मापनी-221 2122 221 2122
कोई बुला रहा है, आवाज देके' हम को।
फिर से जगा रहा है, दिल में हमारे' गम को।
जग को बताउँ कैसे, हालात यार अपने।
जो-जो गुजर रही है, कैसे कहूँ सनम को।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी-221 2122 221 2122
कोई बुला रहा है, आवाज देके' हम को।
फिर से जगा रहा है, दिल में हमारे' गम को।
जग को बताउँ कैसे, हालात यार अपने।
जो-जो गुजर रही है, कैसे कहूँ सनम को।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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स्वप्न सुंदरी"
मापनी-2222 2222 2222 2222
मेघ भरी काली रातों में, अनजाना सा पहरा होता।
व्योम ताकते इन नयनों में, अक्सर ख्वाब सुनहरा होता।।
आँखें मूँद, भूलना चाहूँ, फिर क्यों नींद नहीं आती,
करवट बदल-बदलकर यों ही, रोज रात कटती जाती,
बेकल विरह वेदना से ये, अंतर तपता सहरा होता।।
गीत लिखूँ या कोई कविता, उसकी छवि को पाता हूँ,
लिखना चाहूँ विरह गीत पर, प्रेम गीत लिख जाता हूँ।
क्योंकि इन आँखों में उसका, खिला गुलाबी चेहरा होता।।
ख्वाबों के उपवन में आकर, कलिका बन खिल जाती है,
जब यह स्वप्न सुंदरी मुझको, सपनों में मिल जाती है।
रात दिवाली हो जाती है, अगला दिवस दशहरा होता।।
क्यों मीरा को विष मिलता है, मजनूँ को पत्थर मिलते,
शीरी औ फरहाद सदा क्यों, विरह वेदना में जलते,
प्रेम मार्ग क्यों इतना दुष्कर, क्यों जग गूंगा-बहरा होता।।
मर्म भरी अनुराग की' बातेँ, अनुरागी ही जान सके,
मुल्ला-पंडित धर्म के' ज्ञाता, इसको कब पहिचान सके,
प्रेम में' सब कुछ सह जाता जो, वो सागर से गहरा होता।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी-1222 1222 1222 1222
करूँ किस पर भरोसा और किसके पास जाऊँ मैं।
हमारे दिल में' क्या-क्या है, किसे जाकर दिखाऊँ मैं।।
यही लगता कि चाहत में, कमी कुछ रह गयी मेरी,
जिसे वो ही न सुन पाये, जहां को क्या सुनाऊँ मैं।।
जिगर का दर्द क्या होता, जिगर वाला समझ पाये,
दिलों पर जो गुजरती है, उसे कैसे बताऊँ मैं।।
जिन्हें अपना बनाया है, जिन्हें दिल में बसाया है,
बताओ किस तरह उनको, नजर से अब गिराऊँ मैं।।
हमारे घर जो' जलवाते, हमें दंगों में' मरवाते,
उन्हें इंसानियत कैसे, बताओ अब सिखाऊँ मैं।।
जिधर भी देखिये हर ओर खाने में लगी दुनियाँ,
सभी कुछ खा लिया जिनने, उन्हें क्या अब खिलाऊँ मैं।।
उन्हें लीडर, उन्हें प्रतिनिधि, उन्हें मंत्री बना डाला,
बनाकर भाग्य निर्माता, उन्हें अब क्या बनाऊँ मैं।।
वतन के रहनुमा ही जब, वतन को बेंचते फिरते,
कहाँ से हिंद की धरती, पे' हिंदुस्तान लाऊँ मैं।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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जय कोठा जय कोठेवाली, जय कोठा जय कोठेवाली॥
तेरे अंतर की पीढ़ा की, अनुभूति नहीं मैं कर सकता,
तेरी तकलीफों का वर्णन, शायद ही कोई कर सकता,
फिर भी जितना मैं समझ सका, है कलम उसे लिखने वाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जग में नारी के रूप कई, माँ, बहन, भार्या और बेटी,
इक रूप और भी देखा जो, चिपचिपे बिस्तरों पर लेटी,
यह रूप भी, रूप है नारी का, चर्चा जिसकी होने वाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
प्रेमी बन अंतर में उतरा, रसपान किया, तन, यौवन का,
फिर एक दिवस अभिनय करके, सौदा कर डाला जीवन का,
भोली-भाली नहिं जान सकी, है आज कहाँ जानेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जीवन में हल पल, हर पग पर, नारी ने साथ निभाया है,
पुरुषों पर जब संकट आया, नारी ने उसे बचाया है,
लेकिन इसके बदले नर ने, नारी इक चीज बना डाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
बस उदरपूर्ति के लिए नहीं, कोई सर्वस्व लुटाता है,
बस इसी वजह के लिए नहीं, कोठे पे बैठ कोई जाता है,
कुछ कारण और भी हैं जिससे, नारी की होती बिकवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जग नहीं जानता तूँ क्या है? तूँ नहीं जानती, तूँ क्या है?
