Sunday, September 10, 2017

411. यहाँ महीने भर कंगाली (नवगीत)

411. यहाँ महीने भर कंगाली (नवगीत)

यहाँ महीने भर कंगाली,
का रहता है साया।
अरे आंकड़ेबाज आंकड़े,
फिर से तू ले लाया।

चुनरी फटी हुई 'धनिया' का
'गोबर' नंगा घूमे,
'होरी' लदा कर्ज से थककर
मौत का फंदा चूमे।

प्राण छोड़कर भी दुर्दिन से,
पीछा छूट न पाया।

चाहे जिसे, चढ़ा दो सूली,
जान गरीबों की है,
और तुम्हारे पास कौन सी,
कमी सलीबों की है।

देख मगरमच्छी ये आँसू,
बाजीगर शरमाया।

भूख पे भाषण देने वालो,
भूख को जीकर देखो,
शोषित जीवन का खारापन,
आँसू पीकर देखो।

हमदर्दी से उदर आज तक,
किसका है भर पाया।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.09.2017
*****

No comments:

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.