Saturday, September 30, 2017

422. नैनन सिंधु अथाह लिए है (मुक्तक)

422. नैनन सिंधु अथाह लिए है (मुक्तक)

नैनन  सिंधु  अथाह लिए है, मुख की कांति दसौ दिश छाई।
दंत कतार खिले मोतिन सी, होंठन मृदु मुस्कान सुहाई।
वक्ष  उभार  लिए  दुइ  टीला,  केश  भुजंग  भरें अँगड़ाई।
चाल निहार लजात हिरनिया, रूप निहार मयंक लजाई।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
30.09.2017
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421. कइयों रावण जल चुके (कुण्डलिया)

421. कइयों रावण जल चुके (कुण्डलिया)

कइयों रावण  जल चुके,  आये कइयों राम।
राम नाम  के नाम पर, करते कुत्सित काम।
करते कुत्सित काम,  धर्म  को  नोचें  खाएं।
कभी स्वयं को कृष्ण, कभी  श्रीराम  बताएं।
बनकर   धर्माधीश,  लूटते  लाज  दुशासण।
धर्मगुरू  का  भेष,  धरे  हैं  कइयों   रावण।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
30.09.2017
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कइयों - कई।

420. मँहगा होता सत्य क्यों (कुण्डलिया)

420. मँहगा होता सत्य क्यों (कुण्डलिया)

मँहगा  होता  सत्य  क्यों,  और  झूठ आसान।
क्यों  इसमें   दुश्वारियाँ,  क्यों  ले   लेता  जान।
क्यों  ले  लेता  जान,  जान   जाने   से  पहले।
सच है  दुष्कर बहुत, भले कोई  कुछ  कह ले।
इसकी  चूनर   फटी,  फटा  रहता   है  लँहगा।
सच  कहता  हूँ  सत्य,  बड़ा  होता  है  मँहगा।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
30.09.2017
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419. वेदना कुछ कम नहीं (नवगीत)

आज के ब्यायफ्रेंडस् पर एक नवगीत।

419. वेदना कुछ कम नहीं (नवगीत)

मत समझिये आधुनिक,
परिवेश में कुछ गम नहीं।
आज के इन मजनुओं की,
वेदना कुछ कम नहीं।

कल्पना की कल्पना में,
कुछ बिचारे रह गये।
तो किसी के दिल किसी,
आशा के मारे रह गये।
कइयों को राधा मिली थी,
कामिनी और गीतिका।
जुड़ नहीं संबंध पाया,
पर किसी से प्रीत का।

यह अलग है बात फिर भी,
आँख इनकी नम नहीं।

कुछ तो छः छः प्रेमिकाओं,
की जकड़ से ग्रस्त हैं।
काम धेले का नहीं,
माँ-बाप इनके त्रस्त हैं।
मँहगी-मँहगी रोज जब,
फरमाइशें बढ़ने लगें।
प्यार के मारे बिचारे,
क्या न कुछ करने लगें।

प्रेमिका को जेब में अब,
दीखता दमखम नहीं।

कान ईयरफोन से,
हरवक्त ही बोझिल दिखें।
उँगलियाँ चलभाष पर हैं,
व्यस्त जाने क्या लिखें।
फोन पर आदेश देते,
चीखते, चिल्ला रहे।
आँख काढ़े प्रेमिका को,
डाँटते, गरिया रहे।
जिंदगी इनकी भी लगती,
है मुझे बमबम नहीं।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
29.09.2017
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Thursday, September 28, 2017

418. माँ, बहना, सहचारिणी (कुण्डलिया)

नवरात्रों के पावन पर्व पर, नारी पर एक कुण्डलिया छंद।

418. माँ, बहना, सहचारिणी (कुण्डलिया)

