820. एक रचना।
कभी छुपो, कभी दिखो, माहताब-सी लगो।
कभी सवाल की तरह, कभी जवाब-सी लगो।
महकने लगा चमन, बहकने लगा पवन,
कुमुदिनी लगो कभी, कभी गुलाब-सी लगो।
इस तरह से छू लिया, कि पैर लड़खड़ा रहे,
शबाब से भरी हुई, कोई शराब-सी लगो।
संगमरमरी बदन पे, नूर ऐसा छा रहा,
चौहदवीं के चाँद-सी, या आफताब-सी लगो।
आज भी वही गुरूर, आज भी वही अकड़,
आज भी वही ठसक, तुम नबाब-सी लगो।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
03.08.2019
*****
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.