  ऊबकर, आया  अपने  गाँव।
गाँवों में भी अब नहीं, पीपल, पनघट, छाँव।।

कमल वदन, केहर  कमर, नाजुक  गोरा गात।
छुअत छवी धूमिल पड़े, सोच पवन सँकुचात।।

श्याम चक्षु, श्यामल  लटें,  गौरवर्ण  ये  गात।
सब मिल हृदय पर करें, रह रहकर आघात।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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222 जुबाँ जो मिली तो

मापनी - 122 122 122  122

जुबाँ जो मिली तो चलाने लगे हो।
उदंडों सा' ऊधम मचाने लगे हो।।

जहाँ जन्म लीन्हा जहाँ पर पले हो,
वहीं बेल विष की उगाने लगे हो।।

सदा देश को लूटते खाते' आये,
हमें देशभक्ती सिखाने लगे हो।।

बड़े नासमझ हो ये क्या कर रहे हो,
खुदी आग घर को लगाने लगे हो।।

नहीं जुल्म झेला, है' आतंकियों का,
तभी तो हितैषी, बताने लगे हो।।

असल बात है भुक्तभोगी नहीं हो,
तभी पैरवी करने' आने लगे हो।।

अभी तो कहाँ कुछ किया यार मैंने,
अभी से अजी तिलमिलाने लगे हो।।

दगाबाजियाँ सिर्फ करता रहा जो,
उन्हीं के यहाँ आने-जाने लगे हो।।

पिलाकर तुम्हें दूध विषधर बनाया,
हमीं को अरे काटखाने लगे हो।।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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