दुनियाँ को इतनी समझ कहाँ, वह नहीं जानती तूँ क्या है?
जो समझ मिली मुझको शायद, हर किसी न आनेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जो मान रहा हूँ मैं उसको, मानेगा सभ्य जमाना भी,
तेरे जीवन की महिमा को, जानेगा सभ्य जमाना भी,
गर आज नहीं तो कल, परसों, चेतना इसे आने वाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जो करे गंदगी वो ऊँचा, जो साफ करे वो नीचा है,
अपने स्वारथ की पूर्ति हेतु, ऐसा पैमाना खींचा है,
ये तुच्छ सोच ही मानव की, है गर्त में ले जानेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
भटके पुरुषों की काम-अग्नि, तूँ ही तो शीतल करती है,
यौवन, रंग-रूप, अदा तेरी, कितनों को जीवन देती है,
वरना इन गृद्धों से दुनियाँ, दो दिन भी न बचनेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
तूँ जैसी है, तूँ जो भी है, जीवन की एक हकीकत है,
महलों की अस्मत की रक्षक, तुझ सी नारी की कीमत है,
नहिं वक्ष उठा कोई चल पाती, इन सड़कों पर चलनेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
कामुक समाज की पीड़ा को, हँस-हँस करके हरना होगा,
मानव हित में विष पीकर भी, यह कर्म तुझे करना होगा,
जिस दिन तूँ इससे विमुख हुई, उस दिन प्रलय आनेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जब मन में अंतर्द्वंद चले, तब याद मेनका को करना,
रम्भा, उर्वशी की तूँ वंशज, ढोंगी पुरुषों से क्या डरना,
तूँ आज आम्रपाली फिर बन, इज्जत, शोहरत, गौरववाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
यह सभ्य समाज ऋणी तेरा, ऋण नहीं चुका सकता कोई,
जग में तेरे उपकारों को, है नहीं भुला सकता कोई,
शत बार नमन, शत बार नमन, करता हूँ हे कोठेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
रणवीर सिंह (अनुपम)
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गीत
जय कोठा जय कोठेवाली, जय कोठा जय कोठेवाली॥
तेरे अंतर की पीढ़ा की, अनुभूति नहीं मैं कर सकता,
तेरी तकलीफों का वर्णन, शायद ही कोई कर सकता,
फिर भी जितना मैं समझ सका, है कलम उसे लिखने वाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जग में नारी के कई रूप, माँ, बहन, भार्या औ बेटी,
इक रूप और भी देखा जो, चिपचिपे बिस्तरों पर लेटी।
यह रूप भी, रूप है नारी का, चर्चा जिसकी होने वाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
प्रेमी बन अंतर में उतरा, रसपान किया, तन, यौवन का,
फिर एक दिवस अभिनय करके, सौदा कर डाला जीवन का,
भोली-भाली नहिं जान सकी, है आज कहाँ जानेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जीवन में पग-पग पर देखो, नारी ने साथ निभाया है,
पुरुषों पर जब संकट आया, नारी ने उसे बचाया है,
लेकिन इसके बदले नर ने, नारी इक चीज बना डाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
