कुछ चौपाइयाँ
अक्सर ले ले नए बहाने। ताक में रहते हमें जलाने।।
पहले घर में आग लगाते। आकर हमदर्दी दिखलाते।।
इनको इतनी समझ न आई। पर पीड़ा सम नहिं अधिमाई।।
परहित है ईश्वर की पूजा। मानवता सम धर्म न दूजा।।
हमें नोच कर जो खाते हैं। वोट माँगने आ जाते हैं।।
मतलब है भूखे नंगों से। या फिर मतलब है दंगों से।।
कैसे, कैसे स्वप्न दिखाते। वादों से हमको भरमाते।।
जीत जाँय फिर कभी न आते। अपनी सूरत नहीं दिखाते।।
धर्म-जाति पर हमें लड़ाते। हम पागल हो लड़ भी जाते।।
दारू पीकर हाथ कटाते। चंद रुपैयों में बिक जाते।।
जिसने बिकना सीख लिया है। उसने हरदम अहित किया है।।
जो नहिं भ्रष्ट और व्यभिचारी। होता वही राष्ट्र हितकारी।।
नहीं जन्म से कोई ऊँचा। नहीं जन्म से कोई नीचा।।
ऊँचा-नीचा कर्म बनाते। धर्म-जाति पीछे रह जाते।।
सिंह हमेशा सिंह ही' होता। कब वो डरकर आपा खोता।।
शूर मौत से है कब डरता। भूखा शेर घास कब चरता।।
जिसने भय को मीत बनाया। वो इज्जत से कब जी पाया।।
जिसने मरना सीख लिया है। उसने यम को जीत लिया है।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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