Monday, August 26, 2019

832. जीवन भर जूझत रहा (कुंडलिया)

832. जीवन भर जूझत रहा (कुंडलिया)

जीवन  भर  जूझत  रहा, लेकर  खाली पेट।
मरते लाखों  का हुआ, उसके  शव  का रेट।
उसके  शव  का  रेट, लगाते  नाच-नाचकर।
किसने कितना दिया, बताते  बाँच-बाँचकर।
घड़ियाली ले  अश्रु, करें  परिक्रमा तन-तन।
कैसी  है  यह  मौत, हाय यह  कैसा जीवन।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
26.08.2019
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Sunday, August 25, 2019

831. गुरुजी ने कलुआ को डाँटा

831. गुरुजी ने कलुआ को डाँटा 


गुरुजी  ने  कलुआ  को  डाँटा,

तू   खड़े-खड़े    पेशाब   करे।

नालायक  खुद  तो  बिगड़ा है,

सारा    स्कूल    खराब    करे।


झल्लाकर   बोले  कलुआ  से,

चल घर चल  वहीं  बताऊँगा।

तेरे     उत्पातों     की     गाथा,

मुखिया को  जाय  सुनाऊँगा।


कर पकड़ ले चले कलुआ को,

गुरुजी को कुछ भी पता नहीं।

यह  ज्ञान   बाप  से  ही  पाया,

बेटे   की   कोई   खता   नहीं।


गुरुजी ने देखा  मुखिया  खुद,

छत पर चढ़कर  पेशाब  करे।

सोचें   जब    राजा  हो   ऐसा,

जनता  क्यों  ना  उत्पात करे।


कथनी को सुनता कौन यहाँ?

करनी  को  सब  अपनाते हैं। 

यह बात सत्य गुण-दोष सदा,

ऊपर    से    नीचे   आते   हैं।


कपड़ा   भी   वैसा  ही  होगा,

जैसा  कपड़े   का  सूत  रहा।

बेटा  क्यों   ना   मूते  छत  से,

बापू जब  छत  से  मूत  रहा।


रणवीर सिंह 'अनुपम'

25.08.2019

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Thursday, August 22, 2019

830. जब से है चालू किया (कुंडलिया)

830. जब से है चालू किया (कुंडलिया)

जब  से  है चालू किया, गौशाला व्यवसाय।
तब से  हे प्रभु! हो रही, रोज  दोगुनी आय।
रोज  दोगुनी  आय, मजे  में  हूँ  मैं  स्वामी।
हुए  सभी  दुख  दूर, दूर अब  हर नाकामी।
ऐसा  ही  व्यवसाय, ढूँढ़ता था मैं  कब  से।
घर भर में आनंद, मिली  गौशाला  जब से।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
22.08.2019
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Tuesday, August 20, 2019

829. तन पर कपड़े गेरुआ (कुंडलिया)

829. तन पर कपड़े  गेरुआ (कुंडलिया)

तन पर कपड़े गेरुआ, मन में भरा विकार।
ऐसों ने  है  कर लिया, धर्मों पर अधिकार।
धर्मों पर अधिकार, भूमि जबरन कब्जाएं।
हाथ  पैर  दें  तोड़, राह  में  जो भी  आएं।
धर्म  दुधारू गाय, बना  ली दुहते  जी भर।
मन में भरी गलीज, गेरुआ कपड़े तन पर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
20.08.2019
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Sunday, August 18, 2019

828. डेढ़ अक्ल थी सृष्टि में (कुंडलिया)

828. डेढ़ अक्ल थी सृष्टि में (कुंडलिया)

डेढ़  अक्ल  थी  सृष्टि  में, कहता  मेरा  यार।
एक   ईश  ने   दी   उसे,  आधे   में   संसार।
आधे   में   संसार,  कौन   है   उसके  जैसा।
दिन को  मानो  रात, कहा  गर  उसने  ऐसा।
जो पाई  है अरे, अक्ल की  सिर्फ शक्ल थी।
क्यों भ्रम में जी रहा, सृष्टि में डेढ़ अक्ल थी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.08.2019
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Sunday, August 11, 2019

826. गधे पँजीरी खा रहे (कुंडलिया)

826. गधे पँजीरी खा रहे (कुंडलिया)

गधे  पँजीरी खा  रहे,  घोड़ों  को  नहिं  घास।
चवनप्राश उनको मिले, जो हैं  खासमखास।
जो हैं खासमखास, उन्हें सब सुख सुविधाएं।
ढेंचूँ   -   ढेंचूँ    करें,   गर्दभी    राग   सुनाएं।
जो-जो  घोड़े   यहाँ, देह   सबकी   है  पीरी।
रामराज्य   चहुँओर, खा  रहे   गधे   पँजीरी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.08.2019
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825. झरकटियों की वंदना (कुंडलिया)

825. झरकटियों की वंदना (कुंडलिया)

झरकटियों  की  वंदना, करो  रोकता कौन।
पर कीकर  होता नहीं, शीशम या  सागौन।
शीशम  या  सागौन, फला करते दशकों में।
सबको है मालूम, भरा क्या  इन मश्कों  में।
क्यों झूठी जयकार, कर रहे हो घटियों की।
पीपल  होकर  करो, वंदना झरकटियों की।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.08.2019
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Thursday, August 08, 2019