माँ, बहना, सहचारिणी, इसके रूप अनेक।
नारी नर  का  मूल है, इससे  ही  हर - एक।
इससे ही  हर - एक,  नार से  कौन अछूता।
सखा, सचिव, गुरु, वैद्य, नार है  ईशप्रसूता।
शक्ति, प्रेम  का स्रोत, धरा है  यही आसमाँ।
नार सृष्टि  आधार,  नार  है  माओं  की  माँ।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
27.09.2017
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माँ,  बहना,  सहचारिणी, तुम्हरे  रूप अनेक।
तुम ही नर  का मूल हो,  तुमसे  है  हर - एक।
तुमसे  है  हर - एक,  विश्व  में  कौन  अछूता।
सखा, सचिव, गुरु, वैद्य, तुम्ही हो  ईशप्रसूता।
शक्ति,  प्रेम का स्रोत, धरा हो  तुम्ही आसमाँ।
तुम्ही जगत आधार, शत नमन  तुमको है माँ।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
27.09.2017
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Saturday, September 23, 2017

416. टीवी - बीबी में यही (कुण्डलिया)

416. टीवी - बीबी  में  यही (कुण्डलिया)

टीवी - बीबी  में  सखे, बहुत  बड़ा  है फर्क।
एक  रहे   कंट्रोल   में,   दूजी   रहे   सतर्क। 
दूजी   रहे  सतर्क, आँख हरदम  दिखलाए।
बात-बात  पर रौब, दिखा  छाती  पर आए।
फिर भी पति की जान, शान होती है बीबी।
बीबी जब  हो  संग,  तभी  भाती  है  टीवी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
23.09.2017
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415. हमरी तो किस्मत में मरना (नवगीत)

415. हमरी तो किस्मत में मरना (नवगीत)

हमरी  तो  किस्मत  में  मरना, 
घुट-घुट  रोज मरें।
अन्तहीन  विपदाओं  के  घन,  
टारे   नहीं   टरें।

कड़क ठंड में नंगा तन ले,
मन में लेकर आस,
खाली  उदर  लगे  रहते  हैं,
बिना भूख बिन प्यास।
पाँच  हजार  जुताई  देते,
बीज  में  पाँच हजार,
दस हजार की खाद लगावें,
मेहनत बिना पगार।

लेकर बीस  हजार सूद  पर, 
कैसे   कर्ज   भरें।

आस  लगाए  बीबी-बच्चे, 
लगे   रहें   दिन-रात,
खेती पर  ही  टिकी  हुई है,
बिटिया  की  बारात।
अम्मा का चश्मा  लेना  है,
और मुन्नी को  फ्रॉक,
लेकिन आमदनी का पौधा,
तीन पात का ढाक।

उस पर अनदेखे  संशय  से, 
रह-रह  प्राण  डरें।

हुआ तुषारापात आस पर,
आयी ओलावृष्टि,
कैसे इस दिल को समझाएं,
कैसे  हो  संतुष्टि।
भाग दौड़ में  दो सौ खर्चे,
पाँच सौ दे दी फीस,
तब छः बीघा की खेती पर,
मिला मुआवज़ा बीस।

छह सौ अस्सी और लद गये,
बोलो  क्या  करें।

ओला, वर्षा, बाढ़, आपदा,
की है किसको फिक्र?
नहीं धरातल पर कुछ दिखता,
पेपर पर है जिक्र।
कइयों मरे जहर को खाकर,
कइयों फंदा डार,
कइयों मरे डूबकर, कइयों,
का डूबा रुजगार।

सरकारें चुपचाप शांत हैं,
हाथ  पे  हाथ  धरें।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
23.09.2017
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Saturday, September 16, 2017

412. नयनों की ये तिरछी चितवन (मुक्तक)

412. नयनों की ये तिरछी चितवन (मुक्तक)

नयनों की ये तिरछी चितवन, चुप रहकर भी सब बोल रही।
खामोश  दृष्टि  चुपके - चुपके, अंतर्मन  के  पट  खोल रही।
दूधियावर्ण  श्रृंगारित  तन, गति, लय सँग ताल तरंगित हो।
जग को आंदोलित करने को, रति स्वयं  धरा पर डोल रही।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.09.2017
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Sunday, September 10, 2017