बस उदरपूर्ति के लिए नहीं, कोई सर्वस्व लुटाता है,
बस इसी वजह के लिए नहीं, कोठे पे बैठ कोई जाता है,
कुछ कारण और भी हैं जिससे, नारी की होती बिकवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जो मान रहा हूँ मैं उसको, मानेगा सभ्य जमाना भी,
तेरे जीवन की महिमा को, जानेगा सभ्य जमाना भी,
गर आज नहीं तो कल परसों, चेतना इसे आने वाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जो करे गंदगी वो ऊँचा, जो साफ करे वो नीचा है,
अपने स्वारथ की पूर्ति हेतु, कैसा पैमाना खीचा है,
ये तुच्छ सोच ही मानव की, है गर्त में ले जानेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
तू जैसी है, तू जो भी है, जीवन की एक हकीकत है,
महलों की अस्मत की रक्षक, तुझ सी नारी की कीमत है,
न वक्ष उठा कोई चल पाती, इन सड़कों पर चलनेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
जब मन में अंतर्द्वंद चले, तब याद मेनका को करना,
रम्भा, उर्वशी की तू वंशज, ढोंगी पुरुषों से क्या डरना,
तू आज आम्रपाली फिर बन, इज्जत, शोहरत, गौरववाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
यह सभ्य समाज ऋणी तेरा, ऋण नहीं चुका सकता कोई,
जग में तेरे उपकारों को, है नहीं भुला सकता कोई,
शत बार नमन, शत बार नमन, करता हूँ हे कोठेवाली॥
जय कोठा जय कोठेवाली...
रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी - 2122 2122 2122 212
सिंहनी हो आचरण फिर, सिंहनी जैसा करो।
हंसनी होकर के’ कागों, संग मत घूमा करो।
आप अपनी आबरू का, मान करना सीखिये।
झाड़ियों में इस तरह से, मत उठा-बैठा करो।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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कवित्त
भारत के कृषक की, पूँछिये न दशा आज,
सदियाँ गुजर गयीं, वही बुरा हाल है।
चिथड़ों में जीता रहे, रोज हाथ रीता रहे,
खाली पेट रहे और, मन में मलाल है।
सबका जो पेट भरे, वही आज भूखा मरे,
फाँसी पे लटक रहा, किसी को न ख्याल है।
रुपया लगा के इसे, अस्सी पैसे मिलते हैं,
खेती बन गई आज, जान का जंजाल है।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी - 2122 2122 2122 212
आम जनता को लड़ानेे, से भला होगा नहीं।
दुश्मनों कें गीत गाने, से भला होगा नहीं।
धर्म, मजहब, प्रान्त, भाषा याद रखना ठीक है,
पर वतन को भूल जाने, से भला होगा नहीं।
घूसखोरी से कमा लो, पर समझ लो आप ये,
देश को यूँ लूट खाने, से भला होगा नहीं।
है जरूरत आम, जामुन, पीपलों की, नीम की,
इन बबूलों को उगाने, से भला होगा नहीं।
छोड़कर तुलसी, गिलोई, नाँगफलियाँ मत उगा,
कैक्टस घर में लगाने, से भला होगा नहीं।
दोस्ती अच्छी नहीं है, दुश्मनों से इस तरह,
आने' जाने घर बुलाने, से भला होगा नहीं।
आज तक जग ने कभी भी, बात निर्बल की सुनी?
