Saturday, August 03, 2019

820. एक रचना।

820. एक रचना।

कभी  छुपो, कभी  दिखो, माहताब-सी लगो।

कभी सवाल की तरह, कभी जवाब-सी लगो।


महकने   लगा   चमन,  बहकने   लगा  पवन,

कुमुदिनी लगो कभी, कभी  गुलाब-सी लगो।


इस  तरह  से  छू लिया, कि पैर लड़खड़ा रहे,

शबाब  से  भरी  हुई, कोई  शराब-सी   लगो। 


संगमरमरी   बदन   पे,  नूर   ऐसा  छा   रहा, 

चौहदवीं के चाँद-सी, या आफताब-सी लगो।


आज भी  वही गुरूर, आज भी  वही अकड़,

आज भी  वही ठसक, तुम  नबाब-सी लगो।


रणवीर सिंह 'अनुपम'

03.08.2019
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