Sunday, September 03, 2017

408. उस रूपवती मृगनयनी पर (नवगीत)

408. उस रूपवती मृगनयनी पर (नवगीत)

उस रूपवती मृगनयनी पर,
जब एक नजर पड़ जाती है।
तब हृदय डोलने लगता है,
अतिशय धड़कन बढ़ जाती है।

क्यों है अंतर में बेचैनी,
क्यों है इस मन में आकुलता,
क्यों है तड़पन, क्यों पीड़ा है,
क्योंकर है इतनी व्याकुलता।
क्यों बढ़ जाता है स्पंदन,
क्यों स्वांस और चढ़  जाती है।

वह गौरवर्ण, कुंदन काया,
चौदस सा खिलता चंद्रवदन,
वो चाप समान भवें तिरछी,
चंचल मादक मदहोश नयन।
हर नजर कटीली वक्ष चीर,
उर भीतर गड़-गड़ जाती है।

छू-छूकर गोरा मादक तन,
खुद पवन मचलने लगती है,
लावण्य और सौंदर्य देख,
हर कलिका जलने लगती है।
हर एक पंखुड़ी फूलों की,
शर्माकर झड़-झड़ जाती है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
03.09.2017
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