हर समय यूँ गिड़गिड़ाने, से भला होगा नहीं।
दुश्मनों को उनके' घर में, मारने की बात कर,
सैनिकों को यूँ मराने, से भला होगा नहीं।
जो तरक्की चाहते हो, हर किसी की सोचिये,
सिर्फ बिजनिस को बढ़ाने, से भला होगा नहीं।
पेट जो भरता सभी का, बात उसकी भी करो,
सिर्फ हमदर्दी जताने, से भला होगा नहीं।
आदमी हो आदमी की, फिक्र करना सीखिये,
मंदिर मस्जिद को बनाने, से भला होगा नहीं।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी-212 212 212 212
नैन तीखे कटीलीे नजर आपकी।
देह नाजुक, लचीली कमर आपकी।
आप ऐसे न आँचल उठाकर चलो।
इसके' लायक नहीं है उमर आपकी।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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कुछ चौपाइयाँ
अक्सर ले ले नए बहाने। ताक में रहते हमें जलाने।।
पहले घर में आग लगाते। आकर हमदर्दी दिखलाते।।
इनको इतनी समझ न आई। पर पीड़ा सम नहिं अधिमाई।।
परहित है ईश्वर की पूजा। मानवता सम धर्म न दूजा।।
हमें नोच कर जो खाते हैं। वोट माँगने आ जाते हैं।।
मतलब है भूखे नंगों से। या फिर मतलब है दंगों से।।
कैसे, कैसे स्वप्न दिखाते। वादों से हमको भरमाते।।
जीत जाँय फिर कभी न आते। अपनी सूरत नहीं दिखाते।।
धर्म-जाति पर हमें लड़ाते। हम पागल हो लड़ भी जाते।।
दारू पीकर हाथ कटाते। चंद रुपैयों में बिक जाते।।
जिसने बिकना सीख लिया है। उसने हरदम अहित किया है।।
जो नहिं भ्रष्ट और व्यभिचारी। होता वही राष्ट्र हितकारी।।
नहीं जन्म से कोई ऊँचा। नहीं जन्म से कोई नीचा।।
ऊँचा-नीचा कर्म बनाते। धर्म-जाति पीछे रह जाते।।
सिंह हमेशा सिंह ही' होता। कब वो डरकर आपा खोता।।
शूर मौत से है कब डरता। भूखा शेर घास कब चरता।।
जिसने भय को मीत बनाया। वो इज्जत से कब जी पाया।।
जिसने मरना सीख लिया है। उसने यम को जीत लिया है।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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साँसों में सुगंध लिए, चंदन की गंध लिए,
बहने' लगी है जैसे, ब्यार मरुथल में।
अँखियों में प्रीत लिए, अधरों पे गीत लिए,
आकर समाने लगी, जगत सकल में।
धरती गुलाबी हुई, पवन शराबी हुई,
जाने क्या-क्या घट रहा, एक-एक पल में।
यौवन अपार देख, रूप औ श्रृंगार देख,
मच उठी हलचल, नभ, जल, थल में।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी-1222 1222 1222 1222
जनम से शूरमाँ हैं हम, किसी से कब कहाँ डरते।
अगर हो मौत भी सम्मुख, फिकर उसकी कहाँ करते।
हमें तो मारते हैं कुछ, हमारे राजनेता ही।
मिसाइल, तोप, बंदूकों, के' मारे हम कहाँ मरते।।
उधर सरहद पे हर गोली, को' हम सीने पे' खा जाते।
वरण कर मौत को, पत्नी, को' विधवा हम बना जाते।
इधर कुछ राजनेता हैं, जो' आतंकी बचाने को।
सभी मिल, रात में आकर, अदालत को हैं' खुलवाते।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी-1222 1222 1222 1222
अधर्मी को सदाचारी, मुझे कहना नहीं आया।
कभी भी संग भ्रष्टों का, मुझे अब तक नहीं भाया।
जिन्हें थी चाह बिकने की, बिके लाखों करोड़ों में।
करूँ क्या यार मैंने इस, हुनर को सीख ना पाया।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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मापनी-1222 1222 1222 1222
बता इक बार तो देते, अगर ये ही इरादा था।
किया था क्यों भला तुमने, निभाना जब न वादा था।
फकत इस बात पर तुमने, किनारा कर लिया जानम।
मैं' सच्चा आदमी था और, जीवन सीधा' साधा था।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
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