411. यहाँ महीने भर कंगाली (नवगीत)

411. यहाँ महीने भर कंगाली (नवगीत)

यहाँ महीने भर कंगाली,
का रहता है साया।
अरे आंकड़ेबाज आंकड़े,
फिर से तू ले लाया।

चुनरी फटी हुई 'धनिया' का
'गोबर' नंगा घूमे,
'होरी' लदा कर्ज से थककर
मौत का फंदा चूमे।

प्राण छोड़कर भी दुर्दिन से,
पीछा छूट न पाया।

चाहे जिसे, चढ़ा दो सूली,
जान गरीबों की है,
और तुम्हारे पास कौन सी,
कमी सलीबों की है।

देख मगरमच्छी ये आँसू,
बाजीगर शरमाया।

भूख पे भाषण देने वालो,
भूख को जीकर देखो,
शोषित जीवन का खारापन,
आँसू पीकर देखो।

हमदर्दी से उदर आज तक,
किसका है भर पाया।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.09.2017
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Friday, September 08, 2017

410. झुमका नथनी से कहे (कुण्डलिया)

410. झुमका नथनी से कहे (कुण्डलिया)

झुमका  नथनी  से  कहे,  काहे  दिखे  उदास।
तेरी - मेरी   एक  गति,  एक   हमारी   प्यास।
एक   हमारी   प्यास,   एक  है  शोक  हमारा।
एक  विरह,  संताप,  एक   का   हमें  सहारा।
जो  है  मुझको  रोग,  लगा  है वो  ही तुमका।
फिर क्यों होय अधीर, कहे नथनी से झुमका।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
07.09.2017
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Tuesday, September 05, 2017

409. तेरे मन का यह मौन प्रिये (मुक्तक)

409. तेरे मन का यह मौन प्रिये (मुक्तक)

तेरे मन का  यह मौन प्रिये, हिरदय की  बातें  बोल रहा।
अंतर के बंद कपाटों को, खटका-खटकाकर खोल रहा।
बिंदी, नथनी,  कंगन, चूड़ी, पायल  उर  में  उत्साह भरे।
दूधिया देह  खामोश  नज़र, लखकर अंतर्मन डोल रहा।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
05.09.2017
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Sunday, September 03, 2017

408. उस रूपवती मृगनयनी पर (नवगीत)

408. उस रूपवती मृगनयनी पर (नवगीत)

उस रूपवती मृगनयनी पर,
जब एक नजर पड़ जाती है।
तब हृदय डोलने लगता है,
अतिशय धड़कन बढ़ जाती है।

क्यों है अंतर में बेचैनी,
क्यों है इस मन में आकुलता,
क्यों है तड़पन, क्यों पीड़ा है,
क्योंकर है इतनी व्याकुलता।
क्यों बढ़ जाता है स्पंदन,
क्यों स्वांस और चढ़  जाती है।

वह गौरवर्ण, कुंदन काया,
चौदस सा खिलता चंद्रवदन,
वो चाप समान भवें तिरछी,
चंचल मादक मदहोश नयन।
हर नजर कटीली वक्ष चीर,
उर भीतर गड़-गड़ जाती है।

छू-छूकर गोरा मादक तन,
खुद पवन मचलने लगती है,
लावण्य और सौंदर्य देख,
हर कलिका जलने लगती है।
हर एक पंखुड़ी फूलों की,
शर्माकर झड़-झड़ जाती है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
03.09.2017
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Saturday, September 02, 2017

407. उड़कर के तुमने चाँद को

407. उड़कर के तुमने चाँद को

उड़कर के तुमने चाँद को  छू भी  लिया  तो क्या,
धरती  पे   रहकर  आसमां   छूते   तो  बात  थी।
लाशों पे चढ़कर तख्त को हासिल किया तो क्या,
दिल  पर  हमारे  राज  जो  करते  तो   बात  थी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
02.09.2017
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