824. तेरे नयनों में प्रिये (कुंडलिया)

824. तेरे नयनों में प्रिये (कुंडलिया)

तेरे   नयनों   में   प्रिये,  डूब    हुआ   बेहाल।
थामें   रहना  हाथ  मम, रखना  मेरा  ख्याल।
रखना   मेरा  ख्याल,  भरोसा   केवल   तेरा।
सब कुछ दीन्हा सौंप,अब नहीं कुछ भी मेरा।
शशि-मुख मंडल  देख, मर रहे  कई  चकोरे।
लेना  लें  कहिं  प्राण, सनम  ये   नयना  तेरे।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
07.08.2019
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Sunday, August 04, 2019

822. सृष्टि-आधार हो (मुक्तक)

822. सृष्टि-आधार हो (मुक्तक)

सृष्टि-आधार हो, शक्ति का पुंज हो, नार तुमको नमन, नार तुमको नमन।
तुम न हो तो धरा एक शमशान है, तुमसे सुरभित पवन, तुमसे शोभित चमन।
कामना-वासना से जगत त्रस्त है, तुम ही करती दमन तुम ही करती शमन।
प्रेम पुष्पित करो, तुम करो पल्लवित, तुम्हरा हर आगमन शोक का है गमन।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
04.08.2019
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Saturday, August 03, 2019

821. तन पीत वसन में लिपटा है (मुक्तक)

821. तन पीत वसन में लिपटा है (मुक्तक)

तन पीत वसन में लिपटा है, कंचन-सी काया दमक रही।
अधरन पर मधुरिम हास सजे, दतियन में दामिन चमक रही।
साँसों से सुगंधित पवन बहे, चहुँदिश मलयज-सी गमक रही।
कुछ दूर सफलता स्वागत को, अपने कदमों को धमक रही।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
03.08.2019
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820. एक रचना।

820. एक रचना।

कभी  छुपो, कभी  दिखो, माहताब-सी लगो।

कभी सवाल की तरह, कभी जवाब-सी लगो।


महकने   लगा   चमन,  बहकने   लगा  पवन,

कुमुदिनी लगो कभी, कभी  गुलाब-सी लगो।


इस  तरह  से  छू लिया, कि पैर लड़खड़ा रहे,

शबाब  से  भरी  हुई, कोई  शराब-सी   लगो। 


संगमरमरी   बदन   पे,  नूर   ऐसा  छा   रहा, 

चौहदवीं के चाँद-सी, या आफताब-सी लगो।


आज भी  वही गुरूर, आज भी  वही अकड़,

आज भी  वही ठसक, तुम  नबाब-सी लगो।


रणवीर सिंह 'अनुपम'

03.08.2019
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819. दो दोहे क्या लिख लिए (कुंडलिया)

819. दो दोहे क्या लिख लिए (कुंडलिया)

दो  दोहे क्या लिख लिए, बनते सूर-कबीर।
तुक्का  कभी  चलात हैं, कभी चलाएं तीर।
कभी चलाएं तीर, एक  पटना इक  दिल्ली।
कभी  ऊँट   के  संग, बाँध  देते  हैं  बिल्ली।
कथ्य-तथ्य बेजान, काफिया भी नहिं सोहे।
मूँछे  ऐंठत  फिरें,  लिखे  जब  से  दो  दोहे।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
03.07.2019
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Thursday, August 01, 2019

818. यह कैसा रामराज्य भाई? (गीत)

818. यह कैसा रामराज्य भाई? (गीत)

यह कैसा रामराज्य भाई?

मर जाते है शिशु तड़प-तड़प, कोई भी जिम्मेदार नहीं।
लगता गरीब के बच्चों को, जीने का है अधिकार नहीं।
केवल वोटों की चिंता है, जनता की कोई फिक्र नहीं।
अफसोस नहीं कुछ लाज नहीं, निज नाकामी का  जिक्र नहीं।
इनके चहरे हैं लाल-लाल, हमरे चहरों पर मुर्दाई।


हैं कई मुज्जफरनगर यहाँ, कितने ही हैं कन्नौज यहाँ।
बच्चियाँ नोचकर खा जाते, ऐसे गिद्धों की  फौज यहाँ।
जिस जगह दबी होंगी लाशें, ऐसे तो कई ठौर होंगे।
इस रामराज में ना जाने, कितने उन्नाव और होंगे।
जिस जगह कई मक्कारों ने, अस्मत होगी नोची खाई।


भारत माता की जय-जयकर, सड़कों पर झुंड उतर आते।
जिसने भी आनाकानी की, तो पकड़ उसे सब लठियाते।
हर लड़की इन्हें लगे गुंडी, हर लड़का है मजनूं लगता।
ज्योंही कोई जोड़ा देखें, अंतर का क्रोध फूट पड़ता।
झंडा-डंडा ले हाथ आज, गुंडों की नई फौज आई।


रणवीर सिंह 'अनुपम'
01.08.2019
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