Saturday, September 23, 2017

415. हमरी तो किस्मत में मरना (नवगीत)

415. हमरी तो किस्मत में मरना (नवगीत)

हमरी  तो  किस्मत  में  मरना, 
घुट-घुट  रोज मरें।
अन्तहीन  विपदाओं  के  घन,  
टारे   नहीं   टरें।

कड़क ठंड में नंगा तन ले,
मन में लेकर आस,
खाली  उदर  लगे  रहते  हैं,
बिना भूख बिन प्यास।
पाँच  हजार  जुताई  देते,
बीज  में  पाँच हजार,
दस हजार की खाद लगावें,
मेहनत बिना पगार।

लेकर बीस  हजार सूद  पर, 
कैसे   कर्ज   भरें।

आस  लगाए  बीबी-बच्चे, 
लगे   रहें   दिन-रात,
खेती पर  ही  टिकी  हुई है,
बिटिया  की  बारात।
अम्मा का चश्मा  लेना  है,
और मुन्नी को  फ्रॉक,
लेकिन आमदनी का पौधा,
तीन पात का ढाक।

उस पर अनदेखे  संशय  से, 
रह-रह  प्राण  डरें।

हुआ तुषारापात आस पर,
आयी ओलावृष्टि,
कैसे इस दिल को समझाएं,
कैसे  हो  संतुष्टि।
भाग दौड़ में  दो सौ खर्चे,
पाँच सौ दे दी फीस,
तब छः बीघा की खेती पर,
मिला मुआवज़ा बीस।

छह सौ अस्सी और लद गये,
बोलो  क्या  करें।

ओला, वर्षा, बाढ़, आपदा,
की है किसको फिक्र?
नहीं धरातल पर कुछ दिखता,
पेपर पर है जिक्र।
कइयों मरे जहर को खाकर,
कइयों फंदा डार,
कइयों मरे डूबकर, कइयों,
का डूबा रुजगार।

सरकारें चुपचाप शांत हैं,
हाथ  पे  हाथ  धरें।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
23.09.2017
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